बजट
सरकारों ने आज तक भले ही हम देशवासियों के लिए न जाने कितने ही अनगिनत बजट, योजनाओं, और राहत पैकेजों की घोषणाएं की हों लेकिन हाथ पल्ले कुछ ज्यादा पड़ता दिखा कभी नहीं विशेषकर हम मिडिल क्लास के हाथ तो हमेशा से खाली रहे हैं और आगे भी खाली ही रहने वाले हैं।
लेकिन हर बच्चे के जीवन में उसके माता-पिता के रूप में एक ऐसी सरकार ज़रूर होती है , जिसका हर बजट, योजना और पैकेज केवल उसी की ज़रूरतों को पूरा करने के हिसाब से बनाया जाता है वो भी बिना किसी टैक्स, धन्यवाद या फायदे की उम्मीद रखते हुए।
सरकार का बजट और राहत पैकेज तो साल में एक ही बार आता है लेकिन पिता का यह राहत पैकेज उनके हर शाम काम से घर लौटने पर आता ही आता है।
देश के बड़े बड़े वित्त मंत्रियों की तरह महंगे फोल्डरों या लाल कपड़े में लिपट कर तो नहीं लेकिन साइकिल के हैंडिल पर टंगे हम सभी के बचपन वाले इस चिरपरिचित छींट के थैले में।
शायद सभी के ज़हन में इसकी यादें आज भी तरोताजा होंगी।
शाम को गली के मोड़ से ही सुनाई देती घर लौटते पापा की साईकिल की घंटी सुनकर बच्चे जब दौड़ कर दरवाज़ा खोलते तो साईकिल के हैंडिल पर टंगा यह थैला एक अलग ही खुशियों का अहसास कराता था।
यह थैला हर बच्चे के लिए जादुई थैला होता था क्योंकि इसमें से बिन मांगे ही कभी अमरूद , कभी मूंगफली, कभी आम , समोसे , कभी जलेबी , कचौरियां, कभी पेड़े , कभी कच्ची कैरियां ,इमरती तो कभी खरबूजा और भी न जाने क्या क्या निकला करता।
महीने में एक दिन जब मां साथ जाती तो राशन और दैनिक ज़रूरतों के सामान के साथ और भी कई थैलों संग यह अलग ही चमकता रहता।
हर घर में इस थैले का एक अलग ही रुतबा होता था !
जब भी किसी शाम माँ पापा से यूं ही जिक्र छेड़ देती कि फलां चीज़ का मौसम आ गया है, वो मिलने लगी है क्या , तो पापा समझ जाते कि ज़रूर खाने का जी कर रहा है।
बस तो फिर क्या अगले दिन पापा के इस थैले में से वही चीज़ निकलती।
बाकि हम बच्चों के मन की बात तो पापा न जाने खुद ही जान लेते थे। हमेशा बिन कहे ही हर चीज़ हाज़िर हो जाती थी।
हमारा अनुभवी बालमन तो थैले के वज़न, आकार , कपड़े के रंग में आया बदलाव , नमी और उभार से ही अंदाजा़ लगा लिया करता था कि भीतर से क्या निकलेगा।
और कमाल की बात यह कि हमारी पारखी नज़रों का अंदाज़ा शत-प्रतिशत सही निकलता था।
पापा की साइकिल के हैंडिल पर टंगे ये थैले मात्र थैले ही नहीं होते ये किसी भी परिवार के लिए अलादीन के चिराग से कम नहीं होते थे ।
क्योंकि छोटी-छोटी खुशियों भरी मनचाही मुरादें इसी में से निकला करती थी।
और यह भी सच है कि हरबार आती जाती सरकारों के वित्त मंत्रियों के बजट की फाईलों से निकली महंगाई का इतना सा भी भार पिता ने कभी इस थैले को महसूस नहीं होने दिया।
बदलते वक्त के चलते हर शाम बच्चों के चेहरों पर मुस्कान बिखेरते इन थैलों का रंग-रूप अब ब्रैंडेड हो चला है !
ये खुशियों वाले थैले अब डोमिनोज़, बर्गर किंग, केएफसी, मैक्डी और अन्य कई ब्रांड के होने के बावजूद भी इस छींटदार कपड़े वाले थैले के जादुई अहसास के सामने एकदम फीके हैं ।
ईश्वर से प्रार्थना है कि हर शाम को घर लौटते माता-पिता के हाथों में टंगे ये थैले सदा यूं ही भरे रहें ,और यदि किसी दिन इनमें कुछ न भी हो तो कम से कम बच्चों के सिर पर अपने माता -पिता के साए के होने मात्र की दुआओं से ही भरे रहें।
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