संदेश

2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मोदी जी कॆ नाम खुला खत- जातिवाद

एक सामान्य वर्ग के गरीब छात्रका मोदी जी के नाम खुला ख़त....आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रमोदी जी.....मै एक सामान्य वर्ग का छात्र हूँ , मेरे पिता का देहांत हो जानेकी वजह से मेरी माँ को घर चलाने में बहुत दिक्कतेआयीं। मैंने अपने गाँव के सरकारी स्कूल फिर कॉलेजमें पढाई की। सरकारी स्कूलकी फीस तक जुटाने में हमे हमेशा दिक्कतहोती थी जबकि मैंने देखा की कुछ वर्गविशेष के बच्चो को, आर्थिक रूप से संपन्न होने बावजूद भी,फीस माफ़ थी औरवजीफा भी मिला करता था। मै पढ़ाई में अच्छा था।इंटरमीडिएट पास करने के बाद मैंने मेडिकल फील्डचुना। एंट्रेंस एग्जाम के लिए फॉर्म खरीदा 650 रुपयेका जबकि सौरभ भारतीय नाम के मेरे दोस्तको वही फॉर्म 250 का मिला। उसके पिता डॉक्टर हैं। एंट्रेंसएग्जाम का रिजल्ट आया। सौरभ भारतीय का नंबर मेरे नंबर सेकाफी कम था, पर उसे सिलेक्शन मिल गया, मुझेनहीं। अगले साल मै भी सेलेक्ट हुआ। मैंनेदेखा की बहुत से पिछड़े जाति के लोग, अनुसूचित जाति केजनजाति के लोग जो हर मामले में मुझसे कहीं ज्यादा सुविधासंपन्नहैं, उनको मुझसे बहुत कम फीस देनी पड़रही है। उनके स्कॉलरशिप्स भी मुझे मिलरही स्कालरशिप से बहुत ज...

मानविय मुल्यो सॆ विहीन shiksha

शिक्षा वह साधन हॆ जो समाज को केवल शिक्षित ही नहीं करती वरन व्यक्ति के आत्मीय विकास में भी अहम योगदान निभाती हॆ ऒर जो व्यक्ति आत्मीक रुप से शिक्षित होता हे वो समाज ओर राष्ट्र को उन्नति के पथ पर लेकर जाता हे. शिक्षा किसी भी राष्ट्र के विकास में अहम योगदान निभाती हे, परन्तु आज शिक्षा का मतलबबदल गया हे आज शिक्षा का अर्थ केवल साक्षरता से लिया जाता हे, राज्य ओर राष्ट्र के विकास को साक्षरता की कसोटी पर नापा जाता हे. शिक्षा का अर्थ केवलसाक्षरता नहीं हे, किताबी अक्षरों का ज्ञान विद्वान तो बना सकता हे परन्तु जब तक व्यक्ति में नॆतिक मुल्यों का हास हे तब तक वो समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह पुर्ण ईमानदारी के साथ नहीं कर सकता हे.आज समाज शिक्षित तो हो रहा हे परन्तु कहीं न कहीं वो मानवीय मुल्यों का परिहास उडा रहा हॆ व्यक्तिगत तोर पर तो मनुष्य शिक्षित हो रहा हे, मजबुत हो रहा हे परतु सामाजिक तोर पर उतना ही अशिक्षित होता जा रहा हे, आत्मिक रुप से पतन के पथ पर अग्रसर होने के कारण समाज को भी कमजोर बना रहा हे ओर एक कमजोर समाज एक कमजोर राष्ट्र का निर्माण करता हे. आज के जमाने में कम्प्युटर ओर अँग्...

