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विनम्रता

जब जीवन की अस्थिरता समझ में आती है, तब मन विनम्र हो जाता है कभी-कभी ज़िंदगी हमें सबसे बड़ी सीख बहुत छोटे अनुभवों के माध्यम से देती है। कोई रिश्ता टूट जाए, कोई सपना बिखर जाए, कोई अपनी सफलता पर गर्व करे या असफलता पर दुखी—इन सबके बीच एक अदृश्य धागा है, जिसे बहुत कम लोग पहचान पाते हैं: जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है। सब बदलता है, सब चलता रहता है, और कुछ भी हमेशा के लिए नहीं होता। 1.  जब “सब अस्थायी है” समझ आता है, तब घमंड गिर जाता है हम अक्सर किसी उपलब्धि, किसी पद, किसी शक्ति या किसी संपत्ति पर गर्व करने लगते हैं। लेकिन सच तो यह है कि समय के आगे कोई भी स्थिति स्थायी नहीं है। जिस कुर्सी पर आज हम बैठे हैं, कल कोई और बैठेगा। जिस शोहरत पर हम आज इतराते हैं, कल कोई नाम तक न ले। जब यह समझ भीतर उतर जाती है, तो इंसान विनम्र होना सीख जाता है। वह जान जाता है कि अहंकार का कोई अर्थ नहीं—क्योंकि जिसे हम “अपना” मानते हैं, वह भी समय का उधार है। 2.  दुख और टूटन भी अस्थायी हैं अक्सर लोग सोचना शुरू कर देते हैं कि उनका दर्द हमेशा रहेगा—परंतु जीवन की अस्थिरता का नियम यह भी कहता है कि दुख भी गुजर जाता ...

दिखावा

आजकल की शादियाँ देखकर दिल रोता है।   कुछ घंटों का फंक्शन...   डेकोरेशन, लाइटिंग, खाना, बैंड-बाजा, डेस्टिनेशन वेन्यू...   लाखों-करोड़ों उड़ जाते हैं, एक रात में।   और फिर?   वही शादी कुछ महीनों, कुछ सालों में...   या कभी-कभी तो कुछ दिनों में ही टूट जाती है।   सारे सपने, सारी चमक-दमक...   सिर्फ़ तलाक के कागजों और खाली बैंक बैलेंस रह जाते हैं।   तो सोचिए...   वो सारा पैसा जो एक शाम की चकाचौंध में उड़ा दिया,   अगर उसी बेटी के नाम पर FD करवा दिया जाता,   तो उसकी पूरी जिंदगी संभल जाती।   उसकी पढ़ाई, उसका घर, उसका बिजनेस, उसकी मुश्किल घड़ी...   हर जगह वो पैसा उसका सहारा बनता।   शादी का असली मतलब है –   दो लोगों का साथ, विश्वास और जिम्मेदारी।   यह किसी होटल की ग्रैंड एंट्री से नहीं,   दिल की सच्चाई से बनता है।   पैसा दिखावे पर नहीं,   बेटी की सुरक्षा पर लगाओ।   क्योंकि वो चमकती लाइटें एक ...

कुछ अनकही

कितने ही लोग होंगे इस दुनिया में जो हर रोज एक नया चेहरा ओढ़कर निकलते हैं। पर अपने भीतर तूफ़ान समेटे बैठे हैं और ऊपर से बिल्कुल शांत दिखते हैं। हर चेहरे की अलग कहानी है पर फिर भी उस पर मुस्कान, आँखों में चमक, लेकिन भीतर कहीं गहराई में कितनी ही बातें दबी रहती हैं।कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बोलना चाहते हैं, पर शब्द गले तक आते-आते रुक जाते हैं। उन्हें डर होता है कि उनकी बातें शायद कोई समझ ही न पाए। या फिर कोई हँस दे, मज़ाक बना दे। इस डर ने ही कितने दिलों को पत्थर बना दिया है। कितनी ही दफ़ा इंसान अपने सबसे गहरे दर्द को भी ऐसे छुपा लेता है जैसे वो कोई गुनाह हो। मैं सोचता हूँ, कितनी ही मोहब्बतें होंगी जो अधूरी रह गईं, कितने रिश्ते ऐसे होंगे जिनमें बात करने की जगह बस चुप्पी बची है। कोई है जो अपने ही घर में अनसुना रह गया है, कोई है जो भीड़ में गुम होकर भी अकेला महसूस करता है। कितने चेहरे होंगे जिनकी हँसी बस औपचारिक है, और कितनी आँखें होंगी जिनकी नमी कभी ज़ाहिर नहीं होती। ये सच है कि हर इंसान एक कहानी है, मगर बहुत कम कहानियाँ सुनी जाती हैं। हम सब भीतर ही भीतर बोझ उठाए रहते हैं, बिना ये जाने कि कोई ...

