लोकतंत्र और आम आदमी
राजनितिक दलों की डिमांड एंड
सप्लाई के बीच फंस कर आम आदमी चुनावों के दरमियान एसा आपा खो बैठता है कि
सरकार बनने के महीनों बाद उसे याद आता है उसका जीवन सरकार के सरोकारों के
बिना पूरा होना सम्भव नहीं लेकिन सरकार जिन सरोकारों का पोषण कर रही है वो
जीवन की कठिनाइयों का कारण बन चुके हैं। ऐसे में पछताने के सिवा एक आम आदमी
कर ही क्या सकता है ? इसी अनाड़ीपन के चलते भारतीय नागरिक जीवन पैंसठ वर्ष
गंवा चुका है। दरअसल मतदान के समय फोकस में रहने वाले विषय व्यक्ति के
जीवन से जुड़े ही नहीं होते बल्कि अँधा कुआँ होते हैं जिसमे व्यक्ति
राजनितिक दलों की सहायता से खुद को नाप तोल कर सबसे गहरे फेंकता है अगले
पांच वर्ष वापस न लौटने के लिये।क्या जाति धर्म क्षेत्र कभी जीवन जीने में
और उसकी समस्याओं के समाधान में सहायक हुआ है ? फिर क्यों इसी आधार पर देश
प्रदेश की सरकारें बन जाती हैं ? या तो वोटिंग पैटर्न गलत है या जीवन
गलतियाँ कर रहा है सम्भावना दूसरी अधिक प्रबल है।
चुनावों से दूर जब व्यक्ति जीवन यापन कर रहा होता है उसकी आवश्यकताएँ सच होती हैं उस मिथक से दूर जिसे वह चुनावों के दौरान जी रहा होता है। साधारण व्यक्ति इतना साधारण होता है कि उसे विचारधारा अथवा सिद्धान्तों की डोर में नहीं बांधा जा सकता और उसके इसी गुण का लाभ राजनैतिक दल उठाते रहे हैं जबकि नुकसान वह स्वयं भोगता है। भारतवर्ष में समाजवाद साम्यवाद पूंजीवाद सब एक बकवाद बन कर रह जाते हैं क्योंकि किसी भी वाद की सरकार आने से न तो गवर्नेंस बदलती है न सिस्टम। गाँधी जी के कटु आलोचकों को भी मानना होगा कि गाँधी वह पहले व्यक्ति थे जो भारत की आजादी के साथ आ रहे पाखण्डवाद को समय से पूर्व ताड़ गये थे यही कारण था कि जब सारा देश 15 अगस्त 1947 को आजादी का जश्न मना रहा था गाँधी इस सबसे दूर कलकत्ता में थे और न ही उनके आश्रम पर कोई झंडा फहर रहा था क्योंकि गाँधी जी जानते थे कि कानून से व्यवस्था तक और देश की अवस्था तक कुछ नहीं बदला है अगर अन्ना हजारे की भाषा में कहूँ तो गोरे जा रहे थे और काले आ रहे थे इस सबके बीच किसे फुर्सत थी जो देखता सरकार में नागरिकों की भागीदारी कितनी है।
आज पैंसठ वर्षों में एक जमात तो ऐसी खड़ी हो गयी है जो सरकार से कुछ अपेक्षाएं रखती है और यही वर्ग वर्तमान शासन पद्धति से सबसे अधिक त्रस्त है। यह ऐसा आम आदमी है जो हर विषय पर अपनी राय व्यक्त करता है क्योंकि वह जान गया है कि यदि देश की सरकार उसके सरोकारों के प्रति सम्वेदनशील हो तो उसकी अपेक्षाएं पूरी हो सकती हैं। विडम्बना यह है कि वर्तमान राजनीती उसकी अपेक्षाओं के प्रति कठोर है क्योंकि राजनीतिज्ञों को लगता है कि देश के साधरण नागरिक को यदि सत्ता में इस प्रकार भागीदारी दी गयी तो राजनितिक दलों की निरंकुशता समाप्त होगी एकाधिकार खत्म होगा और भ्रष्टाचार की कमाई जो एक धारणा के अनुसार लाखों करोड़ तक पहुंच गयी है बंद हो जाएगी। लेकिन दूसरी ओर सतत संघर्षरत यह वर्ग जिसमें मूलतः देश का पढ़ा लिखा आम आदमी बहुतायत में है अब लम्बे संघर्ष का मन बना चुका है। इस वर्ग की अपेक्षाओं पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि यह वर्तमान व्यवस्था में जिस आमूलचूल परिवर्तन की बात कर रहा है वह मात्र व्यवस्था का परिशोधन है।