पॆशावर हमला- parasoon joshi

चित्र
कभी कभी सोचता हूँ कि आख़िर भगवान के मन में ऐसा क्या आया होगा कि उसने मानव मात्र की रचना करने की सोची। क्या फर्क पड़ जाता अगर इस दुनिया में पेड़ पौधे, पर्वत, नदियाँ, सागर और सिर्फ जानवर होते? आख़िर जिस इंसान को प्रेम, करुणा, वातसल्य से परिपूर्ण एक सृजक के रूप में बाकी प्रजातियों सेअलग किया जाता है उसी इंसान ने आदि काल से विध्वंसक के रूप में घृणा, द्वेष, क्रूरता और निर्ममता के अभूतपूर्व प्रतिमान रचे हैं और रचता जा रहा है।आख़िर इंसानों ने आपने आप को इस हद तक गिरने कैसे दिया है? मानवीय मूल्यों के इस नैतिक पतन की एक वज़ह ये भी है कि हमने अपने आप को परिवार,मज़हब, शहर, देश जैसे छोटे छोटे घेरों में बाँट लिया है। हम उसी घेरे के अंदर सत्य-असत्य, न्याय अन्याय की लड़ाई लड़ते रहते हैं और घेरे के बाहर ऐसा कुछ भी होता देख आँखें मूँद लेते हैं क्यूँकि उससे सीधा सीधा नुकसान हमें नहीं होता। यही वज़ह है कि समाज के अंदर जब जब हैवानियत सर उठाती हैहम उसे रोकने में अक़्सर अपने को असहाय पाते हैं क्यूँकि हम अपने घेरे सेबाहर निकलकर एकजुट होने की ताकत को भूल चुके हैं।पेशावर हमले में मारे गए मासूम पेशावर में जो क...

PK- PERFECT KHAN -- AAMIR

फ़िल्म रिव्यूः पीके ---- एक्टरः आमिर खान, अनुष्का शर्मा, सुशांत सिंह राजपूत, सौरभ शुक्ला, बोमन ईरानी, परीक्षित साहनी डायरेक्टरः राजकुमार हिरानी राइटरः अभिजात जोशी और राजकुमार हिरानी रेटिंगः 4.5.                                       भगवान की रक्षा करना बंद करो, एक धर्मगुरु के सवाल के जवाब में पीके बिना चिल्लाए कमोबेश फुसफुसाते हुए कहता है. और मेरे सामने पेशावर पैदा हो जाता है. या फिर त्रिशूल चमकने लगते हैं. आदिवासी इलाकों में घूमते पादरी नजर आने लगते हैं. सब अपने-अपने भगवान की रक्षा कर रहे हैं. दूसरों में डर भरकर. और हम सब जो सब्जी खरीदते हुए या फिर दुनियावी मसलों पर बात करते हुए बेहद तार्किक होने का ढोंग करते हैं, इसे समझ नहीं पाते. क्यों ये डर और क्यों ये आस्था. और सबसे बढ़कर क्यों ये पूर्वाग्रह. इस सब सवालों को बिना शोर के बहुत सादगी के साथ उठाकर पीके आज के वक्त और यकीनन आने वाले वक्त के लिए भी एक बेहद जरूरी फिल्म बन जाती है. यूं समझ लीजिए कि आसमान की तरफ हाथ और आंख उठाकर की गई हमारी एक दु...

मासूम बच्चो का क्या कसूर था...