कल हो ना हो

मैंने हाल ही में एक किताब पढ़ी-“The Top Five Regrets of the Dying” जिसे एक नर्स Bronnie Ware ने लिखा है। वो हर दिन उन लोगों के साथ रहती थी जो ज़िंदगी के आख़िरी मोड़ पर थे। मरने से पहले उन्होंने पाँच बातें कही पाँच पछतावे…जो शायद हमारे भी होंगे। मरने से पहले लोगों के पाँच पछतावे: 1. काश मैं वो ज़िंदगी जी पाता जो मैं चाहता था, वो नहीं जो दुनिया मुझसे चाहती थी। 2. काश मैंने इतना काम न किया होता, थोड़ा वक्त अपने लिए भी निकाला होता। 3. काश मैंने अपने दिल की बात खुलकर कही होती, उसे भीतर दबाकर नहीं रखा होता। 4. काश मैंने अपने परिवार और दोस्तों के लिए और वक्त निकाला होता। 5. काश मैंने वो किया होता, जिससे मैं सच में खुश होता। जब मैंने ये पढ़ा, तो दिल जैसे रुक गया…क्योंकि ये सिर्फ़ एक किताब नहीं थी-ये हम सबकी ज़िंदगी का आईना थी। क्योंकि हम भी तो यही करते हैं ना? हर दिन कहते हैं-एक दिन मैं गाना गाऊँगा…..एक दिन मैं योगा शुरू करूँगा…एक दिन दुनिया घूमूँगा…एक दिन माँ के साथ पूरा दिन बिताऊँगा…एक दिन मैं खुद के लिए जियूँगा…” पर क्या हम कभी रुके हैं ये सोचने के लिए कि कितने ‘एक दिन’ बचे हैं हमारे पास? अ...

खुद से युद्ध

सुबह होती है।  अलार्म बजता है। मन में पहला सवाल उठता है -“6 बजे उठूँ या 6:30 पर?” दिन की शुरुआत भी अपने भीतर, अपनेआप से होने वाली बातचीत से होती है। फिर यही बातचीत पूरे दिन चलती रहती है — “आज से डाइटिंग शुरू कर दूँ या कल से?” “सच बोलूँ या थोड़ी बात छिपा लूँ?” “बॉस से छुट्टी माँग लूँ या टाल दूँ?” “जिसने बुरा बोला, उसे जवाब दूँ या चुप रह जाऊँ? हर मिनट, हर सेकंड —ईश्वर हमें एक चुनाव दे रहे हैं। Choice A या Choice B. और यही हमारा हर निर्णय हमारे कर्मों को आकार दे रहा है। और वही कर्म, हमारा भाग्य बना रहे हैं । यही है—विचार मंथन। हमारे भीतर हर पल दो शक्तियाँ लड़ती रहती हैं —देवता और असुर। प्रकाश और अंधकार। शांति और क्रोध।क्षमा और बदला। किसी ने हमें अपमानित किया —असुर आवाज़ देता है: “उससे बदला लो! उसे सबक सिखाओ!”  देवता भीतर धीरे से फुसफुसाते हैं: “छोड़ दो, मत लड़ो । तुम इन बातों के लिए नहीं बने हो “ और हर बार जब हम निर्णय लेते हैं -हम या तो अपने अंदर के देव को मजबूत करते हैं, या असुर को। यही है असली संग्राम-जो हमारे भीतर है, जिसे हम रोज़ लड़ते हैं । समुद्र मंथन में विष भी निकला था औ...

समय नहीं है....

दस घंटे का सफर में दो-चार घंटे में पूरा हो जाता है फिर भी हमें लगता है कि  समय नहीं है जो मैसेज में महीनों में मिलते थे   सेकंड में मिल जाते हैं।  फिर भी हमें लगता है समय नहीं है।  सात समुंदर दूर बैठे व्यक्ति को देखने के लिए हम सालों तरस जाते थे अब महज कुछ सेकंड में उनसे आमने-सामने बात भी हो जाती है फिर भी हमें लगता है कि समय नहीं है। बैंक की लाइन में घंटों खड़े रहने की जगह मोबाइल पर सेकंड में लेनदेन हो जाता है फिर भी समय नहीं है।  अस्पताल में जांच पड़ताल कई महीने में होती थी अब बस कुछ घंटों में हो जाती है फिर भी समय नहीं है। यहां तक की किताब पढ़ने के लिए समय नहीं है  अखबार पढ़ने के लिए समय नहीं है । मम्मी पापा को फोन करने तक का समय नहीं है प्रकृति को महसूस करने का समय नहीं है । लेकिन लेकिन लेकिन ____  क्रिकेट मैच के लिए समय होता है आईपीएल देखना हो तो समय होता है नेटफ्लिक्स के लिए समय होता है।  हमें  कुछ जरूरी करना होता है तो भी समय निकलता है ।  सोशल मीडिया के लिए तो हर समय साथ ही होता है।  बस खुद के लिए कोई समय नहीं है ।  सच्च...

