...अलफ़ाज...
kumar shikstgi righter...
1.... .अहसास हैं.. के बेचैन हैं जाहिर होने को.. ।
..अलफ़ाज हैं के कमब्ख़्त हङताल किये बैठे हैं.. ।।
..इस मौसम की पहली सर्द हवाओ का.. मेरी उदास मुस्कुराहटें इस्तकबाल कर रही हैं.. चलो ये मौसम भी हमे रास आया वरना तो सोचा करते थे.. तेरे साथ सारे मौसम भी चले गये हैं.. तन्हाईयों का लिबास अब जगह जगह से फटने लगा है.. उदास मुस्कुराहटों के पैबन्द काम आ रहे हैं बहुत.. आह.. इश्क आज छुट्टी पर है कमब्ख़्त.. और ज़िन्दगी किसी मासूम बच्चे की तरह आईने में खुद को निहार रही है.. ।।
..कुमार शिकस्तगी.. ।।
आप मुसाफ़िर तो हैं अपनी मंजिल के ।
पर बिना मंजिल के मुसाफ़िर को नहीं देखा ।।
रिश्तों के टूटने का दुःख आप क्या जानो ।
आपने शायद रिश्तों के बंधन को ही नहीं देखा ।।
महल तो खड़े कर लिए आपने शीशे के ।
पर शीशे की चमक में खुद को नहीं देखा ।।
ढूंढने निकले थे दीपक की रोशनी को ।
दुनियाँ छान ली पर खुद के अन्दर नहीं देखा ।।
हो सकता है गलत लिखती है कलम मेरी पर ।
कभी मैंने कलम की गलतियों को नहीं देखा ।।
जो मिल गया मेरा नसीब ।
जो मेरा न था मिला नहीं ।।
मैं पहले भी फ़कीर था ।
फ़कीर था ख़ुदा नहीं ।।
वो जो राह चलते खो गया ।
इक घर ही था किला नहीं ।।
जो मिल गया मेरा नसीब ।
जो मेरा न था मिला नहीं ।।
इन वहशतों की भीड़ में ।
वो जो गिर गया उठा नहीं ।।
वो चुरा के ख़ार ले गये ।
वो जो फूल था खिला नहीं ।।
जो मिल गया मेरा नसीब ।
जो मेरा न था मिला नहीं ।।
जा ज़िदगी तेरी जरूरत नही ।
मुझे हादसो ने पाल लिया है ।।
इस हद तक तो गुनहगार नहीं थे हम ।
आखरी मुलाकात के भी हकदार नहीं थे हम ।।
मेरे चेहरे पर सिर्फ़ तुम्हे पढ़ा लोगों ने ।
आखिर किताब थे, अखबार नहीं थे हम ।।
अपने हिस्से की ठोकरें हमने खुद ही खाई हैं ।
पत्थर ही थे, दीवार नहीं थे हम ।।
यूँ तो कीमत भी अदा कर सकते थे मगर ।
चाहने वाले थे, तेरे खरीददार नहीं थे हम ।।
तुझसे बिछड़ने को तैयार नहीं थे हम ।
सही कहते हो वफादार नहीं थे हम ।।
एक तू मिल जाता, इतना काफ़ी था ।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।
कुमार शिकस्तगी
कभी मैंने रोका नहीं कभी तुमने पुकारा नहीं
इस तरह बढ़ता रहा राहों पर फासला
कभी मैंने कुछ कहा नही कभी तुमने कुछ सुना नहीं
इस तरह बढ़ता रहा खामोशियों का साया
कभी मैंने डोर छोड़ दी कभी तुमने हाथ थामा नहीं
इस तरह खिंचता रहा लकीरों का दायरा
कभी मेरे शब्द तीर हो गए कभी तुमने नश्तर चुभो दिए
इस तरह चलता रहा आइनों का टूटना
कभी मैंने बांधा नहीं कभी तुमने जोड़ा नहीं
इस तरह चलता रहा संबंधों का सिलसिला
..जिन हाथों में किताबों को होना था.. ।
..उन हाथों से खंज़र निकले.. ।।
..उसने नशे की हालत में चढ़ाई थी गाड़ी जिन पर.. ।
..वो फुटपाथ भी किसी के घर निकले.. ।।
..हर तरफ चीखती हैं वहशतें यहाँ.. ।
..ऐसे हालात में कोई किधर निकले.. ।।
..रात भटक रही है साये की तलाश में.. ।
..अब ये वाज़िब है के सहर निकले.. ।।
..मैं तो चाहता था यह आखरी सफ़र निकले.. ।
..इन्सान मगर इस शहर के भी बन्जर निकले.. ।।
..कुमार शिकस्तगी.. ।।
.....और ऐसी प्रेम-कहानियाँ....इतिहास रचती हैं....मिसाल बनती हैं...