 कैफ़ी आज़मी की ग़ज़ल दिमाग में सुबह से चीख रही है: ‘इसको मजहब कहो या सियासत कहो…इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा”। सोशल मीडिया, ट्विटर, अख़बारों के सम्पादकीय, कवियों के कागज़…उनके कंप्यूटर स्क्रीन्स—हर स्पेस शब्दों से भरा पड़ा है। लोग अपने अपने तरीके से दुःख व्यक्त कर रहे हैं— कोई कह रहा है: “सबसे छोटा ताबूत सबसे ज़्यादा भारी है।“ एक मित्र ने कहा: ”बेहतर है कि इस हवन कुंड को अब बुझाने के लिए एक मुकम्मल नास्तिक पीढ़ी का उदय हो।“ शायर मुनव्वर राणा ने ट्वीट किया: '"निंदा" जैसे शब्द की तो चादर भी छोटी पड़ जाती है!’ ज़ाहिर है कि जो पेशावर में हुआ उससे इंसानियत काँप उठी है।“ हर कोई कुछ कहना चाह रहा है। कुछ अपनी संवेदनशीलता का दिखावा भी कर रहे हैं। ऐसी भयावह घटनाओं के बारे में कुछ भी कहना कोई अर्थ नहीं रखता। शब्द अपना खोखलापन उघाड़ कर आपके सामने नंगे, निरीह होकर बैठ जाते हैं। इस तरह की क्रूर घटनाएँ आपको एक बेसहारा, भय में लिपटे, दुःख में डूबे सन्नाटे में ले जाती हैं। ‘किंकर्तव्यविमूढ़’ शब्द ऐसे मौको के लिए ही बना होगा। अजीब ढंग से खामोश कर देती हैं ऐसी घटनाएँ। पर यह ख़ामोशी सुकू...

एक था बचपन .....

     ( 1 )     बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब बगैर किसी तनाव के मस्ती से जिंदगी का आनन्द लिया जाता है। नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलती हँसी, वो मुस्कुराहट,वो शरारत, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना ये सब बचपन की पहचान होती है। सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं।क्या कभी आपने सोचा है कि आज बच्चों का वो बेखौफ बचपन कहीं खो गया है? आज मुस्कुराहट के बजाय इन नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव क्यों छाया रहता है? अपनी छोटी सी उम्र में पापा और दादा के कंधों की सवारी करने वाले बच्चेआज कंधों पर भारी बस्ता टाँगे बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस की सवारी करते हैं। छोटी सी उम्र में ही इन नन्हो को प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल कर दिया जाता है और इसी प्रतिस्पर्धा के चलते उन्हें स्वयं को दूसरों से बेहतर साबित करना होता है।इसी बेहतरी व प्रतिस्पर्धा की कश्मकश में बच्चों का बचपन कहीं खो सा जाता है।इस पर भी माँ-बाप उन्हें गिल्ली-डंडे, लट्टू, कैरम व बेट-बॉल की जगह वीडियोगेम थमा देते हैं, जो उनके स्वभाव को ओर अधिक उग्र बना देते हैं...

जीत आपकी

1....   अपने दिमाग को रोज अच्छे विचारों की खुराक दें। दिमाग में इनका स्टॉक बढ़ाते रहें। ऐसे में बुराई या नकारात्मक विचारों का सामना होने पर वे हम पर हावी नहीं हो पाएंगी। खासकर सुबह के वक्त सबसे पहले कोई अच्छी चीज पढें या सुनें, जिंदगी में जीत हासिल करनेवाले ऐसे लोग होते हैं जिन्हें अपनी सीमाएं मालूम होती हैं, पर वे अपनी मजबूतियों पर ध्यान देते हैं।*जब हम खुद को तुच्छ लोगों से उलझने से बचा लेते हैं, तो हम जीत जाते हैं।*इतने मजबूत बनें कि हमारे मन की शांति को कोई भी बंदा भंग न कर सके।*जो काम जरूरी हैं, उन्हें पसंद करने की आदत डालें।*हमारे स्कूल- कॉलेज ज्ञान के झरने हैं, कुछ स्टूडेंट वहां अपनी प्यास बुझाने,कुछ चुस्की भरने और कुछ सिर्फ कुल्ला करने जाते हैं।*ज्ञान में शक्ति बनने की क्षमता है और यह तभी शक्ति बनता है जब इसका इस्तेमाल किया जाता है।*हम अपनी दिक्कतों के बजाय सहूलियतों पर गौर करें। कोई गलती करने पर जीतने वालाकहता है, 'मैं गलत था।' हारनेवाला कोई गलती होती है तो कहता है, 'इसमें मेरी कोईगलती नहीं थी।'जीतने वाला विनम्र शब्दों में कड़े तर्क पेश करता है, हारने वाला कड़...