मन रे तू........

“मन से बाहर निकल जाइए, और आप जान लेंगे कि यह क्या है: वह जो आदि रहित और अनंत है। मन का आदि है और अंत भी है, इसलिए मन और वास्तविकता कभी नहीं मिल सकते। मन शाश्वत को नहीं समझ सकता। और यदि आप सचमुच समझना चाहते हैं, तो आपको मन को खोना पड़ेगा। आपको मन को खोने की कीमत चुकानी पड़ेगी। लेकिन यदि आप ज़िद करेंगे, ‘मुझे तो मन के माध्यम से ही समझना है,’ तो केवल एक ही चीज़ संभव है  मन धीरे-धीरे आपको यकीन दिला देगा कि कुछ भी ऐसा नहीं है जो आदि रहित हो, कुछ भी ऐसा नहीं है जो अंतहीन हो, कुछ भी ऐसा नहीं है जो अज्ञेय हो। धीरे-धीरे, वास्तविकता से संपर्क करने की कला सीखिए, बिना मन के बीच में आने के। कभी-कभी जब सूरज अस्त हो रहा हो, बस बैठ जाइए और सूरज को देखते रहिए, उसके बारे में सोचिए मत — केवल देखिए, मूल्यांकन मत कीजिए, यहाँ तक कि यह भी मत कहिए ‘कितना सुंदर है!’ जिस क्षण आप कुछ कहते हैं, मन बीच में आ जाता है यदि आप सचमुच समझना चाहते हैं, तो आपको मन को खोना पड़ेगा। आपको मन को खोने की कीमत चुकानी पड़ेगी। लेकिन यदि आप मन का ही उपयोग करने पर ज़ोर देंगे, तो केवल वही ज्ञान मिलेगा, केवल वही चीज़ें मिलेंगी जिन...

सच्चाई खुद की

जरूरत से ज्यादा महत्व  आप टूटेंगे और वे आदत बना लेंगे. हम इंसान हैं. प्यार करते हैं, महत्व देते हैं, ख्याल रखते हैं. कभी-कभी अपनी सीमाएं लांघकर, अपने आराम और ज़रूरतों को पीछे छोड़कर, दूसरों को समय, अवसर और स्नेह दे बैठते हैं. लेकिन सच यह है  जब आप किसी को उसकी ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत देते हैं, तब आप अनजाने में अपने ही अपमान की नींव रख रहे होते हैं. यह बात कड़वी है, लेकिन सच है. जब आप किसी को बार-बार प्राथमिकता देते हैं, तो धीरे-धीरे वे यह मानने लगते हैं कि आप तो हमेशा उपलब्ध हैं. जब भी कॉल करेंगे, आप उठाएंगे. जब भी जरूरत होगी, आप दौड़कर आ जाएंगे. फिर वे आपको कोई "खास" नहीं मानते, बल्कि "आसान" समझने लगते हैं. वे इस आदर और सहयोग को सराहना नहीं, अधिकार समझने लगते हैं. आपका समय, आपकी सहानुभूति, आपकी चिंता सब कुछ उनके लिए एक आदत बन जाती है. उन्हें महसूस ही नहीं होता कि आप क्या खो रहे हैं, कितना दे रहे हैं. धीरे-धीरे वे आपकी सीमाएं लांघना शुरू कर देते हैं. क्योंकि आपने एक बार, दो बार, दस बार चुपचाप सह लिया. अब उन्हें लगता है कि आप सब कुछ सह सकते हैं. और जब आप थकने लगते ह...