...ऐसी कहानियां.....प्रेम लिखती हैं......प्रेम छोड़ जाती हैं........अपने बाद...औरों के लिए......वर्षों तक...सदियों तक...या शायद जन्मों तक....हर जगह...बस प्रेम..........
और .....वो प्रेम जो मर कर भी नहीं मरता ...वो प्रेम जो जिया जाता है ...हर प्रेमी के द्वारा ...हर प्रेमिका के द्वारा.... एक दूसरे को पूज्य मानकर ...प्रभु मानकर ...प्रेम मानकर ..
..उतनी ही तकलीफ देते हैं..
..जितनी बर्दास्त कर सकूँ.. ।
..तर्कपूर्ण और सही तरीके से कही गई बात का असर दूर तक और देर तक होता है.. ।।
कुमार शिकस्तगी ।।
1.... .अहसास हैं.. के बेचैन हैं जाहिर होने को.. ।
..अलफ़ाज हैं के कमब्ख़्त हङताल किये बैठे हैं.. ।।
..इस मौसम की पहली सर्द हवाओ का.. मेरी उदास मुस्कुराहटें इस्तकबाल कर रही हैं.. चलो ये मौसम भी हमे रास आया वरना तो सोचा करते थे.. तेरे साथ सारे मौसम भी चले गये हैं.. तन्हाईयों का लिबास अब जगह जगह से फटने लगा है.. उदास मुस्कुराहटों के पैबन्द काम आ रहे हैं बहुत.. आह.. इश्क आज छुट्टी पर है कमब्ख़्त.. और ज़िन्दगी किसी मासूम बच्चे की तरह आईने में खुद को निहार रही है.. ।।
..कुमार शिकस्तगी.. ।।
2... शायद आपने वो मंज़र नहीं देखा ।
ग़मों में जीने वालों का समंदर नहीं देखा ।।आप मुसाफ़िर तो हैं अपनी मंजिल के ।
पर बिना मंजिल के मुसाफ़िर को नहीं देखा ।।
रिश्तों के टूटने का दुःख आप क्या जानो ।
आपने शायद रिश्तों के बंधन को ही नहीं देखा ।।
महल तो खड़े कर लिए आपने शीशे के ।
पर शीशे की चमक में खुद को नहीं देखा ।।
ढूंढने निकले थे दीपक की रोशनी को ।
दुनियाँ छान ली पर खुद के अन्दर नहीं देखा ।।
हो सकता है गलत लिखती है कलम मेरी पर ।
कभी मैंने कलम की गलतियों को नहीं देखा ।।
3,.... इधर सड़कों पर रोशनी लावारिस फिरती है रात भर ।
उधर शहर भर का अँधेरा कच्ची बस्तियाँ निगल जाता है ।।
4... हर रोज बदलते इश्तहार जैसा है ।
वो शख्स़ मेरे शहर के अखबार जैसा है ।।
5.... ज़िन्दगी.. या तो वो शख्स़ दे मुझे ।
या फिर ऐसा कर.. बख्स दे मुझे ।।
6....