वो भीं दिन थे

वो भीं दिन थे...जब घड़ी एक आध के पास होती थी और समय सबके पास होता था।बोलचाल में राजस्थानी का इस्तेमाल हुआ करता था---और हिंदी सिर्फ शहरों तक सिमित थी और अंग्रेज़ी तो पिने के बाद ही बोली जाती थी।हर जगह खो खो, कबड्डी खेलते थे अब केवल संसद में खेली जाती है।लोग भूखे उठते थे पर भूखे सोते नहीं थे।फिल्मों में हिरोइन को पैसे कम मिलते थे पर कपड़े पूरे पहनती थी।लोग पैदल चलते थे और पदयात्रा करते थे पर पदयात्रा पद पाने के लिये नहीं होती थी।साईकिल होती थी जो चार रोटी में चालीस का एवरेज देती थी।चिट्ठी पत्री का जमाना था पत्रों मे व्याकरण अशुद्ध होती थी पर आचरण शुद्ध हुआ करता था।शादी में घर की औरतें खाना बनाती थी और बाहर की औरतें नाचती थी-----अब घर की औरतें नाचती हैं और बाहर की औरते खाना बनाती है।अब सोचो हमने क्या पाया और क्या खोया.....

..कभी खुद से दूर

..कभी खुद से बहुत दूर नही जाना चाहिए.. एक वक्त के बाद, एक दिन.. लौट आने का मन करता है.. और हम वापसी का रास्ता भूल चुके होते है.. ।।..और फिर हम थकने लगते है.. हम जिन्दगी को जीना छोङ कर, उसे बर्दास्त करने लगते है.. ।।..थोङा ठहर जाना अच्छा होता है दोस्तो.. छोटी छोटी खुशियाँ जिन्दगी मे बहुत मायने रखती है, यकीन करे.. ।।..तो थोङा ठहर जाये, और सोचे के पिछली बार आपने पत्नि या प्रेमिका को गुलाब कब दिया था.. सोचेके पिछली बार परिवार के साथ किसी हिल स्टेशन पर कब गये थे आप.. स्कूल या कालेज के दोस्तो से कितने वक्त से नही मिले आप, सोचे.. अपने माता पिता के साथ एक पूरा दिन बिताये कितना वक्त हुआ आपको.. सोचे के पिछली बार आपने दुआ कब की थी, किसी जरूरतमंद की मदद कब की थी.. सोचे के आज आपने अच्छे काम ज्यादा किये या बुरे.. सोचे के क्या आप दिल से, तबीयत से मुस्कुराते है.. ।।..तो इससे पहले के आप बहुत थक जाये, अच्छा होगा थोङा ठहर जाये.. और थोङा वक्त निकाले अपने लिए, अपनो के लिए.. क्योकि जिन्दगी का मतलब सिर्फ साँस लेना भर नही है, ये उससे थोङा ज्यादा कीहकदार है.. ।।

सहजता ओर सरलता

सहजता और सरलता का अभाव ही अहंकार है!प्रश्न: अच्छे और बुरे कर्म में क्या अंतर है?श्री श्री रवि शंकर:कर्म को अच्छा बुरा title हम देते हैं। तनाव से जोकरते हैं वो कर्म सब बुरे हैं। प्रसन्न चित्त से जो भी करते हैं वो सब अच्छे हैं। एक बार की बात है - बोद्धिसत्व गए चीन। तो चीन के चक्रवर्ति स्वागत करने आए, बोले "हमने इतने तलाब खुलवाएं हैं, यह सब किया है, अन्न दान किया है, यह किया है, वो किया है।" यह सब सुनने के बाद बोद्धिसत्व नेकह दिया तू तो नर्क जाएगा। यह कोई अच्छा कर्म है! क्यों? मैं कर रहा हूँ। मैं कर्ता हूँ! यह कर्तापन से किया है। तनाव से किया है। अहंकार से किया है। सो वो अच्छा कर्म ही क्यों ना हो वो बुरा ही तुम्हारे लिए बन जाता है।प्रश्न: गुरुजी अहंकार क्या है और उसे कैसे मिटा सकते हैं?श्री श्री रवि शंकर: अपने आपको इस समष्टि से अलग मानना ही अहंकार है। औरों से अपने आप को अलग मानना। मैं बहुत अच्छा हूँ, सबसे अच्छा हूँ यां सबसे बुरा हूँ। दोनो अहंकार है। और अहंकार को तोड़ने की चेष्टा ना करो। ऐसा लगता है, उसको रहने दो। ऐसा लग रहा है मुझ में अहंकार है तो बोलो ठीकहै, मेरी जेब में रह जा...

