स्वर्ग
हमारे घर के पास एक भाभी रहती हैं. अपना घर बहुत सुंदर रखती हैं.
एक एक चीज करीने से जमी है.
गार्डन भी बेमिसाल है.
हर फूल, धुला-खिला है.
मगर उनके ख़ुद के चेहरे पर मुर्दनगी छायी रहती है.
पथरायी सूरत, कर्कश वाणी, लहजे में चिडचिडाहट.
उनके हृदय में दूसरों से कुढ़न और प्रतिशोध की भावनाएं निरंतर चलती रहती हैं. इसी वज़ह से वह अस्वस्थ भी हैं.
वह अमीर हैं. उनके चारों तरफ स्वर्ग है मगर मन से वह नर्क में रहती हैं.
इसी तरह मैं अपने कुछ पुरुष मित्रों को देखता हूँ
पैसे से अमीर हैं, मगर शरीर थुल थुल है. खाने पीने पर सौ पाबंदियाँ हैं, चलने फिरने में सांस फूलती है.
चेहरे पर तनाव और मन में अशांति है.
कीमती गाड़ी, महंगा फर्नीचर.
सब संसाधन उपलब्ध हैं मगर
शरीर और मन से वह नर्क में हैं.
भारत में पचास उम्र के ऊपर, ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो शरीर और मन दोनों से स्वस्थ हों.
स्वर्ग निर्माण के चक्कर में ज्यादातर लोग अपना जीवन, नर्क बना चुके होते हैं.
फिर जिस स्वर्ग निर्माण में वह जुटे हैं उसका दायरा भी सीमित है, वह उनके घर से बढ़कर पड़ोसी के घर तक नहीं जाता. इसीलिए उनका कचरा, पड़ोसी के दरवाजे पर रखा मिलता है.
फिर तथाकथित 'स्वर्ग लोक' का यह राजा, घर से बाहर निकलता है.
बाहर निकलते उसे ही नरक के दर्शन होते हैं.
सड़के टूटी हैं, कचरे का ढेर लगा है, मवेशी विष्ठा कर रहे हैं. यातायात बेतरतीब है, नालियां फूटी हैं.
मगर इस नर्क से वह आंख मूंद लेता है. उसे शहर से कोई सरोकार नहीं है.
बस उसके घर में स्वर्ग होना चाहिए.
लेकिन शहर का नर्क, उस तक लौट-लौट आता है. कारखानों का धुंआ, हवा का पॉल्यूशन, तनाव की तरंगे, और नानाविध तरीकों से.
स्वाभाविक ही, समुद्र में तूफान उठे और कश्ती महफूज़ रह जाए यह कैसे मुमकिन है?
फिर जो हाल घर का है वही दुनिया का है.
एक देश जंगल काटता है, उद्योग लगता है, प्रदूषण और मलबा फैलता है.. जिसका खामियाजा दूसरे देश भुगतते हैं.
बड़े देश बड़े करनामे करते हैं, वह अपने देश को साफ रखते हैं और सारा कचरा पर्यावरण में फेंक देते हैं.
फिर ओजोन लेयर टूटती है, ग्लोबल वार्मिंग होती है समुद्र का जलस्तर बढ़ता है, तूफान, जलजले आते हैं.
और तबाही की लहर उन तक लौट आती है
प्रकृति सूद समेत सारा हिसाब वसूल लेती हैं
हम अपना अपना स्वर्ग बनाने के चक्कर में दुनिया को नर्क बनाए दे रहे हैं.
क्या है स्वर्ग ?
सुख, सुकून और शांति ही तो स्वर्ग है.
हर बच्चा अपने भीतर स्वर्ग लेकर पैदा होता है, मगर हम उसे बताते हैं कि स्वर्ग बाहर है.
फिर वह खिलौने में, कपड़ों में, वस्तुओं में स्वर्ग देखने लगता है.
जैसे-जैसे बड़ा होता है..नौकरी, मकान और गाड़ियों में स्वर्ग देखने लगता है.
फिर वह बाहर स्वर्ग बनाने में जुट जाता है और भीतर का 'गिफ्टेड स्वर्ग" गँवाता जाता है.
प्रकृति में कोई भी जीव, अपने खानपान, सर्वाइवल और संतति से अधिक की जुगत नहीं करता.
बाकी समय में वह इठलता सुस्ताता और मस्ती करता है.
स्वर्ग तो ऑलरेडी मौजूद है ही, हमें बस उपस्थित हो जाना है.
दरअसल, जिस स्वर्ग को हम ढूंढ रहे हैं, वह हमारा मौलिक विचार नहीं है.
यह विश्व उन मुट्ठी भर व्यावसायिक मति के लोगों की, अंतहीन हवस का जाल है जिसमें हम फंस कर रह गए हैं.
हमारी मूल खोज संसाधनों की नहीं है, सत्य की है.
संसाधन तो युँ ही प्रकृति ने हमारे चारों ओर प्रचुरता से बिखर कर रखें हैं.
'भौतिकता स्वर्ग की गारंटी नहीं है'- यह बात जितनी जल्दी और जितनी तेजी से हमारे भीतर गुंजाएमान हो जाए.. उतना ही अच्छा.
वरना अगर इसी तरह जीते रहे तो देर सबेर, हम सभी का वही हाल होना है जो हमारे पड़ोस वाली भाभी का है -
बाहर बाहर स्वर्ग..भीतर भीतर नर्क
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