सामान्य जीवन

आज से तीसेक साल पहले की बात बतलाऊँ। तब अमीर भी इतने अमीर नहीं होते थे कि एकदम अलग-थलग हो जावें। अपना लोटा-थाली अलग लेकर चलें। पंगत में सब साथ ही जीमते थे। मिठाइयों की दुकान पर वही चार मिठाइयाँ थीं, बच्चों के लिए ले-देकर वही चंद खिलौने थे। जब बाज़ार ही नहीं होगा तो करोड़पति भी क्या ख़रीद लेगा? अमीर से अमीर आदमी भी तब दूरदर्शन पर हफ्ते में दो बार रामायण, तीन बार चित्रहार और नौ बार समाचार नहीं देख सकता था, क्योंकि आते ही नहीं थे। देखें तो उस ज़माने में तक़रीबन सभी एक जैसे ग़रीब-ग़ुरबे थे। सभी साइकिल से चलते थे। कोई एक तीस मार ख़ां स्कूटर से चलता होगा। हर घर में टीवी टेलीफोन नहीं थे। फ्रिज तो लखपतियों के यहां होते, जो शरबत में बर्फ़ डालकर पीते तो सब देखकर डाह करते। लोग एक पतलून को सालों-साल पहनते और फटी पतलून के झोले बना लेते। चप्पलें चिंदी-चिंदी होने तक घिसी जातीं। कोई लाटसाहब नहीं था। सब ज़िंदगी के कारख़ाने के मज़दूर थे।  जीवन जीवन जैसा ही था, जीवन संघर्ष है ऐसा तब लगता नहीं था। दुनिया छोटी थी। समय अपार था। दोपहरें काटे नहीं कटतीं। पढ़ने को एक उपन्यास का मिल जाना बड़ी दौलत थी। दूरदर्शन पर कोई फ़िल...

कठिन जीवन

आज के मरीज़ को देखकर अक्सर लगता है कि बीमारी उसके शरीर में नहीं, बल्कि उसकी भूमिकाओं में है। सुबह से लेकर रात तक वह कई किरदारों में बंटा रहता है। एक ही इंसान पिता भी है, बेटा भी, पति भी, नौकरीपेशा भी और समाज का जिम्मेदार सदस्य भी भूमिकाएँ नई नहीं हैं, इंसान हमेशा से इन्हें निभाता आया है। लेकिन फर्क यह है कि पहले इन भूमिकाओं की गति धीमी थी, सीमाएँ स्पष्ट थीं और अपेक्षाएँ सीमित। आज वही भूमिकाएँ विज्ञान और तकनीक की रफ्तार में इतनी तेज़ हो चुकी हैं कि मन और शरीर उस बोझ को झेल ही नहीं पा रहे। पुराने समय के समाज की एक खासियत थी - लोगों को सीमाओं का ज्ञान था,ये भी कह सकते हैं,कम एक्सप्लोर किया था । दिन का काम दिन में ही सिमट जाता था, रात विश्राम के लिए होती थी। गाँव का दायरा छोटा था, रिश्तों की अपेक्षाएँ तय थीं। तुलना बहुत कम थी और जीवन का तालमेल एक निश्चित लय में चलता था। भूमिकाओं के बीच खाली जगह थी, जिससे मन और शरीर को संतुलन मिल जाता था। आज का समय उस खालीपन को निगल चुका है। ऑफिस घर तक पीछा करता है, ईमेल और व्हाट्सएप हर वक्त टोकते हैं। बच्चे माता–पिता से पहले से कहीं ज़्यादा उम्मीद करते हैं...

शिक्षा

"जिसे हम आज शिक्षा कहते हैं, वह वास्तव में शिक्षा है ही नहीं। आपके शिक्षक आपको सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए तैयार करते हैं, लेकिन वे आपको जीवन जीने के बारे में नहीं बताते  जबकि वही सबसे महत्वपूर्ण है; क्योंकि बहुत कम लोग जानते हैं कि वास्तव में कैसे जिया जाता है। हममें से अधिकांश लोग बस किसी तरह जीवित रहते हैं, घिसटते हुए चलते हैं, और इसलिए जीवन एक भयानक बोझ बन जाता है। वास्तव में जीने के लिए बहुत प्रेम, मौन के प्रति गहरी अनुभूति, सरलता, और साथ ही अनुभवों की समृद्धि की आवश्यकता होती है; इसके लिए एक ऐसे मन की ज़रूरत होती है जो स्पष्टता से सोच सके, जो किसी पूर्वाग्रह या अंधविश्वास, किसी आशा या भय से बंधा न हो। यही सब जीवन है और यदि आपको जीने के लिए शिक्षित नहीं किया जा रहा है, तो फिर ऐसी शिक्षा का कोई अर्थ नहीं। आप बहुत साफ-सुथरे हो सकते हैं, आपके आचरण अच्छे हो सकते हैं, आप सारी परीक्षाएं पास कर सकते हैं; लेकिन इन सतही बातों को जब समाज की पूरी संरचना ही ढह रही हो, तब प्राथमिक महत्व देना ऐसा है जैसे कोई अपने नाखून साफ और चमका रहा हो जबकि उसका घर जल रहा हो। देखिए, कोई भी आपको इन बातो...

