मन्ना डे
ये कैसा खालीपन आ गया आज अचानक। एक विराट शून्य। भारतीय संगीत के चुनिंदा
दिग्गजों में शामिल मन्ना डे काफी वक्त से बीमार थे और इस बात का अहसास
काफी दिन से था कि एक दिन अचानक ही दुखद ख़बर आएगी। वह ख़बर आज आ गई,
मन्ना डे के जाने का मतलब सिर्फ एक गायक का चले जाना नहीं है। मन्ना डे भारतीय संगीत का एक युग थे। उनकी आवाज़ सीधे रूह को छूती थी। रफी, मुकेश और किशोर की विराट लोकप्रियता के बीच में भी मन्ना डे की उपस्थिति न केवल महसूस की गई बल्कि उनकी अनिवार्यता को भी दिग्गज संगीतकारों ने समझा था।
लेकिन, क्या आज की पीढ़ी समझ सकती है कि आज हमारे बीच से कौन सा शख्स चला गया? नयी पीढ़ी मन्नादा होने का मतलब और मन्नादा के हमारे बीच होने का मतलब नहीं समझ सकती। नयी पीढ़ी के कई बच्चों ने मन्ना डे का नाम शायद आज पहली बार सुना होगा, जब उनके निधन की ख़बर टेलीविजन चैनलों पर रेंग रही है। हो सकता है कि कइयों के लिए मन्ना डे का मतलब ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरा जिंदगी‘ गाने वाले एक गायक की हो क्योंकि ‘ज़ंजीर’ फिल्म का यह गाना अकसर चैनलों पर बजता रहता है।
लेकिन, मेरे लिए मन्ना डे का मतलब एक गायक भर नहीं था। वो एक ऐसी आवाज़ थी, जिसकी आवाज़ शांत अकेले कमरे में अलग अलग भावनाओं को सीधे दिल में उतार देती है। जो आपको हंसाती है, रुलाती है और कई बार जिंदगी के टेड़े सवालों के बारे में सोचने को मजबूर करती है। वैसे, मैं क्या... मेरी पीढ़ी और मुझसे पहली की पीढ़ी को बखूबी मालूम है कि आवाज़ के इस जादूगर का करिश्मा क्या था।
मन्नादा का गाया मेरा पसंदीदा गीत है-`जिंदगी कैसी है पहेली हाय..,कभी ये रुलाए कभी ये हंसाए।` आनंद फिल्म का यह गाना कितने आसान शब्दों में ज़िंदगी के फलसफे की परतें खोलता है। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ जब देखी थी, तब बहुत पसंद आई थी। यह गाना जुबां पर चढ़ गया था उस वक्त। इस गाने का वीडियो यानी राजेश खन्ना और आवाज़ यानी मन्ना डे दोनों दिमाग पर हावी थे। आज दोनों ही नहीं है।
वैसे, मन्ना डे के किस किस गाने को याद करुं। सैकड़ों अमर गाने हैं। लागा चुनरी में दाग, छिपाऊ कैसे, तू प्यार का सागर है, ऐ मेरी जोहर-ए-जबीं, ये रात भीगी-भीगी, आजा सनम मधुर चांदनी में हम और कस्मे वादे प्यार वफा सब...। सारे गाने एक से बढ़कर एक। फिर, हरिवंशराय बच्चन की मधुशाला को उन्होंने आवाज़ दी, जिसका भी कोई जवाब नहीं है।
हिंदी सिनेमा के एक ऐसा मुकम्मल गायक जिसकी आवाज और उसके अंदाज में एक ऐसी कशिश थी, जो एक बार सुन लेता है उसे किसी और को सुनकर सुकून का एहसास ही नहीं होता। आवाज जो किसी रुहानी एहसास की तरह आपको मजबूत भी करती है। हम बात कर रहे हैं मन्ना डे की। हिंदी सिनेमा में एक मुकम्मल गायक और परफेक्ट रेंडरिंग की तलाश मन्ना डे साहब पर जाकर पूरी होती है।