..महोब्बत..
..महोब्बत उथले पानी की तरह शोर नही करती हर वक्त.. हर वक्त उसे चीख-पुकार की जरूरत नही होती अपना वजूद साबित करने के लिए, के देखो मैं हूँ, अरे सुनो मैं हूँ.. और महोब्बत गहरे पानी की तरह बेआवाज भी नही बहती हर वक्त.. हाँ मगर ये तो सच है के ये एक सच्चे दिल से शुरू होकर एक सच्चे दिल तक जरूर पहुचती है..
..महोब्बत एक नदी की तरह है, कही कुछ पिघलता है, या कही कुछ बरसता है, और इसकी शुरूआत होती है.. शुरूआत मे शोर करती, चट्टानो को काट कर अपना रास्ता बनाती, किसी की परवाह नही करती, और सब कुछ अपने साथ बहा कर ले जाती नदी की तरह..
..मैदानो मे आकर नदी कैसे शान्त हो जाती है ना.. जैसे रोने के बाद बच्चा शान्त हो जाता है, जैसे रोने के बाद आसमान साफ हो जाता है..
..एक वक्त तक शोर करने के बाद महोब्बत भी शान्त हो जाती है, मगर इसका मतलब ये नही के महोब्बत खत्म हो गई.. अब उसका बहाव धीमा जरूर है, मगर अब उसका विस्तार पहले से कही ज्यादा है.. ठीक मैदानो को पार करती नदी की तरह..
..मैदानो मे आकर शान्त हो जाने के क्या मायने है.. ?? पहाङो से जुदाई का गम या के समन्दर की याद, समन्दर का इन्तेजार.. कोई नही जान पाया आज तक.. नदी क्यो समन्दर की तरफ खिंची चली आती है, जबके उस से मिल कर उसे खारा हो जाना है.. ?? कौन कहता है नदी के दो किनारे कभी नही मिल पाते, क्या किसी ने किनारो से कभी बात की.. ??
..आह सवाल सवाल और सवाल, महोब्बत इतना पेचीदा मसअला क्यो है.. ?? उफ एक और सवाल..
..अब तो समझ से बाहर होते जा रहा है ये लफ्जो का खेल..
..खैर आपको महोब्बत की कोई इत्तिला मिले तो मेरा पता दीजियेगा.. एक बार मिले मुझसे, मेहमान की तरह ही सही..
..खैर मै चलता हूँ, बहुत दूर जाना है.. फासला बहुत है मेरे और उसके दरम्यान, कभी खत्म न होने वाले एक सहरा जितना, और मुझे अकेले को तय करना है, तो..
..खुदा हाफिज.. ।
..कुमार शिकस्तगी.. ।।
..महोब्बत उथले पानी की तरह शोर नही करती हर वक्त.. हर वक्त उसे चीख-पुकार की जरूरत नही होती अपना वजूद साबित करने के लिए, के देखो मैं हूँ, अरे सुनो मैं हूँ.. और महोब्बत गहरे पानी की तरह बेआवाज भी नही बहती हर वक्त.. हाँ मगर ये तो सच है के ये एक सच्चे दिल से शुरू होकर एक सच्चे दिल तक जरूर पहुचती है..
..महोब्बत एक नदी की तरह है, कही कुछ पिघलता है, या कही कुछ बरसता है, और इसकी शुरूआत होती है.. शुरूआत मे शोर करती, चट्टानो को काट कर अपना रास्ता बनाती, किसी की परवाह नही करती, और सब कुछ अपने साथ बहा कर ले जाती नदी की तरह..
..मैदानो मे आकर नदी कैसे शान्त हो जाती है ना.. जैसे रोने के बाद बच्चा शान्त हो जाता है, जैसे रोने के बाद आसमान साफ हो जाता है..
