महंगाई


15.10.12  डीजल के दाम बढ़ने और रसोई गैस के सिलेंडरों पर कोटा लागू होने के साथ ही आम आदमी के सामने एक नया संकट खड़ा हो गया है। महंगाई का पहले से ही कोई ठिकाना नहीं है। कई बार तो एक ही दिन में चीजों के दाम बढ़ जा रहे हैं। आम जनता में यह धारणा सी बन चली है कि बाजार पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। बल्कि अब तो लोगों को ऐसा लगने लगा है जैसे सरकार बाजार पर कोई नियंत्रण रखना भी नहीं चाहती है। पेट्रोल के मूल्यों में पिछले एक साल में ही कई बार बढ़ोतरी की जा चुकी है। डीजल के दाम बढ़ाने से अकसर सरकार बचती रही है, लेकिन इस बार डीजल के दाम ही बढ़ाए गए हैं। इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि पेट्रोल के मामले में सरकार किसी प्रकार की कोई राहत देने जा रही है। देर-सबेर पेट्रोल के दाम भी फिर बढ़ेंगे ही। राहत यहां किसी भी कीमत पर आम आदमी को मिलने वाली नहीं है। रसोई गैस पर कोटा थोपे जाने से तो लोग परेशान हैं ही, उससे अधिक रोष उनका गैस एजेंसियों की कार्यप्रणाली और उपभोक्ताओं के प्रति उनके रवैये से है।
इससे भी अधिक हताशा जनता को न केवल पेट्रोलियम पदार्थो, बल्कि समग्रता में महंगाई के मसले पर भी विपक्ष से हुई है। प्रत्यक्ष रूप से देखें तो सत्तारूढ़ दल को छोड़कर देश की सभी पार्टियां डीजल के मूल्य में वृद्धि और रसोई गैस पर कोटा लागू होने पर विरोध जता रही हैं। सभी पार्टियों को यह बहुत ही नागवार गुजरा है। सरकार के सहयोगी दल तक सड़क पर उतरने की बात कर रहे हैं। जगह-जगह धरने-प्रदर्शन भी कर रहे हैं। सरकार के कई सहयोगी दलों ने यह आरोप लगाया है कि इस मामले में उनसे कोई राय नहीं ली गई। संसदीय लोकतंत्र की सार्थकता ही इस बात में है कि शासन सर्वसम्मति से चले। अगर सर्वसम्मति न भी हो तो कम से कम बहुमत तो साथ हो ही। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि लंबे अरसे से स्पष्ट बहुमत वाली कोई सरकार सत्ता में नहीं आ रही है। जैसे-तैसे जोड़-तोड़ कर सरकारें बनाई और चलाई जा रही हैं। इसमें सर्वसम्मति का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। फिर भी बहुमत से फैसले करने की उम्मीद तो हम कर ही सकते हैं। दुखद है कि यह भी नहीं किया जा रहा है। यहां तक कि सरकार खुद अपने सहयोगी दलों से भी महत्वपूर्ण फैसलों तक के लिए न्यूनतम सहमति भी नहीं बना पा रही है।
सहयोगी दलों और विपक्ष में बैठे लोगों के भी इतिहास पर अगर गौर करें तो एक बात साफ तौर पर देखी जा सकती है कि कथनी-करनी में एकता की बात ही बेकार हो गई है। विपक्ष की स्थिति यह है कि ऐसे समय में जबकि संसद में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर फैसले होने की बात पहले से ही तय है, तब वे किसी एक मुद्दे को लेकर संसद न चलने देने की राजनीति में जुट जाते हैं। अब सवाल यह है कि संसद न चलने दे कर वे कौन सा बड़ा काम कर रहे हैं? यह बात तो देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि देश के सभी नीतिगत फैसले संसद से ही होने हैं। इसीलिए संसद चलाने पर इतना भारी-भरकम खर्च किया जाता है। यह खर्च कहीं और से नहीं, जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा होता है। अगर इस तरह देखें तो दरअसल संसद न चलने देकर केवल जनता का धन बर्बाद किया जाता है। खास तौर से उस स्थिति में जबकि यह बात सर्वविदित है कि जिन मसलों पर सरकार अनिवार्य समझती है, उन पर वह संसद न चलने की स्थिति में चर्चा के बगैर ही विधेयक पारित करवा लेती है। ऐसी स्थिति में संसद न चलने देकर तो जनता के विरुद्ध ही काम किया जा रहा है।