साठ से भी ज्यादा सालों से सुर और संगीत का यह अजीम फनकार दिलकश और सुरीले गाने सुनाता आया है और पीढ़ियां दर पीढ़ियां सुरों के इस सुरुर में हर बार एक नई ताजगी का एहसास करती आई है। दिल का हाल सुने दिलवाला..." की मस्ती हो, या "एक चतुर नार..." में किशोर से नटखट अंदाज़ में मुकाबला करती आवाज़ हो, "ऐ भाई ज़रा देख के चलो.." के अट्टहास में छुपी संजीदगी हो, या "पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी...", "लागा चुनरी में दाग...", "केतकी गुलाब जूही..." और "आयो कहाँ से घनश्याम..." जैसे राग पर बसे गीत मन्ना डे के बोल पाकर अनमोल बन गए।
मन्ना डे साहब का जन्म 1 मई 1919 को कोलकाता में हुआ। बचपन से मन्ना को कुश्ती, फुटबॉल और मुक्केबाजी का शौक था। वो बेहद शरारती थी। टाफियां चुराना, पड़ोसी की छत पर जाकर अचार का मर्तबान साफ कर देना उनकी आदत में शुमार था। मन्ना की गीतों में उनके इस शरारती स्वभाव की झलक मिलती है। कोलकाता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से तालीम लेने के दिनों में ही मन्ना ने संगीत की तालीम लेनी शुरु कर दी। चाचा कृष्ण चंद्र डे और उस्ताद दाबिर खान की शागिर्दी में मन्ना ने सुरों को साधना सीखा और यही साधना उन्हें 1942 में मुंबई ले आई जहां पहले अपने चाचा के साथ और फिर बाद में सचिन देव बर्मन के सहायक के तौर पर उन्होंने म्यूजिक डायरेक्शन में कदम रखा। लेकिन म्यूजिक डायरेक्शन के तौर पर काम करते हुए भी उन्होंने संगीत की तालीम जारी रखी। उस्ताद अमान अली और उस्ताद अब्दुल रहमान खान जैसे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के अजीम फनकारों का असर उनकी गायकी पर साफ तौर पर दिखता है।
हिन्दी सिनेमा की बात करें तो 1943 में, मन्ना ने फिल्म तमन्ना से प्ले बैक सिंगर के तौर पर शुरुआत की, संगीतकार थे कृष्णचंद्र डे और मन्ना के साथ थी उस दौर की मशहूर अदाकारा और गायिका सुरैया। लेकिन मुकेश,रफी और तलत महमूद के उस दौर में अपनी पहचान बनाने के लिए मन्ना को सात साल तक इंतजार करना पड़ा और ये मौका उन्हें दिया सचिनदेव बर्मन में फिल्म मशाल के जरिए। अगले साल मन्ना ने केरल की सुलोचना कुमारन से शादी की। ये प्रेमविवाह था लेकिन मन्ना ने इसके लिए पहले मां की मंजूरी ली, आशीर्वाद लिया। रिश्ते की रुमानियत सुरों में कुछ इस तरह ढली कि इसमें मोहब्बत की मर्यादा के साथ साथ रस्मोरिवाज से बगावत का अनोखा एहसास उतर आया।
उस दौर में जबकि सारी दुनिया मुकेश को राजकपूर की आवाज मानती थी संगीतकार शंकर उनमें से थे जो ये मानते थे कि मन्ना डे की आवाज राज साहब के लिए ही बनी थी। मोहब्बत के सबसे मीठे तरानों की ये शुरुआत थी। आवारा, श्री 420 और चोरी चोरी। इन फिल्मों को आज भी हम इतनी शिद्दत से अगर याद करते हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह शायद मन्ना डे ही हैं। यह हमारी खुशकिस्मती है कि राजकपूर की टीम का एक अहम किरदार आज भी हमारे बीच मौजूद है और इस तरह वो आवाज भी जिसमें जिंदगी से शिकायत भी है और जिंदगी का फलसफा भी।
सचिन देव बर्मन और अनिल बिस्वास जैसे संगीतकार मानते थे कि मन्ना डे किसी के भी गाये गाने को आसानी से गा सकते हैं, लेकिन उनके गीत कोई नहीं। अगर आप भीमसेन जोशी के साथ मन्ना का डुएट केतकी गुलाब जूही सुनें या किशोर के साथ एक चतुर नार तो इन संगीतकारों के कहे का मर्म आप बखूबी समझ सकेंगे। शायद यही वजह है कि एक बार रफी साहब ने कहा था कि "आप लोग मेरे गाने सुनते हैं, मैं मन्ना डे के गाने सुनता हूँ"।