ओम बन्ना

ओम बन्ना, राजस्थान के मारवाड़ इलाके में कम ही लोग हैं जो इस नाम से परिचित न हों। ओम बन्ना उर्फ ओम सिंह राठौड़। लोग उन्हें उनकी बुलेट मोटरसाइकिल की वजह से जानते हैं और वो भी मौत के बाद।ये बात जितनी हैरतअंगेज है उतनी ही सच भी। पाली से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर एक मोड़ है, जहांपर लगातार दुर्घटनाएं होती थीं।पिता हमेशा नसीहत देकर अपने जवान बेटे को भेजते थे और पत्नी शुभकामनाएं देकर। क्योंकि यह मोड़ उनके रास्ते का हिस्सा था और हर रोज उन्हीं यहीं से अपनी बाइक से आना होता था। उनकी पसंदीदा बुलेट। जो उनकी दोस्त भी थी और हमसफर भी।ओम बन्ना को खुद से ज्यादा भरोसा अपनी बुलेट पर था।1988 में हर रोज की तरह अपना काम खत्मकर देर शाम ओम बन्ना पाली से अपने गांव चोटिला की ओर लौट रहे थे।इस दौरान उन्हें सड़क पर कोई आकृति नजर आई और उन्होंने उसे बचाने के लिए अपनी बाइक घुमा ली। बाइक सीधी एक ट्रक में जा घुसी, भिड़ंत इतनी जबरदस्त थी कि मौके पर ही उनकी मौत हो गई।दुर्घटनाएं इस जगह पर आम थी और अकसर लोगों की मौत भी हो जाती थी। कुछ लोगों ने तो इस जगह को शापित तक करार दे दिया था। पुलिस यहां से उनका शव और बाइक थाने ले गई।परि...

अच्छाई

एक बार एक लड़का अपने स्कूल की फीसभरने के लिए एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक कुछ सामानबेचा करता था,एक दिन उसका कोई सामान नहीं बिका और उसे बड़े जोरसे भूख भी लग रही थी.उसने तय किया कि अब वह जिस भी दरवाजे पर जायेगा,उससे खाना मांग लेगा..पहला दरवाजा खटखटाते ही एकलड़की ने दरवाजा खोला, जिसे देखकर वहघबरा गया और बजाय खाने के उसने पानी का एक गिलासमाँगा..लड़की ने भांप लिया था कि वह भूखा है, इसलिए वहएक.. बड़ा गिलास दूध का ले आई. लड़के ने धीरे-धीरे दूध पी लिया..कितने पैसे दूं? लड़के ने पूछा.पैसे किस बात के? लड़की ने जवाव में कहा.माँ ने मुझे सिखाया है कि जब भी किसी परदया करो तो उसके पैसे नहीं लेने चाहिए.तो फिर मैं आपको दिल से धन्यवाद देता हूँ. जैसेही उस लड़के ने वह घर छोड़ा, उसे न केवलशारीरिक तौर पर शक्ति मिलचुकी थी , बल्कि उसका भगवान् औरआदमी पर भरोसा और भी बढ़ गया था..सालों बाद वह लड़की गंभीर रूप सेबीमार पड़ गयी. लोकल डॉक्टर ने उसेशहर के बड़े अस्पताल में इलाज के लिए भेज दिया..विशेषज्ञ डॉक्टर होवार्ड केल्ली को मरीजदेखने के लिए बुलाया गया. जैसे ही उसनेलड़की के कस्बे का नाम सुना,उसकी आँखों में चमक आ गयी...