यही नहीं, सरकार में शामिल दलों की बातों में भी विरोधाभास देखने लायक ही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार में होने के बावजूद महंगाई के मसले पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी का रुख हमेशा से साफ रहा है। उन्होंने हमेशा सरकार के उन कदमों का विरोध किया है जिनसे महंगाई बढ़ सकती है। खुद अपने स्तर से उन्होंने महंगाई पर लगाम लगाने की भरसक कोशिश भी हमेशा की है। महंगाई के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी का नजरिया भी साफ है। वह भी अपने स्तर से महंगाई को लेकर हमेशा विरोध जताती रही है।
हालांकि भारतीय जनता पार्टी महंगाई के मुद्दे पर अपना विरोध अक्सर जताती रही है किंतु उसका विरोध इतना मुखर नहीं रहा है जितनी की उससे अपेक्षा की जाती है। प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह सरकार के ऐसे कामों पर लगाम लगाएगी जिनसे जनहित पर बुरा असर पड़ता हो। इसके साथ ही वह इसके लिए वैकल्पिक योजना आम जनता को देगी, किंतु ऐसा हो नहीं पा रहा है। इससे भी आश्चर्यजनक रवैया राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का है जो सरकार में तो शामिल है किंतु अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर भी उतार रही है। उसके नेताओं को जब मूल्यवृद्धि को नियंत्रित करने में सक्रियता दिखानी चाहिए तो वे कहते हैं कि महंगाई और बढ़ेगी।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सभी चीजों के दाम लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। अगर देखा जाए तो सबसे अधिक दाम खाद्य पदार्थो के ही बढ़े हैं। अब अगर राकांपा गैस या डीजल की महंगाई को लेकर सड़क पर उतरती है तो इसे चुनावी स्टंट के सिवा और क्या माना जाएगा? क्योंकि नियमानुसार लोकसभा चुनाव में बमुश्किल डेढ़ साल ही बचे हैं।
सच तो यह है कि आम जनता के सुख-दुख से किसी भी राजनीतिक पार्टी का कोई मतलब नहीं रह गया है। जिन चीजों पर सब्सिडी दी जानी चाहिए, उन पर सरकार सब्सिडी पूरी तरह खत्म करने के मूड में है। जिन चीजों पर नहीं दी जानी चाहिए, उन पर सब्सिडी कम किए जाने को लेकर भी कोई विचार नहीं किया जा रहा है। केरोसीन तेल के मामले में यह मानी हुई बात है कि वह काला बाजार में ही बिक रहा है। आम आदमी के लिए उसका कोई उपयोग नहीं रह गया है। इसके बावजूद उस पर सब्सिडी खत्म करने की कोई पहल नहीं हो रही है। सब्सिडी उन चीजों पर खत्म की जा रही है, जिनकी जरूरत सभी को है। इतना ही नहीं, उनकी सेवाओं में भी कोई सुधार नहीं किया जा रहा है।
अब जरूरत इस बात की है कि सरकार तानाशाही रवैया छोड़कर न केवल अपने सहयोगी दलों, बल्कि विपक्ष को भी ऐसे मसलों पर साथ लेकर विचार-विमर्श करे और ऐसा कोई रास्ता निकाले जिससे आम जनता को लगातार बढ़ती महंगाई के संकट से मुक्ति दिलाई जा सके। अन्यथा आने वाले दिनों में उसे जनता के व्यापक गुस्से का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है,

परफेक्शन

धर्म के नाम पर