प्रेमतत्व

प्रेम और लगाव  दोनों में एक महीन-सा फर्क होता है। प्रेम में हम किसी के लिए कुछ भी कर सकते हैं, सब कुछ दे सकते हैं  क्योंकि प्रेम में जो कुछ भी दिया जाता है, वो अधिकार की तरह लगता है, एहसान की तरह नहीं। क्योंकि प्रेम में देना अधिकार बन जाता है, एक स्वाभाविक प्रवृति, लेकिन जब कोई सिर्फ इंसानियत के नाते कुछ करता है  वहाँ प्रेम नहीं होता, न कोई गहराई, न कोई दावा। वहाँ केवल एक मानवीय संवेदना होती है, तब वो एक एहसान होता है। उस संवेदना को पहचानना, उसका आदर करना और उसे याद रखना  यही सच्ची एहसानमंदी है। ऐसे रिश्तों में हम चाहें भी तो कोई दावा नहीं कर सकते। न वहाँ कोई अधिकार होता है, न उम्मीद की गुंजाइश। वहाँ हम केवल ‘मेहमान’ की तरह होते हैं  कुछ पल के लिए स्वागत तो होता है, लेकिन ठहरने का हक़ नहीं मिलता। इंसानियत रिश्तों को जन्म दे सकती है, लेकिन उन्हें गहराई नहीं देती  वो गहराई केवल प्रेम से आती है। प्रेम अधिकार देता है। इंसानियत सिर्फ़ उपस्थिति देती है। इसलिए रिश्तों में अपनी सीमाएं समझना और उन्हें स्वीकार करना बहुत ज़रूरी होता है। हर बार जो इमोशनल सपोर्ट मिलता है...

खुद की कीमत

अपने सिद्धांतों पर अडिग रहो — किसी को खुश करने की कीमत मत चुकाओ। किसी की जरूरत बन जाना गर्व की बात है, लेकिन उसे अपनी काबिलियत का प्रमाण मत समझो। किसी भी इंसान के जीवन में सबसे बड़ा धोखा तब होता है जब वह दूसरों को खुश करने की कोशिश में खुद से समझौता करने लगता है। हर इंसान को यह समझना ज़रूरी है कि प्रोफेशनलिज़्म का मतलब केवल काम करना नहीं होता, बल्कि अपने विचारों और सिद्धांतों पर टिके रहना होता है। यही असली ताकत है। जो बार-बार झुकता है, वह केवल कमजोर नहीं होता  वह धीरे-धीरे अदृश्य हो जाता है। खुशामद एक आसान रास्ता लगता है, पर उसकी मंज़िल अपमान होती है। शुरुआत में लोग आपकी विनम्रता को पसंद करेंगे, लेकिन जब उन्हें यह दिखेगा कि आप किसी भी हद तक झुक सकते हैं, तब वे आपसे सम्मान नहीं, नियंत्रण की उम्मीद करने लगते हैं। जो बार-बार दूसरों की हाँ में हाँ मिलाता है, वह अपनी ‘ना’ खो देता है। और जब एक इंसान अपनी असहमति जताने की ताकत खो देता है, तब वह केवल एक उपकरण बनकर रह जाता है  इस्तेमाल किया जाने वाला। जैसे-जैसे समय बीतता है, ऐसे लोगों को समझ में आता है कि उन्होंने खुद को खो दिया है — और...