हिन्दी सिनेमा में मन्ना की पहचान एक संजीदा गायक की, शास्त्रीय शैली के गायक की रही है, लेकिन अगर बात रेंज की ..वेरायटी की की जाए तो मन्ना डे के सुरों का संसार.. उनके गीतों का फलक किसी से कम नहीं.. शायद सबसे बड़ा है। गाना चाहे किसी मूड और मिजाज का हो, मन्ना ने हर एहसास के मर्म को क्या खूब समझा ..और क्या खूब जाहिर किया। शंकर जयकिशन हों या हेमंतकुमार, नौशाद हों या आरडी, मन्ना ने जिसके सुर और संगीत को अपनी आवाज की इनायत की , वो गीत.. मन्ना का गीत बन गया। नौशाद ने अपनी फिल्मों के लिए सबसे ज्यादा गाने रफी से गवाए, लेकिन मदर इंडिया के लिए दुखभरे दिन बीते रे भइया मन्ना से गवाया। शैलेंद्र जब तीसरी कसम बना रहे थे तब उन्होंने शंकर जयकिशन से खास तौर पर मन्ना से एक गाने को गवाने की गुजारिश की थी।
सत्तर के दशक में सिनेमा और संगीत का चेहरा पूरी तरह बदल गया था लेकिन इस दौर में भी मन्ना के गीतों में खासकर लोकगीतो में वही रुहानी एहसास है, वही ताजगीहै जो बाइस साल पहले मधुमती में चढ़ गया पापी बिछुआ में मिलती है। मन्ना की गायकी का एक पहलू है जिससे आम लोग ज्यादा वाकिफ नहीं, ये है कव्वाली गाने में मन्ना की महारत। हिन्दी सिनेमा में कव्वाली को नई रोशनी देनेवाले रोशन ने फिल्म बरसात की रात के क्लाइमेक्स का कव्वाली गाना इश्क इश्क मन्ना से गवाया तो सज्जाद हुसैन ने फिल्म रुस्तम सोहराब की मशहूर कव्वाली जब तुम्हारी याद आई ए सनम मन्ना से गवाया। लेकिन मन्ना की जिस कव्वाली को हिन्दी सिनेमा की सबसे शानदार कव्वाली माना जाता है वो है फिल्म बरसात की रात में।
1991 में नाना पाटेकर की फिल्म प्रहार के बाद मन्ना ने संगीत से संन्यास ले लिया। 1943 से 1991 के बीच उन्होंने 35 सौ से ज्यादा गाना रिकार्ड किए। मन्ना को इस बात का मलाल रहा कि उन्हें हीरो के लिए गाने के मौके कम मिले, लेकिन अगर वो किसी एक हीरो की आवाज बनकर रह जाते तो शायद हिन्दी सिनेमा इस अजीम फनकार की वेराइटी से महरूम रह जाती। मन्ना ने पहली बार शास्त्रीय संगीत को पॉप से मिलाकर एक नई शैली की शुरुआत तो की ही, उन्होंने इस मिथक को भी तोड़ा कि हिन्दी सिनेमा और शास्त्रीय संगीत नदी के दो किनारे हैं जो आपस में कभी नहीं मिल सकते।
मन्ना डे को ईश्वर ने 94 वर्ष की लंबी उम्र दी थी। उन्होंने पूरी सादगी और सहजता से इसे जीया। पूरी तरह संगीत को समर्पित इस शख्स ने ‘चालू म्यूजिक’ के लिए कभी नहीं गाया। उम्र के आखिरी पढ़ाव तक वह स्टेज शो करते रहे ताकि अपने प्रशंसकों से मिलते रहें और उन्हें अपनी आवाज़ के रुप में प्यार बांटते रहे।
ईश्वर से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मन्ना डे को भुलना संभव नहीं है। मन्ना डे आप लौट आओ...किसी बच्चे की आवाज़ में समा जाओ...क्योंकि आपके भीतर एक बच्चा बैठा था, जो कभी पतंग उड़ाते हुए, कभी छोटी छोटी शरारते करते हुए अकसर सामने आता था। आप ही कहते थे- `मैं बचपन में जल्द से जल्द बड़ा होना चाहता था, क्योंकि बड़ा होना मुझे आज़ादी का पर्याय लगता था। लेकिन बड़े होकर मैंने जाना कि मैंने क्या खो दिया।`