स्त्री मनोविज्ञान का समाजशास्त्रीय विश्लेषण

भारतीय समाज में अब तक पुरुषों की ऐसी पारंपरिक छवि बसी हुई थी, जिसमें पुरुषों के रौबदार, रफ-टफ, दबंग और गंभीर व्यक्तित्व की सराहना की जाती थी। पुराने समय की स्त्रियां ऐसे पुरुषोचित्त गुणों से परिपूर्ण पुरुषों के व्यक्तित्व के प्रतिआकर्षित होती थीं। लेकिन आज महानगरों का मध्यवर्गीय समाज बहुत तेजी से बदल रहा है। युवा पीढी की लडकियां पुरुषों की इस पारंपरिक छवि से अलग हटकर मेट्रोसेक्सुअल पुरुषों को ज्यादा पसंद करती हैं, जिसका अर्थ महानगरों में रहने वाले ऐसे पुरुषों से है, जिनके पास खर्च करने के लिए बहुत सारा धन होता है और जो अपने व्यक्तित्व को निखारने और संवारने के प्रति अतिशय जागरूक होते हैं।इसके लिए वे जिम, हेल्थ क्लब, पार्लर जाना, स्टाइलिश ब्रैंडेड आउटिफट्स पहनना जरूरी समझते हैं और अपने बाहरी और आंतरिक व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने में विश्वास रखते हैं। इतना ही नहीं, ऐसे पुरुष भारतीय पुरुष की पारंपरिक छवि को सिरेसे खारिज करते हुए यूरोपीय देशों की पुरुषों की तरह कुकिंग, घर की सफाई और बच्चोंकी नैपी बदलने जैसे काम करने का भी भरपूर लुत्फ उठाते हैं।स्पोर्टस, म्यूजिक और डांस में रुचि में रखने वाल...

पुलिस की छवि

चित्र
पुलिस और समाज का एक अटूट रिश्ता है| हर नागरिक को कहीं ना कहीं पुलिस की ज़रूरत पड़ती हॆ, हमारे संविधान में भी पुलिस को एक महत्वपूर्ण दर्ज़ा दिया गया है| पुलिस का काम है समाज मे शांति बनाए रखना और अगर कोई इस शांति को नुकसान करता है तो उसे पकड़कर क़ानून के हवाले करना | अगर आदर्श रूप से देखें तो पुलिस का काम बहुत ही नेक काम है| पिछले कुछ समय में पुलिस की छवि को बहुत नुकसान पहुचा है | जैसा की हर जगह होता है, पुलिस में भी कुछ असामाजिक लोग हैं जिनके कारण पूरा पुलिस समाज बदनाम हो रहा है | दूसरा पुलिस का काम कुछ ऐसा है के वो किसी ना किसी की नज़र में तो बुरे बन ही जाते हैं | अगर दो लोग आपस में लड़ रहे हैं और पुलिस उनको शांत करवाने जाती है तो सीधी सी बात है दोनो में से एक तो नाराज़ होगा ही | हो सकता है दोनों को ही पुलिस की बात बुरी लगे |और बस यहीं से शुरू होती है पुलिस की छवि खराब होनी | एक और कारण है पुलिस की खराब छवि का; राजनैतिक दबाव, जैसे ही कोई ईमानदार पुलिस वाला कुछ करना शुरू करता है उसके उपर राजनैतिक दवाब बनना शुरू हो जाता है| चाहते हुए भी काम नहीं कर पाते और नाम बदनाम होता है पुलिस का | ...