देसी नुस्खे

अगर आप  कुछ खाने पीने की चीज़ों में सुधार करते हो तो अपने शरीर को स्वस्थ बनाने में मदद हो सकती है  आप अपने डॉक्टर खुद बन सकते है, 1. नमक केवल सेन्धा प्रयोग करें।थायराइड, बी.पी.पेट ठीक होगा। 2. कुकर स्टील का ही काम में लें। एल्युमिनियम में मिले lead से होने वाले नुकसानों से बचेंगे 3.तेल कोई भी रिफाइंड न खाकर केवल तिल, सरसों, मूंगफली, नारियल प्रयोग करें। रिफाइंड में बहुत केमिकल होते हैं जो शरीर में कई तरह की बीमारियाँ पैदा करते हैं । 4. सोयाबीन बड़ी को 2 घण्टे भिगो कर, मसल कर ज़हरीली झाग निकल कर ही प्रयोग करें। 5. देसी गाय के घी का प्रयोग बढ़ाएं।अनेक रोग दूर होंगे, वजन नहीं बढ़ता। 6. ज्यादा से ज्यादा मीठा नीम/कढ़ी पत्ता खाने की चीजों में डालें, सभी का स्वास्थ्य ठीक करेगा। 7. ज्यादा चीजें लोहे की कढ़ाई में ही बनाएं। आयरन की कमी किसी को नहीं होगी।  8. भोजन का समय निश्चित करें, पेट ठीक रहेगा। भोजन के बीच बात न करें, भोजन ज्यादा पोषण देगा। 9. नाश्ते में अंकुरित अन्न शामिल करें। पोषक विटामिन, फाइबर मिलेंगें। 10. सुबह के खाने के साथ देशी गाय के दूध का बना ताजा दही लें, पेट ठीक रहेगा। 11...

रिश्ता

कभी सोचा है कि एक रिश्ता आखिर टूटता कैसे है? ना कोई बड़ी लड़ाई होती है, ना कोई गुस्से से भरी चिट्ठी, ना ही कोई आंसुओं वाला अलविदा। बस सब कुछ चुपचाप होता है.. जैसे धूप में रखी कोई चीज़ धीरे-धीरे रंग खो देती है, जैसे दीवार पर टंगी तस्वीर धीरे-धीरे धुंधली हो जाती है, वैसे ही एक रिश्ता भी अपनी चमक खोने लगता है बिना शोर के, बिना विद्रोह के। शुरुआत में सब अच्छा लगता है। हर गुड मॉर्निंग, हर कॉल, हर रील, हर बातसब खास लगती है। लेकिन फिर धीरे-धीरे—एक अदृश्य दीवार खड़ी होने लगती है... "उम्मीद" की दीवार। उम्मीद होती है कि सामने वाला भी उतना ही चाहे, उतनी ही फिक्र करे, उतना ही जताए। और जब वो हमारी कल्पनाओं के मुताबिक नहीं चलता, तब शुरू होता है "नाप-तौल" का खेल— "मैं ही हर बार गुड मॉर्निंग क्यों भेजूं?" "मैं ही क्यों कॉल करूं?" "मैंने रील भेजी, उसने देखी तक नहीं।" "मैंने उसकी तस्वीर पर दिल से लिखा, उसने कोई रिएक्शन तक नहीं दिया।" ये बातें छोटी लगती हैं, लेकिन असल में यही गांठें हैं। जो हर बार रिश्ते के धागे को थोड़ा और कमजोर कर देती हैं। हम...

स्वर्ग

हमारे घर के पास एक भाभी रहती हैं.  अपना घर बहुत सुंदर रखती हैं.  एक एक चीज करीने से जमी है. गार्डन भी बेमिसाल है.  हर फूल,  धुला-खिला है.  मगर उनके ख़ुद के चेहरे पर मुर्दनगी छायी रहती है. पथरायी सूरत, कर्कश वाणी, लहजे में चिडचिडाहट. उनके हृदय में दूसरों से कुढ़न और प्रतिशोध की भावनाएं निरंतर चलती रहती हैं. इसी वज़ह से वह अस्वस्थ भी हैं.  वह अमीर हैं. उनके चारों तरफ स्वर्ग है मगर मन से वह नर्क में रहती हैं. इसी तरह मैं अपने कुछ पुरुष मित्रों को देखता हूँ पैसे से अमीर हैं, मगर शरीर थुल थुल है. खाने पीने पर सौ पाबंदियाँ हैं, चलने फिरने में सांस फूलती है. चेहरे पर तनाव और मन में अशांति है.   कीमती गाड़ी, महंगा फर्नीचर.  सब संसाधन उपलब्ध हैं मगर  शरीर और मन से वह नर्क में हैं. भारत में पचास उम्र के ऊपर, ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो शरीर और मन दोनों से स्वस्थ हों. स्वर्ग निर्माण के चक्कर में ज्यादातर लोग अपना जीवन, नर्क बना चुके होते हैं. फिर जिस स्वर्ग निर्माण में वह जुटे हैं उसका दायरा भी सीमित है, वह उनके घर से बढ़कर पड़ोसी के घर तक नहीं जाता. इ...

