त्यौहार और हमारी परम्पराये

पहले त्योहारों के साथ आस्था और परंपरा जुड़ी होती थीं। त्योहार हमारी
संस्कृति का आईना होते हैं। आज इनका भी व्यवसायीकरण हो गया है। पहले ये
त्योहार परस्पर मेल-मिलाप का ज़रिया हुआ करते थे और आज ये विशुद्घ आस्था का वास्ता न रहकर व्यवसायिक समीकरणों को सुदृढ़ करने का रास्ता बन गए हैं। त्योहारों के पीछे की वास्तविक सोच बदल गई है।
आज त्योहारों के साथ प्रतियोगिता भी जुड़ गई है। त्योहारों पर तोहफ़े यानी उपहार दिए जाने की हमारी हिंदुस्तानी संस्कृति की काफ़ी पुरानी परंपरा रही है। पहले खुले दिल से तोहफ़े दिए जाते थे, उपहारों के पीछे छुपी भावना देखी जाती थी, आज क्वालिटी और ब्रांड देखे जाते हैं। यानी दिखावे की भावना प्रबल हो गई है। सामने वाले ने जिस स्तर का तोहफ़ा दिया है हमें भी उसी के अनुरूप देना है। व्यवसायिक फ़ायदे/स्वार्थ या तेज़ी से बदलते समीकरणों के मद्देनज़र हम पाँच-छह कि.मी. या उससे भी ज़्यादा दूरी वाले व्यक्ति से मिलने या बधाई दने पहुंच जाएंगे और अपने पड़ोसियों को भले ही नॉक न करें। पहले की तुलना में आज परिवारों की तरफ से बच्चों को त्योहारों पर घूमने-फिरने की ज़्यादा आज़ादी है। आज वे सारी-सारी रात अपने-अपने सर्कल में अपने-अपने तरीके से Celebration को एन्जॉय करते हैं, पहले Parents का कठोर अनुशासन होता था, इतने बजे के बाद हर हाल में घर लौट आना है और बच्चे भी आज्ञापालन करते हुए उसमे सीमाबद्ध रहते थे। इनलाइन चित्र 1
आज उस आज़ादी के साथ-साथ उच्श्रृंखलता भी बढ़ी है, चाहे वह Celebration के तरीकों की हो या Dress Sense की । लोग नहीं सोचते कि हम क्या पहन कर निकल रहे हैं (ख़ास तौर से लड़कियां) । ज़ाहिर है जब हम तैयार होकर घर निकलते हैं तो निश्चित रूप से आईने में खुद को तो निहारते ही हैं। फिर भी लोग कैसे ऐसी पोशाकें पहन घर से बाहर क़दम रखते हैं। पहले पोशाकें बदन ढकने के लिए पहनी जाती थीं और आज बदन दिखाने के लिए। पहनने वाले की तुलना में देखने वाला शरमा जाए। अभिभावक भी पता नहीं कैसे इसकी अनुमति देते हैं।
— आज त्योहारों के साथ प्रतियोगिता भी जुड़ गई है। त्योहारों पर तोहफ़े यानी उपहार दिए जाने की हमारी हिंदुस्तानी संस्कृति की काफ़ी पुरानी परंपरा रही है। पहले खुले दिल से तोहफ़े दिए जाते थे, उपहारों के पीछे छुपी भावना देखी जाती थी, आज क्वालिटी और ब्रांड देखे जाते हैं। यानी दिखावे की भावना प्रबल हो गई है। सामने वाले ने जिस स्तर का तोहफ़ा दिया है हमें भी उसी के अनुरूप देना है। व्यवसायिक फ़ायदे/स्वार्थ या तेज़ी से बदलते समीकरणों के मद्देनज़र हम पाँच-छह कि.मी. या उससे भी ज़्यादा दूरी वाले व्यक्ति से मिलने या बधाई दने पहुंच जाएंगे और अपने पड़ोसियों को भले ही नॉक न करें। पहले की तुलना में आज परिवारों की तरफ से बच्चों को त्योहारों पर घूमने-फिरने की ज़्यादा आज़ादी है। आज वे सारी-सारी रात अपने-अपने सर्कल में अपने-अपने तरीके से Celebration को एन्जॉय करते हैं, पहले Parents का कठोर अनुशासन होता था, इतने बजे के बाद हर हाल में घर लौट आना है और बच्चे भी आज्ञापालन करते हुए उसमे सीमाबद्ध रहते थे। इनलाइन चित्र 1
आज उस आज़ादी के साथ-साथ उच्श्रृंखलता भी बढ़ी है, चाहे वह Celebration के तरीकों की हो या Dress Sense की । लोग नहीं सोचते कि हम क्या पहन कर निकल रहे हैं (ख़ास तौर से लड़कियां) । ज़ाहिर है जब हम तैयार होकर घर निकलते हैं तो निश्चित रूप से आईने में खुद को तो निहारते ही हैं। फिर भी लोग कैसे ऐसी पोशाकें पहन घर से बाहर क़दम रखते हैं। पहले पोशाकें बदन ढकने के लिए पहनी जाती थीं और आज बदन दिखाने के लिए। पहनने वाले की तुलना में देखने वाला शरमा जाए। अभिभावक भी पता नहीं कैसे इसकी अनुमति देते हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें