मानवीय संवेदनाओ का जाना


जब भी देखा है , सोचा-समझा है, यही पाया है कि धन का आना और मानवीय संवेदनाओं का जाना साथ-साथ ही होता है। बहुत हैरान करती है ये बात कि कल तक जो परिवार स्वयं आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे, आज थोङा आर्थिक संबल पाते ही मानवीय संवेदनाओं से कोसों दूर हो चले हैं। धन के आने से रहन सहन ही नहीं सोचने समझने का रंग ढंग भी बदल जाता है। आत्मीयता खो जाती है और उनके विचार-व्यवहार में आत्ममुगध्ता न केवल आ जाती है बल्कि चारों ओर छा जाती है । 
यूँ अचानक आये धन के स्वागत सत्कार में जुटे परिवार भले ही स्वयं संवेदनहीन जाते हैं पर उन्हें अपने लिए पूरे समाज से सम्मान और संवेदनशीलता  की अपेक्षा रहती है । इतना ही नहीं अन्य लोगों को लेकर उनकी क्रिया - प्रतिक्रिया बस  नकारात्मक ही रह जाती है । वाणी के माधुर्य से तो मानो कभी परिचय ही न था । इन लोगों के मन यह विचार तो इतना गहरा उतर जाता है कि सगे सम्बन्धी हों या दोस्त, उनसे जो मिलता है उसका अपना कोई स्वार्थ होता है । 
रिश्तों को सहेजने का कर्म तो उसी दिन निभाना बंद कर देते हैं जिस दिन से धन के प्रति समर्पण के भाव मन में आ जाते हैं । फिर ये सामाजिक प्राणी से धनी प्राणी बने लोग रिश्तेदारों को बस उलाहना और नसीहत देने भर का काम करने लगते हैं । इन लोगों की एक विशेषता यह भी है कि इनके लिए मानवीय संबंधों में ऊष्मा और प्रगाढ़ता जैसे अनमोल भावों का कोई मोल नहीं रह जाता । 
तथाकथित आधुनिकता का आना तो ऐसे लोगों के जीवन में मानो आवश्यक ही है,क्योंकि वे पैसेवाले हो गए हैं । फिर चाहे आधुनिकता का कोरा दिखावा और सम्पन्नता की चमक रिश्ते-नातों को हमेशा के लिए फीका क्यों न कर दे । सच ही तो है जब पैसे का पर्दा आँखों पर पड़ता  हो तो भावनाएं कहाँ नज़र आती हैं ?

ऐसे परिवारों की स्वयं को बड़ा समझने से भी ज्यादा औरों को छोटा समझने की  सोच मुझे बहुत तकलीफदेह लगती है । धन हो या बल किसी भी तरह से आपका मान बढ़ा है कोई दूसरा छोटा कैसे हो गया ? यह बात मैं तो आज तक नहीं समझ पाया । पैसा आने से आपके जीवन में क्या बदला यह तो आप स्वयं ही जानें पर आपके पास धन दौलत आ जाने से आप औरों के लिए बदल जाएँ , सामाजिक रूप से  संवेदनहीन हो जाएँ यह कहाँ तक उचित हैं

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