सोच के बारे में

आप सब ने नकारात्मक और सकारात्मक सोच के बारे में न केवल ढेर सारे लेख ही पढ़े होंगे, बल्कि जीवन-प्रबंधन से जुड़ी छोटी-मोटी और मोटी-मोटी किताबें भी पढ़ी होंगी। जब आप इन्हें पढ़ते हैं, तो तात्कालिक रूप से आपको सारी बातें बहुत सही और प्रभावशाली मालूम पड़ती हैं और यह सच भी है। लेकिन कुछ ही समय बाद धीरे-धीरे वे बातें दिमाग से खारिज होने लगती हैं और हमारा व्यवहार पहले की तरह ही हो जाता है।इसका मतलब यह नहीं होता कि किताबों में सकारात्मक सोच पर जो बातें कही गई थीं, उनमें कहीं कोई गलती थी। गलती मूलतः हममें खुद में होती है। हमअपनी ही कुछ आदतों के इस कदर बुरी तरह शिकार हो जाते हैं कि उन आदतों से मुक्त होकर कोई नई बात अपने अंदर डालकर उसे अपनी आदत बना लेना बहुत मुश्किल काम हो जाता है लेकिन असंभव नहीं। लगातार अभ्यास से इसको आसानीसे पाया जा सकता है।हममहसूस करते हैं कि हमारा जीवन मुख्यतः हमारी सोच का ही जीवन होता है। हम जिस समय जैसा सोच लेते हैं, कम से कम कुछ समय के लिए तो हमारी जिंदगी उसी के अनुसार बन जाती है। यदि हम अच्छा सोचते हैं, तो अच्छा लगने लगता है और यदि बुरा सोचते हैं, तो बुरा लगने लगता है। इ...

पतंग

बाप पतंग उड़ा रहा था बेटा ध्यान से देख रहा थाथोड़ी देर बाद बेटा बोला पापा ये धागे की वजह से पतंग और ऊपर नहीं जा पा रही है इसे तोड़ दो,बाप ने धागा तोड़ दियापतंग थोडा सा और ऊपर गई और उसके बाद निचे आ गई,तब बाप ने बेटे को समझाया,बेटा जिंदगी में हम जिस उचाई पर है,हमें अक्सर लगता है ,की कई चीजे हमें और ऊपर जाने से रोक रही है,जैसेघर,परिवार,अनुशासन,दोस्ती,और हम उनसे आजाद होना चाहते है,मगर यही चीज होती हैजो हमें उस उचाई पर बना के रखती है.उन चीजो के बिना हम एक बार तो ऊपर जायेंगे,मगर बाद में हमारा वो ही हश्र होगा, जो पतंग का हुआ.इसलिए जिंदगी में कभी भीअनुशासन का,घर का ,परिवार का,दोस्तों का,रिश्ता कभी मत तोड़ना.

Oh My God: भगवान की सही व्याख्या

भगवान को देखा है? कैसा है वह? कहाँ रहता है ? हिन्दू है या मुसलमान? आदमी है या औरत? शक्ल कैसी है? ये और इन जैसे अनेक प्रश्न मनुष्य को आदि काल से मथते आए हैं। इसी मंथन से वेद, उपनिषद, वेदांग, गीता, बाइबल, अवेस्ता, क़ुरान जैसे ग्रंथ निकले हैं। इन्हें किसने रचा कोई नहीं जानता पर इनमें मानव जाति  के सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान का समावेश है। यह ज्ञान है अस्तित्व का, मनुष्य के होने के कारण का, उसकी कठनाइयों का और उसकी जिम्मेदारियों का। यह ज्ञान है मनुष्य के विकास का, उन्नयन का। पशुत्व से मानवत्व के विकास की कुंजी का। यह ज्ञान है आस्था का, भरोसे का और इसी ज्ञान से जब जब भरोसा टूटता है तब तब उसे फिर से स्थापित करने के लिए किसी मुहम्मद, ईसा, कृष्ण या बुद्ध को आना पड़ता है और इन ग्रन्थों की शिक्षाओं को फिर से नए संदर्भों में स्थापित करना पड़ता है। दुनियाँ के सबसे पुराने हिन्दू धर्म में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है। इस धर्म में निरंतार नए तत्वों का समावेश होता रहा है। यह सबको अपने भीतर ले कर चलने वाला सही मायने में लोकतांत्रिकता का प्रतीक है। इसमें सनातन से लेकर पुरातन, नास्तिक, तांत्रिक, अघोर, शैव...

