रिश्ता
कभी सोचा है कि एक रिश्ता आखिर टूटता कैसे है?
ना कोई बड़ी लड़ाई होती है, ना कोई गुस्से से भरी चिट्ठी, ना ही कोई आंसुओं वाला अलविदा।
बस सब कुछ चुपचाप होता है..
जैसे धूप में रखी कोई चीज़ धीरे-धीरे रंग खो देती है,
जैसे दीवार पर टंगी तस्वीर धीरे-धीरे धुंधली हो जाती है,
वैसे ही एक रिश्ता भी अपनी चमक खोने लगता है
बिना शोर के, बिना विद्रोह के।
शुरुआत में सब अच्छा लगता है।
हर गुड मॉर्निंग, हर कॉल, हर रील, हर बातसब खास लगती है।
लेकिन फिर धीरे-धीरे—एक अदृश्य दीवार खड़ी होने लगती है...
"उम्मीद" की दीवार।
उम्मीद होती है कि सामने वाला भी उतना ही चाहे,
उतनी ही फिक्र करे, उतना ही जताए।
और जब वो हमारी कल्पनाओं के मुताबिक नहीं चलता,
तब शुरू होता है "नाप-तौल" का खेल—
"मैं ही हर बार गुड मॉर्निंग क्यों भेजूं?"
"मैं ही क्यों कॉल करूं?"
"मैंने रील भेजी, उसने देखी तक नहीं।"
"मैंने उसकी तस्वीर पर दिल से लिखा, उसने कोई रिएक्शन तक नहीं दिया।"
ये बातें छोटी लगती हैं, लेकिन असल में यही गांठें हैं।
जो हर बार रिश्ते के धागे को थोड़ा और कमजोर कर देती हैं।
हम बोल भी नहीं पाते, और सहते-सहते अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं।
फिर एक दिन
जब दिल भरकर देखना चाहो तो महसूस होता है अब सब वैसा नहीं रहा।
नाम वही है, तस्वीरें भी वही हैं,
पर एहसास वो कहीं पीछे छूट चुके होते हैं।
रिश्ता अब सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाता है
बिना बेसब्री के, बिना गर्माहट के,
सिर्फ ढेर सारी चुप्पियों और अधूरी उम्मीदों का मकान।
असल में रिश्ता कभी अपने आप नहीं टूटता।
हमारी खामोश उम्मीदें, हमारी गिनती करती भावनाएं
उसे धीरे-धीरे तोड़ देती है
बिल्कुल वैसे ही जैसे दीमक लकड़ी को अंदर ही अंदर खोखला कर देती है।
अगर चाहो कि रिश्ता जिंदा रहे,
तो नाप-तौल छोड़ दो,
पहल करते रहो बिना हिसाब के।
क्योंकि
रिश्ते "बराबरी" नहीं,
"भावना मांगते हैं।
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