..एक वक्त तक शोर करने के बाद महोब्बत भी शान्त हो जाती है, मगर इसका मतलब ये नही के महोब्बत खत्म हो गई.. अब उसका बहाव धीमा जरूर है, मगर अब उसका विस्तार पहले से कही ज्यादा है.. ठीक मैदानो को पार करती नदी की तरह..
..मैदानो मे आकर शान्त हो जाने के क्या मायने है.. ?? पहाङो से जुदाई का गम या के समन्दर की याद, समन्दर का इन्तेजार.. कोई नही जान पाया आज तक.. नदी क्यो समन्दर की तरफ खिंची चली आती है, जबके उस से मिल कर उसे खारा हो जाना है.. ?? कौन कहता है नदी के दो किनारे कभी नही मिल पाते, क्या किसी ने किनारो से कभी बात की.. ??
..आह सवाल सवाल और सवाल, महोब्बत इतना पेचीदा मसअला क्यो है.. ?? उफ एक और सवाल..
..अब तो समझ से बाहर होते जा रहा है ये लफ्जो का खेल..
..खैर आपको महोब्बत की कोई इत्तिला मिले तो मेरा पता दीजियेगा.. एक बार मिले मुझसे, मेहमान की तरह ही सही..
..खैर मै चलता हूँ, बहुत दूर जाना है.. फासला बहुत है मेरे और उसके दरम्यान, कभी खत्म न होने वाले एक सहरा जितना, और मुझे अकेले को तय करना है, तो..
..खुदा हाफिज.. ।
..कुमार शिकस्तगी.. ।।
7.... वो तसल्ली दे के चला गया ।
ताजिन्दगी मिला नहीं ।।जो मिल गया मेरा नसीब ।
जो मेरा न था मिला नहीं ।।
मैं पहले भी फ़कीर था ।
फ़कीर था ख़ुदा नहीं ।।
वो जो राह चलते खो गया ।
इक घर ही था किला नहीं ।।
जो मिल गया मेरा नसीब ।
जो मेरा न था मिला नहीं ।।
इन वहशतों की भीड़ में ।
वो जो गिर गया उठा नहीं ।।
वो चुरा के ख़ार ले गये ।
वो जो फूल था खिला नहीं ।।
जो मिल गया मेरा नसीब ।
जो मेरा न था मिला नहीं ।।
8.... मंज़िलें मुझे छोङ गई हैं ।
रास्तों ने संभाल लिया है ।।जा ज़िदगी तेरी जरूरत नही ।
मुझे हादसो ने पाल लिया है ।।
9.... एक तू मिल जाता, इतना काफ़ी था ।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।इस हद तक तो गुनहगार नहीं थे हम ।
आखरी मुलाकात के भी हकदार नहीं थे हम ।।
मेरे चेहरे पर सिर्फ़ तुम्हे पढ़ा लोगों ने ।
आखिर किताब थे, अखबार नहीं थे हम ।।
अपने हिस्से की ठोकरें हमने खुद ही खाई हैं ।
पत्थर ही थे, दीवार नहीं थे हम ।।
यूँ तो कीमत भी अदा कर सकते थे मगर ।
चाहने वाले थे, तेरे खरीददार नहीं थे हम ।।
तुझसे बिछड़ने को तैयार नहीं थे हम ।
सही कहते हो वफादार नहीं थे हम ।।
एक तू मिल जाता, इतना काफ़ी था ।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।
कुमार शिकस्तगी
10.... कभी मैंने बांधा नहीं कभी तुमने जोड़ा नहीं
इस तरह चलता रहा संबंधों का सिलसिलाकभी मैंने रोका नहीं कभी तुमने पुकारा नहीं
इस तरह बढ़ता रहा राहों पर फासला
कभी मैंने कुछ कहा नही कभी तुमने कुछ सुना नहीं
इस तरह बढ़ता रहा खामोशियों का साया
कभी मैंने डोर छोड़ दी कभी तुमने हाथ थामा नहीं
इस तरह खिंचता रहा लकीरों का दायरा