.. रिश्ते कमाता हूँ "...

" साहब अब मैं पैसे नहीं कमाता.... रिश्ते कमाता हूँ ".....! आज सुबह सुबह अपने एक फेसबुक फ्रेंड की एक पोस्ट पढ़ी... थोड़ी लम्बी है, लेकिन है बहुत काम की... उम्मीद करता हूँ आप पूरी पढेंगे और इसके भाव को अपने जीवन में स्थान देंगे |  तो पोस्ट इस तरह से है :- बहुत पहले मैं अपने एक मित्र का पासपोर्ट बनवाने के लिए दिल्ली के पासपोर्ट ऑफिस गया था। उन दिनों इंटरनेट पर फार्म भरने की सुविधा नहीं थी। पासपोर्ट  दफ्तर में दलालों का बोलबाला था और खुलेआम दलाल पैसे लेकर पासपोर्ट के फार्म बेचने से लेकर उसे भरवाने, जमा करवाने और पासपोर्ट बनवाने का काम करते थे। मेरे मित्र को किसी कारण से पासपोर्ट की जल्दी थी, लेकिन दलालों के दलदल में फंसना नहीं चाहते थे। हम पासपोर्ट दफ्तर पहुंच गए, लाइन में लग कर हमने पासपोर्ट का तत्काल फार्म भी ले लिया। पूरा फार्म भर लिया। इस चक्कर में कई घंटे निकल चुके थे, और अब हमें िकसी तरह पासपोर्ट की फीस जमा करानी थी। हम लाइन में खड़े हुए लेकिन जैसे ही हमारा नंबर आया बाबू ने खिड़की बंद कर दी और कहा कि समय खत्म हो चुका है अब कल आइएगा। मैंने उससे मिन्नतें की, उससे कहा कि आज प...

...अलफ़ाज...

 kumar shikstgi righter...       1....    .अहसास हैं.. के बेचैन हैं जाहिर होने को.. । ..अलफ़ाज हैं के कमब्ख़्त हङताल किये बैठे हैं.. ।। ..इस मौसम की पहली सर्द हवाओ का.. मेरी उदास मुस्कुराहटें इस्तकबाल कर रही हैं.. चलो ये मौसम भी हमे रास आया वरना तो सो चा करते थे.. तेरे साथ सारे मौसम भी चले गये हैं.. तन्हाईयों का लिबास अब जगह जगह से फटने लगा है.. उदास मुस्कुराहटों के पैबन्द काम आ रहे हैं बहुत.. आह.. इश्क आज छुट्टी पर है कमब्ख़्त.. और ज़िन्दगी किसी मासूम बच्चे की तरह आईने में खुद को निहार रही है.. ।। ..कुमार शिकस्तगी.. ।।  2...    शायद आपने वो मंज़र नहीं देखा । ग़मों में जीने वालों का समंदर नहीं देखा ।। आप मुसाफ़िर तो हैं अपनी मंजिल के । पर बिना मंजिल के मुसाफ़िर को नहीं देखा ।। रिश्तों के टूटने का दुःख आप क्या जानो । आपने शायद रिश्तों के बंधन को ही नहीं देखा ।। महल तो खड़े कर लिए आपने शीशे के । पर शीशे की चमक में खुद को नहीं देखा ।। ढूंढने निकले थे दीपक की रोशनी को । दुनियाँ छान ली पर खुद के अन्दर नहीं देखा ।। हो सकता है गलत लिखती ह...