गाली

गाली एक ऐसा शब्द है जो हमारे सामाजिक व्यवहार, मानसिक स्थिति और सांस्कृतिक सोच का गहरा प्रतिबिंब है। यह सिर्फ अशोभनीय भाषा नहीं होती, बल्कि यह एक मानसिकता को दर्शाती है — एक ऐसी मानसिकता जो क्रोधित होकर शब्दों की मर्यादा तोड़ देती है, तर्क और संवेदनशीलता को ताक पर रख देती है, और व्यक्ति की आंतरिक असहायता को उजागर करती है। यह दुखद और चिंतनशील बात है कि अधिकतर गालियाँ स्त्रियों को आधार बनाकर बनाई गई हैं। माँ, बहन, बेटी जैसे पवित्र और कोमल रिश्तों को अपमान का माध्यम बना देना इस बात का प्रमाण है कि समाज में स्त्री को अब भी स्वतंत्र और समान व्यक्ति नहीं माना गया है। गालियों में स्त्री का उपयोग केवल इसलिए होता है क्योंकि समाज ने पुरुष की इज्जत को स्त्री के शरीर से जोड़कर देखा है। जब कोई किसी पुरुष को नीचा दिखाना चाहता है, तो वह उसकी बहन या माँ पर गंदे शब्दों का प्रयोग करता है। गाली देने वाला जानता है कि सामने वाले की भावनाओं को चोट पहुँचाने का सबसे आसान तरीका है — उसके स्त्री संबंधों पर हमला करना। यह सोच स्त्री के अस्तित्व को केवल एक वस्तु, एक माध्यम और एक सम्मान के प्रतीक से ज़्यादा कुछ नहीं...

सेवा

एक आश्चर्यजनक रीति चल पड़ी है, बुजुर्ग बीमार हुए, एम्बुलेंस बुलाओ, जेब के अनुसार 3 स्टार या 5 स्टार अस्पताल ले जाओ, ICU में भर्ती करो और फिर जैसा जैसा डाक्टर कहता जाए, मानते जाओ। और अस्पताल के हर डाक्टर, कर्मचारी के सामने आप कहते है कि "पैसे की चिंता मत करिए, बस इनको ठीक कर दीजिए" और डाक्टर एवं अस्पताल कर्मचारी लगे हाथ आपके मेडिकल ज्ञान को भी परख लेते है और फिर आपके भावनात्मक रुख को देखते हुए खेल आरम्भ होता है.. कई तरह की जांचे होने लगती हैं, फिर रोज रोज नई नई दवाइयां दी जाती है, रोग के नए नए नाम बताये जाते हैं और आप सोचते है कि बहुत अच्छा इलाज हो रहा है। 80 साल के बुजुर्ग के हाथों में  सुइयां घुसी रहती है, बेचारे करवट तक नही ले पाते। ICU में मरीज के पास कोई रुक नही सकता या बार बार मिल नही सकते। भिन्न नई नई दवाइयों के परीक्षण की प्रयोगशाला बन जाता है 80 वर्षीय शरीर। आप ये सब क्या कर रहे है एक शरीर के साथ ? शरीर, आत्मा, मृत्युलोक, परलोक की अवधारणा बताने वाले धर्म की मान्यता है कि ज्ञात मृत्यु सदा सुखद परिस्थिति में होने, लाने का प्रयत्न करना चाहिए। इसलिए वर्तमान में ग्रामीण क्ष...

जीवन मृत्यु

अनिश्चितताओं से भरी इस ज़िंदगी का अटल सत्य — मृत्यु, कभी खबर आती है कि पहलगाम जैसी खूबसूरत वादियों में कुछ मासूम लोग अचानक गोलियों के शिकार हो गए।  कभी सुनते हैं कि कोई मंच पर नाचते-नाचते मुस्कुराता हुआ इस दुनिया को अलविदा कह गया।  कहीं किसी सड़क हादसे में एक ही पल में हँसता-खिलखिलाता परिवार दुनिया छोड़ जाता है, तो कहीं अचानक आसमान में उड़ता विमान राख बनकर ज़मीन पर गिर पड़ता है। हमारी सांसों  का यह सफर हर क्षण एक ऐसे धागे पर चल रहा है, जो कब टूट जाए — कोई नहीं जानता। हमें लगता है कि हमारे पास बहुत वक्त है — कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे, लेकिन हर बीतता पल हमें मृत्यु के करीब और करीब ले जा रहा है।  यही तो एकमात्र अटल सत्य है — मृत्यु। इसीलिए कहते हैं, हर सांस ईश्वर का वरदान है। जो आज मिला है, वही सबसे बड़ा उपहार है। कौन जाने अगला क्षण किसे मिलेगा, किसे नहीं? इसलिए जितना हो सके, इस क्षण को प्रेम से जियो, आभार से जियो। किसी से कटु वचन कहने से पहले सोचो — क्या पता अगली मुलाकात ही न हो?  किसी से मनमुटाव हो तो उसे सुलझा लो — क्या पता किसके जीवन में अगला सूरज ही न उगे। य...