कभी मेरे शब्द तीर हो गए कभी तुमने नश्तर चुभो दिए
इस तरह चलता रहा आइनों का टूटना
कभी मैंने बांधा नहीं कभी तुमने जोड़ा नहीं
इस तरह चलता रहा संबंधों का सिलसिला
11.... मैं तो चाहता था यह आखरी सफ़र निकले.. ।
..इन्सान मगर इस शहर के भी बन्जर निकले.. ।।..जिन हाथों में किताबों को होना था.. ।
..उन हाथों से खंज़र निकले.. ।।
..उसने नशे की हालत में चढ़ाई थी गाड़ी जिन पर.. ।
..वो फुटपाथ भी किसी के घर निकले.. ।।
..हर तरफ चीखती हैं वहशतें यहाँ.. ।
..ऐसे हालात में कोई किधर निकले.. ।।
..रात भटक रही है साये की तलाश में.. ।
..अब ये वाज़िब है के सहर निकले.. ।।
..मैं तो चाहता था यह आखरी सफ़र निकले.. ।
..इन्सान मगर इस शहर के भी बन्जर निकले.. ।।
..कुमार शिकस्तगी.. ।।
12.... कुछ प्रेम कहानियाँ खूबसूरत नहीं होतीं ..दिलकश नहीं होतीं..आसान नहीं होतीं...और पूरी भी नहीं होतीं...पर उन कहानियों के भीतर का प्रेम हमेशा रूमानियत का एहसास करवाता हैं....हमेशा जिन्दा रहता हैं कुछ खास बनकर.....कुछ जीवन सा बनकर...कुछ जीने की चाह सा बनकर ....
......कुछ प्रेम कहानियाँ...लीक से हटकर होती हैं...कुछ ऐसी जैसी कल्पना ना की गयी हो...खुद प्रेम करने वालों द्वारा भी...ऐसे प्रेम की...ऐसी कहानियाँ जो नामुमकिन सी लगती हैं...जो हमेशा खुशियाँ नहीं देती...जो बस तकलीफ से सामना कराती हैं...वो प्रेम कहानियाँ...जो बर्बाद कर डालती हैं...आबाद होने के जूनून-ओ-चाह में...........और ऐसी प्रेम-कहानियाँ....इतिहास रचती हैं....मिसाल बनती हैं...
...ऐसी कहानियां.....प्रेम लिखती हैं......प्रेम छोड़ जाती हैं........अपने बाद...औरों के लिए......वर्षों तक...सदियों तक...या शायद जन्मों तक....हर जगह...बस प्रेम..........
और .....वो प्रेम जो मर कर भी नहीं मरता ...वो प्रेम जो जिया जाता है ...हर प्रेमी के द्वारा ...हर प्रेमिका के द्वारा.... एक दूसरे को पूज्य मानकर ...प्रभु मानकर ...प्रेम मानकर ..
13.... ..तुझसे अच्छे तो जख्म हैं मेरे.. ।
..उतनी ही तकलीफ देते हैं..
..जितनी बर्दास्त कर सकूँ.. ।
14.... ..आलोचना का आदान प्रदान करते समय धैर्य, संयम, उदारता का परिचय दें.. ये बहुत मुश्किल नहीं है.. ये इस मुल्क की मिट्टी में है.. और ये हमारे खून में है.. ।
..आप चीख कर या सामने वाले को गाली देकर खुद को सही साबित नहीं कर सकते.. और चुप रहने का मतलब हमेशा कमजोर होना नहीं होता.. इसका मतलब ये भी हो सकता है के आप ज्यादा समझदार हैं.. ।..तर्कपूर्ण और सही तरीके से कही गई बात का असर दूर तक और देर तक होता है.. ।।
कुमार शिकस्तगी ।।
15.... मैं तुझसे अब कुछ नहीं मांगूगा ए खुदा.. तेरी देकर छीन लेने की आदत मुझे पसंद नही..
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें