पर्यावरण
दीपावली पर खुशी के कुछ लम्हों को याद रखने के लिए
हम पर्यावरण को इतनी
क्षति पहुंचा देते हैं कि प्रदूषण के स्तर के सामने खुशी छोटी नजर आने
लगती है। दीपावली पर होने वाला प्रदूषण स्वास्थ्य को खराब करने के लिए
पर्यावरण को भी भारी नुकसान पहुंचाता है। सिर्फ दीपावली के दिन शहर में
प्रदूषण का स्तर मानकों से चार गुना अधिक तक पहुंच जाता है। बीते कुछ
वर्ष में दीपावली के दिन प्रदूषण के स्तर में मामूली कमी तो आई है, लेकिन
इससे निकलने वाली जहरीली गैस की मात्रा में बढोतरी हुई है। भारत में
बढ़ती आबादी से वैसे ही पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। मगर दिवाली की रात
पटाखों से निकलने वाले धुएं से यह प्रदूषण कई गुना बढ़ जाता है। मगर कुछ
पल की खुशी और पैसे के दिखावे के आगे लोग आंखे मंूदे रहते हैं। उन्हें
शायद पता नहीं होता कि वे पटाखे जला कर वायुमंडल में कितना प्रदूषण घोल
रहे हैं। दरअसल इन पटाखों में जिन रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है वह
बेहद खतरनाक है। कॉपर, कैडियम, लेड, मैग्नेशियम, सोडियम, जिंक, नाइट्रेट
और नाइट्राइट जैसे रसायन का मिश्रण पटाखों को घातक बना देते हैं। इससे
125 डेसिबल से ज्यादा ध्वनि होती है। दीपावली से पहले लोग जागरूकता की
बातें करते हैं, पर्यावरण को बचाने के लिए पहल करने का दंभ भी भरते हैं,
लेकिन आलम यह है कि देर रात दो-तीन बजे तक भी शहर में पटाखे चलाने के साथ
आतिशबाजी भी होती रहती है। दीपावली पर खुलेआम होने वाले ध्वनि और वायु
प्रदूषण से सभी लोग वाकिफ हैं लेकिन एक-दूसरे की देखा-देखी लोग अधिक से
अधिक पटाखे छोड़ते हैं। पटाखों की तीव्रता उनके छोड़े जाने के समय ही मापी
जा सकती है। ऐसे में लोगों को स्वयं पहल करनी होगी कि वे अधिक आवाज और
धुआं फैलाने वाले पटाखों से परहेज करें। प्रदूषण के स्तर को नियंत्रित
रखने के लिए पुलिस प्रशासन को प्रदूषण विभाग के साथ मिलकर अभियान चलाने
की जरूरत है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। जिन स्थानों पर पटाखे बेचे जाते
हैं, वहां भी उनकी जांच की कोई व्यवस्था नहीं होती है। प्रशासन द्वारा
पटाखों की दुकान लगाने के लिए जगह दी जाती है, लाइसेंस भी दिया जाता है
उन्हें यह भी बताया जाता है कि कितनी तीव्रता के पटाखे वे बेच सकते हैं,
लेकिन इनकी जांच की कोई व्यवस्था नहीं होती कि दुकानों पर किस तरह के
पटाखे बेचे जा रहे हैं। मानकों को ताक पर रखकर अधिक तीव्रता व अधिक उजाला
और धुआं छोड़ने वाले पटाखों की बिक्री धड़ल्ले से होती है। सबसे अधिक जरूरी
है कि लोग स्वयं पर्यावरण को बचाने के लिए पहल करें।
क्षति पहुंचा देते हैं कि प्रदूषण के स्तर के सामने खुशी छोटी नजर आने
लगती है। दीपावली पर होने वाला प्रदूषण स्वास्थ्य को खराब करने के लिए
पर्यावरण को भी भारी नुकसान पहुंचाता है। सिर्फ दीपावली के दिन शहर में
प्रदूषण का स्तर मानकों से चार गुना अधिक तक पहुंच जाता है। बीते कुछ
वर्ष में दीपावली के दिन प्रदूषण के स्तर में मामूली कमी तो आई है, लेकिन
इससे निकलने वाली जहरीली गैस की मात्रा में बढोतरी हुई है। भारत में
बढ़ती आबादी से वैसे ही पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। मगर दिवाली की रात
पटाखों से निकलने वाले धुएं से यह प्रदूषण कई गुना बढ़ जाता है। मगर कुछ
पल की खुशी और पैसे के दिखावे के आगे लोग आंखे मंूदे रहते हैं। उन्हें
शायद पता नहीं होता कि वे पटाखे जला कर वायुमंडल में कितना प्रदूषण घोल
रहे हैं। दरअसल इन पटाखों में जिन रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है वह
बेहद खतरनाक है। कॉपर, कैडियम, लेड, मैग्नेशियम, सोडियम, जिंक, नाइट्रेट
और नाइट्राइट जैसे रसायन का मिश्रण पटाखों को घातक बना देते हैं। इससे
125 डेसिबल से ज्यादा ध्वनि होती है। दीपावली से पहले लोग जागरूकता की
बातें करते हैं, पर्यावरण को बचाने के लिए पहल करने का दंभ भी भरते हैं,
लेकिन आलम यह है कि देर रात दो-तीन बजे तक भी शहर में पटाखे चलाने के साथ
आतिशबाजी भी होती रहती है। दीपावली पर खुलेआम होने वाले ध्वनि और वायु
प्रदूषण से सभी लोग वाकिफ हैं लेकिन एक-दूसरे की देखा-देखी लोग अधिक से
अधिक पटाखे छोड़ते हैं। पटाखों की तीव्रता उनके छोड़े जाने के समय ही मापी
जा सकती है। ऐसे में लोगों को स्वयं पहल करनी होगी कि वे अधिक आवाज और
धुआं फैलाने वाले पटाखों से परहेज करें। प्रदूषण के स्तर को नियंत्रित
रखने के लिए पुलिस प्रशासन को प्रदूषण विभाग के साथ मिलकर अभियान चलाने
की जरूरत है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। जिन स्थानों पर पटाखे बेचे जाते
हैं, वहां भी उनकी जांच की कोई व्यवस्था नहीं होती है। प्रशासन द्वारा
पटाखों की दुकान लगाने के लिए जगह दी जाती है, लाइसेंस भी दिया जाता है
उन्हें यह भी बताया जाता है कि कितनी तीव्रता के पटाखे वे बेच सकते हैं,
लेकिन इनकी जांच की कोई व्यवस्था नहीं होती कि दुकानों पर किस तरह के
पटाखे बेचे जा रहे हैं। मानकों को ताक पर रखकर अधिक तीव्रता व अधिक उजाला
और धुआं छोड़ने वाले पटाखों की बिक्री धड़ल्ले से होती है। सबसे अधिक जरूरी
है कि लोग स्वयं पर्यावरण को बचाने के लिए पहल करें।

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