खुद से युद्ध

सुबह होती है। 
अलार्म बजता है। मन में पहला सवाल उठता है -“6 बजे उठूँ या 6:30 पर?”
दिन की शुरुआत भी अपने भीतर, अपनेआप से होने वाली बातचीत से होती है।
फिर यही बातचीत पूरे दिन चलती रहती है —
“आज से डाइटिंग शुरू कर दूँ या कल से?”
“सच बोलूँ या थोड़ी बात छिपा लूँ?”
“बॉस से छुट्टी माँग लूँ या टाल दूँ?”
“जिसने बुरा बोला, उसे जवाब दूँ या चुप रह जाऊँ?

हर मिनट, हर सेकंड —ईश्वर हमें एक चुनाव दे रहे हैं।
Choice A या Choice B.
और यही हमारा हर निर्णय हमारे कर्मों को आकार दे रहा है। और वही कर्म, हमारा भाग्य बना रहे हैं ।

यही है—विचार मंथन।
हमारे भीतर हर पल दो शक्तियाँ लड़ती रहती हैं —देवता और असुर।
प्रकाश और अंधकार। शांति और क्रोध।क्षमा और बदला।

किसी ने हमें अपमानित किया —असुर आवाज़ देता है:
“उससे बदला लो! उसे सबक सिखाओ!”
 देवता भीतर धीरे से फुसफुसाते हैं:
“छोड़ दो, मत लड़ो । तुम इन बातों के लिए नहीं बने हो “

और हर बार जब हम निर्णय लेते हैं -हम या तो अपने अंदर के देव को मजबूत करते हैं, या असुर को।
यही है असली संग्राम-जो हमारे भीतर है, जिसे हम रोज़ लड़ते हैं ।

समुद्र मंथन में विष भी निकला था और अमृत भी।
उसी तरह, जब हमारे अंदर विचार मंथन होता है, तो भीतर से भी विष (क्रोध, ईर्ष्या, लालच) निकलता है —
पर वही मंथन, अगर समझदारी से किया जाए, तो अमृत (शांति, संतोष, क्षमा) भी निकलता है।

राम जी भी इस संग्राम से गुज़रे। राज्य छूटा, पिता का वचन भारी था।
मन कहता था “मेरी क्या गलती है? मैं ही क्यों?
पर विवेक ने कहा — “अपना कर्तव्य निभाओ।”
उन्होंने अपने भीतर के असुर —क्रोध, दुख, मोह -को शांत किया।
और देवत्व के साथ आगे बढ़े।
इसीलिए वे ‘भगवान’ बने — क्योंकि उन्होंने मन को जीत लिया।

हर दिन हमारे भीतर यही युद्ध चलता है।
हमारे भीतर के असुर आज बहुत शक्तिशाली हो गए हैं —
उनका नाम है: ग़ुस्सा, ईर्ष्या, लालच, जलन, दिखावा।

और हमारे भीतर के देव भी यहीं हैं —
उनके नाम हैं : दयालुता, क्षमा, संतोष, प्रेम, विवेक।
बस हमें तय करना है —हमें किसका साथ देना है।

याद रखिए हर बार जब हम किसी को माफ़ करते हैं, हम अमृत पीते हैं।
और हर बार जब हम बदला लेते हैं, हम विष पीते हैं।

आज आपने अपने भीतर विष पिया या अमृत?
आज आपने अपने भीतर किसको शक्तिशाली बनाया- देव या असुर को?
बताइयेगा ।

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