मन्नादा...आंखें नम हैं और जुबां पर आपका गाना-`जिंदगी कैसी है पहेली हाय...।`
मन्ना डे के जाने का मतलब सिर्फ एक गायक का चले जाना नहीं है। मन्ना डे भारतीय संगीत का एक युग थे। उनकी आवाज़ सीधे रूह को छूती थी। रफी, मुकेश और किशोर की विराट लोकप्रियता के बीच में भी मन्ना डे की उपस्थिति न केवल महसूस की गई बल्कि उनकी अनिवार्यता को भी दिग्गज संगीतकारों ने समझा था।
लेकिन, क्या आज की पीढ़ी समझ सकती है कि आज हमारे बीच से कौन सा शख्स चला गया? नयी पीढ़ी मन्नादा होने का मतलब और मन्नादा के हमारे बीच होने का मतलब नहीं समझ सकती। नयी पीढ़ी के कई बच्चों ने मन्ना डे का नाम शायद आज पहली बार सुना होगा, जब उनके निधन की ख़बर टेलीविजन चैनलों पर रेंग रही है। हो सकता है कि कइयों के लिए मन्ना डे का मतलब ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरा जिंदगी‘ गाने वाले एक गायक की हो क्योंकि ‘ज़ंजीर’ फिल्म का यह गाना अकसर चैनलों पर बजता रहता है।
लेकिन, मेरे लिए मन्ना डे का मतलब एक गायक भर नहीं था। वो एक ऐसी आवाज़ थी, जिसकी आवाज़ शांत अकेले कमरे में अलग अलग भावनाओं को सीधे दिल में उतार देती है। जो आपको हंसाती है, रुलाती है और कई बार जिंदगी के टेड़े सवालों के बारे में सोचने को मजबूर करती है। वैसे, मैं क्या... मेरी पीढ़ी और मुझसे पहली की पीढ़ी को बखूबी मालूम है कि आवाज़ के इस जादूगर का करिश्मा क्या था।
मन्नादा का गाया मेरा पसंदीदा गीत है-`जिंदगी कैसी है पहेली हाय..,कभी ये रुलाए कभी ये हंसाए।` आनंद फिल्म का यह गाना कितने आसान शब्दों में ज़िंदगी के फलसफे की परतें खोलता है। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ जब देखी थी, तब बहुत पसंद आई थी। यह गाना जुबां पर चढ़ गया था उस वक्त। इस गाने का वीडियो यानी राजेश खन्ना और आवाज़ यानी मन्ना डे दोनों दिमाग पर हावी थे। आज दोनों ही नहीं है।
वैसे, मन्ना डे के किस किस गाने को याद करुं। सैकड़ों अमर गाने हैं। लागा चुनरी में दाग, छिपाऊ कैसे, तू प्यार का सागर है, ऐ मेरी जोहर-ए-जबीं, ये रात भीगी-भीगी, आजा सनम मधुर चांदनी में हम और कस्मे वादे प्यार वफा सब...। सारे गाने एक से बढ़कर एक। फिर, हरिवंशराय बच्चन की मधुशाला को उन्होंने आवाज़ दी, जिसका भी कोई जवाब नहीं है।
हिंदी सिनेमा के एक ऐसा मुकम्मल गायक जिसकी आवाज और उसके अंदाज में एक ऐसी कशिश थी, जो एक बार सुन लेता है उसे किसी और को सुनकर सुकून का एहसास ही नहीं होता। आवाज जो किसी रुहानी एहसास की तरह आपको मजबूत भी करती है। हम बात कर रहे हैं मन्ना डे की। हिंदी सिनेमा में एक मुकम्मल गायक और परफेक्ट रेंडरिंग की तलाश मन्ना डे साहब पर जाकर पूरी होती है।
साठ से भी ज्यादा सालों से सुर और संगीत का यह अजीम फनकार दिलकश और सुरीले गाने सुनाता आया है और पीढ़ियां दर पीढ़ियां सुरों के इस सुरुर में हर बार एक नई ताजगी का एहसास करती आई है। दिल का हाल सुने दिलवाला..." की मस्ती हो, या "एक चतुर नार..." में किशोर से नटखट अंदाज़ में मुकाबला करती आवाज़ हो, "ऐ भाई ज़रा देख के चलो.." के अट्टहास में छुपी संजीदगी हो, या "पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी...", "लागा चुनरी में दाग...", "केतकी गुलाब जूही..." और "आयो कहाँ से घनश्याम..." जैसे राग पर बसे गीत मन्ना डे के बोल पाकर अनमोल बन गए।