पाप

भारत में करोड़ों की जनसंख्या में से कई करोड़ लोग महाकुंभ स्नान करके आए, लोगों की हिम्मत, भावनाएं और मन की आस्था ये सराहनीय कार्य हैं।  निस्संदेह मन की आस्था है, ना किसी से होड़ है,ना ही दिखावा है।  गंगा,यमुना, सरस्वती के स्नेह में भीगने की आस्था है। लेकिन "पाप", पाप, गलतियां, पछतावे को ना गंगा धो पाती हैं ना यमुना, ना सरस्वती,  जो अहिंसक भावनाएं हमारी सोच से निकलती हैं ना उसकी अनुभूति उसका पछतावा अगर हमारे "मन" के घाट पर ना हो तो चाहे लाख डुबकी लगाओ गंगा में, गंगा जमना गायब रहेगी ।

धर्म के नाम पर

तो परसों शाम से पहलगाम का न्यूज देख रहा हूं मैं, दुःख 26 से ज्यादा लोगों की मृत्यु का है, और दिल के किसी कोने में एक कसक भी, सोचा कुछ लिंखू पर फिर सोचा की लिखना सही भी होगा क्योंकि हालात बदत्तर है देश का, जनता की, लिखने को तो लिख दो पर वही तुम सत्ता के गुलाम हो, तुम विपक्ष के गुलाम हो। फिर भी लिख रहा पता न किसपे क्या असर होगा वो तो पोस्ट के रिएक्शन से पता चलेगा तो सच ये है की हम बंट रहे है, मजहब के नाम पे, कास्ट के नाम पे, स्टेट के आधार पे, भाषा के आधार पे, क्षेत्र के आधार पे, कही कही शक्ल के आधार पे(ख़ासकर के पूर्वोत्तर राज्यों के लोगो के साथ ऐसा भेद भाव देखा जाता है) ये बंटवारा हम खुद के लिए नही करते है, यही एक कटु सत्य है इसे चाहे कोई कितना भी झुठला ले पर सत्य यही है की हम खुद के लिए नही बंटे है हमें बांट दिया गया है और इसी बंटवारे से चल रही है राजनीति, धर्म के नाम पे हिंदुत्व का झंडा लिए कुछ पार्टी वाले, कुछ इस्लाम के सपोर्ट करने वाले इन्होंने देश बांटा है, कास्ट के हिसाब से राज्यों के जनता को बांट दिया गया है, इसमें मलाई सभी राजनीतिक पार्टी वाले खाते है इससे फायदा किसको है अगर देख...

बजट

सरकारों ने आज तक भले ही हम देशवासियों के लिए न जाने कितने ही अनगिनत बजट, योजनाओं, और राहत पैकेजों की घोषणाएं की हों लेकिन हाथ पल्ले कुछ ज्यादा पड़ता दिखा कभी नहीं विशेषकर हम मिडिल क्लास के हाथ तो हमेशा से खाली रहे हैं और आगे भी खाली ही रहने वाले हैं। लेकिन हर बच्चे के जीवन में उसके माता-पिता के रूप में एक ऐसी  सरकार ज़रूर होती है , जिसका हर बजट, योजना और पैकेज केवल उसी की ज़रूरतों को पूरा करने के हिसाब से बनाया जाता है वो भी बिना किसी टैक्स, धन्यवाद या फायदे की उम्मीद रखते हुए। सरकार का बजट और राहत पैकेज तो साल में एक ही बार आता है लेकिन पिता का यह राहत पैकेज उनके हर शाम काम से घर लौटने पर आता ही आता  है। देश के बड़े बड़े वित्त मंत्रियों की तरह महंगे फोल्डरों या लाल कपड़े में लिपट कर तो नहीं लेकिन साइकिल के हैंडिल पर टंगे हम सभी के बचपन वाले इस चिरपरिचित छींट के थैले में। शायद सभी के ज़हन में इसकी यादें आज भी तरोताजा होंगी। शाम को गली के मोड़ से ही सुनाई देती घर लौटते पापा की साईकिल की घंटी सुनकर बच्चे जब दौड़ कर दरवाज़ा खोलते तो साईकिल के हैंडिल पर टंगा यह थैला एक अलग ही खुशि...