प्रेमतत्व
प्रेम और लगाव दोनों में एक महीन-सा फर्क होता है। प्रेम में हम किसी के लिए कुछ भी कर सकते हैं, सब कुछ दे सकते हैं क्योंकि प्रेम में जो कुछ भी दिया जाता है, वो अधिकार की तरह लगता है, एहसान की तरह नहीं। क्योंकि प्रेम में देना अधिकार बन जाता है, एक स्वाभाविक प्रवृति,
लेकिन जब कोई सिर्फ इंसानियत के नाते कुछ करता है वहाँ प्रेम नहीं होता, न कोई गहराई, न कोई दावा। वहाँ केवल एक मानवीय संवेदना होती है, तब वो एक एहसान होता है। उस संवेदना को पहचानना, उसका आदर करना और उसे याद रखना यही सच्ची एहसानमंदी है।
ऐसे रिश्तों में हम चाहें भी तो कोई दावा नहीं कर सकते। न वहाँ कोई अधिकार होता है, न उम्मीद की गुंजाइश। वहाँ हम केवल ‘मेहमान’ की तरह होते हैं कुछ पल के लिए स्वागत तो होता है, लेकिन ठहरने का हक़ नहीं मिलता।
इंसानियत रिश्तों को जन्म दे सकती है, लेकिन उन्हें गहराई नहीं देती वो गहराई केवल प्रेम से आती है।
प्रेम अधिकार देता है। इंसानियत सिर्फ़ उपस्थिति देती है।
इसलिए रिश्तों में अपनी सीमाएं समझना और उन्हें स्वीकार करना बहुत ज़रूरी होता है। हर बार जो इमोशनल सपोर्ट मिलता है, वो प्रेम नहीं होता।
कभी-कभी लोग हमारी चिंता सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि वे अच्छे इंसान हैं न कि इसलिए कि हम उनके लिए ख़ास हैं।
आज के दौर में, खासकर सोशल मीडिया की तेज़ रफ़्तार और बनावटी चमक में, प्रेम अक्सर सिर्फ एक illusion बनकर रह जाता है एक आकर्षण, एक अस्थायी जुड़ाव, जो हकीकत से बहुत दूर होता है।
इसलिए रिश्तों की प्रकृति को पहचानना, उन्हें सही नाम देना ये सिर्फ परिपक्वता नहीं, आत्म-सम्मान की भी निशानी है।
हर अपनापन प्रेम नहीं होता।
हर देखभाल अपना होने का संकेत नहीं होती।
रिश्तों में सीमाएं जानना और उन्हें मानना यही असली समझदारी है।
और कभी-कभी, सबसे ज़रूरी होता है यह स्वीकार करना कि "किसी की भलाई" और "किसी का प्यार" दो बिल्कुल अलग बातें होती हैं।
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