मन्ना डे साहब का जन्म 1 मई 1919 को कोलकाता में हुआ। बचपन से मन्ना को कुश्ती, फुटबॉल और मुक्केबाजी का शौक था। वो बेहद शरारती थी। टाफियां चुराना, पड़ोसी की छत पर जाकर अचार का मर्तबान साफ कर देना उनकी आदत में शुमार था। मन्ना की गीतों में उनके इस शरारती स्वभाव की झलक मिलती है। कोलकाता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से तालीम लेने के दिनों में ही मन्ना ने संगीत की तालीम लेनी शुरु कर दी। चाचा कृष्ण चंद्र डे और उस्ताद दाबिर खान की शागिर्दी में मन्ना ने सुरों को साधना सीखा और यही साधना उन्हें 1942 में मुंबई ले आई जहां पहले अपने चाचा के साथ और फिर बाद में सचिन देव बर्मन के सहायक के तौर पर उन्होंने म्यूजिक डायरेक्शन में कदम रखा। लेकिन म्यूजिक डायरेक्शन के तौर पर काम करते हुए भी उन्होंने संगीत की तालीम जारी रखी। उस्ताद अमान अली और उस्ताद अब्दुल रहमान खान जैसे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के अजीम फनकारों का असर उनकी गायकी पर साफ तौर पर दिखता है।
हिन्दी सिनेमा की बात करें तो 1943 में, मन्ना ने फिल्म तमन्ना से प्ले बैक सिंगर के तौर पर शुरुआत की, संगीतकार थे कृष्णचंद्र डे और मन्ना के साथ थी उस दौर की मशहूर अदाकारा और गायिका सुरैया। लेकिन मुकेश,रफी और तलत महमूद के उस दौर में अपनी पहचान बनाने के लिए मन्ना को सात साल तक इंतजार करना पड़ा और ये मौका उन्हें दिया सचिनदेव बर्मन में फिल्म मशाल के जरिए। अगले साल मन्ना ने केरल की सुलोचना कुमारन से शादी की। ये प्रेमविवाह था लेकिन मन्ना ने इसके लिए पहले मां की मंजूरी ली, आशीर्वाद लिया। रिश्ते की रुमानियत सुरों में कुछ इस तरह ढली कि इसमें मोहब्बत की मर्यादा के साथ साथ रस्मोरिवाज से बगावत का अनोखा एहसास उतर आया।
उस दौर में जबकि सारी दुनिया मुकेश को राजकपूर की आवाज मानती थी संगीतकार शंकर उनमें से थे जो ये मानते थे कि मन्ना डे की आवाज राज साहब के लिए ही बनी थी। मोहब्बत के सबसे मीठे तरानों की ये शुरुआत थी। आवारा, श्री 420 और चोरी चोरी। इन फिल्मों को आज भी हम इतनी शिद्दत से अगर याद करते हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह शायद मन्ना डे ही हैं। यह हमारी खुशकिस्मती है कि राजकपूर की टीम का एक अहम किरदार आज भी हमारे बीच मौजूद है और इस तरह वो आवाज भी जिसमें जिंदगी से शिकायत भी है और जिंदगी का फलसफा भी।
सचिन देव बर्मन और अनिल बिस्वास जैसे संगीतकार मानते थे कि मन्ना डे किसी के भी गाये गाने को आसानी से गा सकते हैं, लेकिन उनके गीत कोई नहीं। अगर आप भीमसेन जोशी के साथ मन्ना का डुएट केतकी गुलाब जूही सुनें या किशोर के साथ एक चतुर नार तो इन संगीतकारों के कहे का मर्म आप बखूबी समझ सकेंगे। शायद यही वजह है कि एक बार रफी साहब ने कहा था कि "आप लोग मेरे गाने सुनते हैं, मैं मन्ना डे के गाने सुनता हूँ"।
हिन्दी सिनेमा में मन्ना की पहचान एक संजीदा गायक की, शास्त्रीय शैली के गायक की रही है, लेकिन अगर बात रेंज की ..वेरायटी की की जाए तो मन्ना डे के सुरों का संसार.. उनके गीतों का फलक किसी से कम नहीं.. शायद सबसे बड़ा है। गाना चाहे किसी मूड और मिजाज का हो, मन्ना ने हर एहसास के मर्म को क्या खूब समझा ..और क्या खूब जाहिर किया। शंकर जयकिशन हों या हेमंतकुमार, नौशाद हों या आरडी, मन्ना ने जिसके सुर और संगीत को अपनी आवाज की इनायत की , वो गीत.. मन्ना का गीत बन गया। नौशाद ने अपनी फिल्मों के लिए सबसे ज्यादा गाने रफी से गवाए, लेकिन मदर इंडिया के लिए दुखभरे दिन बीते रे भइया मन्ना से गवाया। शैलेंद्र जब तीसरी कसम बना रहे थे तब उन्होंने शंकर जयकिशन से खास तौर पर मन्ना से एक गाने को गवाने की गुजारिश की थी।
सत्तर के दशक में सिनेमा और संगीत का चेहरा पूरी तरह बदल गया था लेकिन इस दौर में भी मन्ना के गीतों में खासकर लोकगीतो में वही रुहानी एहसास है, वही ताजगीहै जो बाइस साल पहले मधुमती में चढ़ गया पापी बिछुआ में मिलती है। मन्ना की गायकी का एक पहलू है जिससे आम लोग ज्यादा वाकिफ नहीं, ये है कव्वाली गाने में मन्ना की महारत। हिन्दी सिनेमा में कव्वाली को नई रोशनी देनेवाले रोशन ने फिल्म बरसात की रात के क्लाइमेक्स का कव्वाली गाना इश्क इश्क मन्ना से गवाया तो सज्जाद हुसैन ने फिल्म रुस्तम सोहराब की मशहूर कव्वाली जब तुम्हारी याद आई ए सनम मन्ना से गवाया। लेकिन मन्ना की जिस कव्वाली को हिन्दी सिनेमा की सबसे शानदार कव्वाली माना जाता है वो है फिल्म बरसात की रात में।
1991 में नाना पाटेकर की फिल्म प्रहार के बाद मन्ना ने संगीत से संन्यास ले लिया। 1943 से 1991 के बीच उन्होंने 35 सौ से ज्यादा गाना रिकार्ड किए। मन्ना को इस बात का मलाल रहा कि उन्हें हीरो के लिए गाने के मौके कम मिले, लेकिन अगर वो किसी एक हीरो की आवाज बनकर रह जाते तो शायद हिन्दी सिनेमा इस अजीम फनकार की वेराइटी से महरूम रह जाती। मन्ना ने पहली बार शास्त्रीय संगीत को पॉप से मिलाकर एक नई शैली की शुरुआत तो की ही, उन्होंने इस मिथक को भी तोड़ा कि हिन्दी सिनेमा और शास्त्रीय संगीत नदी के दो किनारे हैं जो आपस में कभी नहीं मिल सकते।
मन्ना डे को ईश्वर ने 94 वर्ष की लंबी उम्र दी थी। उन्होंने पूरी सादगी और सहजता से इसे जीया। पूरी तरह संगीत को समर्पित इस शख्स ने ‘चालू म्यूजिक’ के लिए कभी नहीं गाया। उम्र के आखिरी पढ़ाव तक वह स्टेज शो करते रहे ताकि अपने प्रशंसकों से मिलते रहें और उन्हें अपनी आवाज़ के रुप में प्यार बांटते रहे।
ईश्वर से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मन्ना डे को भुलना संभव नहीं है। मन्ना डे आप लौट आओ...किसी बच्चे की आवाज़ में समा जाओ...क्योंकि आपके भीतर एक बच्चा बैठा था, जो कभी पतंग उड़ाते हुए, कभी छोटी छोटी शरारते करते हुए अकसर सामने आता था। आप ही कहते थे- `मैं बचपन में जल्द से जल्द बड़ा होना चाहता था, क्योंकि बड़ा होना मुझे आज़ादी का पर्याय लगता था। लेकिन बड़े होकर मैंने जाना कि मैंने क्या खो दिया।`
मन्नादा...आंखें नम हैं और जुबां पर आपका गाना-`जिंदगी कैसी है पहेली हाय...।`
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