लोकपाल बिल पर लोकसभा में प्रश्न उठा कि सिविल सोसायटी जो मूलतः आम जनों का छोटा ग्रुप था, देश के संघीय ढांचे पर प्रहार कर रही है। कोई भारतीय देश के संघीय ढांचे को बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकता क्योंकि संघीय ढांचा उसकी आत्मा में बसा है। भारत का संविधान बनने से हजारों वर्ष पूर्व भी देश छोटे छोटे गण राज्यों में बंटा था जिनकी अपनी परिपक्व व्यवस्था थी। भारतीय इतिहास के दोनों महानतम राजा प्राचीन सम्राट अशोक महान और मध्यकालीन अकबर महान के राज्य में पूर्ण विकसित संघीय व्यवस्था थी। माइथोलॉजी में रूचि रखने वाले अश्वमेध और राजसूय यज्ञों से भली भांति परिचित हैं इन अभियानों में छोटे सभी राजाओं को अपना राज्य बनाये रखते हुए बड़े राजा की अधीनता स्वीकार करनी होती थी जो संघीय व्यवस्था का ही रूप था। इसके उदाहरण रामराज्य में भी मिलते हैं। माइथोलॉजी के अनादि काल में भगवान शिव को सभी पर्वतीय और मैदानी गणराज्यों के राजा और मुखिया अपने कल्याण के लिये अपना पति यानि प्रधान स्वीकार करते थे ये शिव जी के गण कहलाते थे और इनकी सामान्य देखरेख और व्यवस्था का उत्तरदायित्व शिव पुत्र गजानन पर था जो इन गणों के अध्यक्ष होने के कारण ही गणपति अथवा गणेश नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए। यह इतिहास का पहला संघीय राज्य व्यवस्था का उल्लेख है।
ऐसे देश का नागरिक मूलतः संघीय ढांचे का ही समर्थक हो सकता है और वही इस देश का आम आदमी है। लेकिन यह आम आदमी पूछने का अधिकार चाहता है कि कैसे एक राज्य का मुख्य मंत्री स्वयम्भू होकर हफ्ता भर पाकिस्तान में बैठ अपने एजेंडे सेट कर सकता है क्यों कोई मुख्यमंत्री विधान सभा में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इतर प्रस्ताव पास करा सकता है कैसे कोई मुख्यमंत्री सुप्रीम कोर्ट से मिली फांसी की सजा देने से अपने राज्य में इंकार कर सकता है क्यों एक प्रदेश का मुख्यमंत्री आतंकवादियों के विरुद्ध चल रहे मुकदमों वापस लेने के आदेश दे सकता है ? देश का नागरिक अब इन सवालों के जवाब चाहता है। वह जानना चाहता है कि हमारी विदेश निति की मूल आत्मा हमारे देशी हितों से अलग क्यों है। क्यों पड़ोसी मुल्कों के साथ रिश्ते जोड़ते हुए निति निर्माण में मिलिट्री अहलकारों को सम्मिलित नहीं किया जाता जबकि हम हर क्षण सीमा पर सिमित असीमित ठंडा गर्म युद्ध झेलते रहे हैं। देश जानना चाहता है कि क्यों चीन का सैन्य अधिकारी भी हमारे मंत्री को धमकाने की हैसियत रखता है कयों हम चीनी तम्बू देख अपनी जमीन छोड़ने को तैयार रहते हैं ? पकिस्तान के साथ बॉल बल्ले बिरयानी की भाषा में बात करते करते हमारे सैनिकों के सर कट जाने पर देश प्रतिक्रिया की उम्मीद करता है। श्रीलंका के मामले पर कैसे एक छोटा सा क्षेत्रीय दल सरकार की बांह मरोड़ कर लोकसभा में प्रस्ताव लाने के लिए मजबूर कर सकता है यह भी देश के नागरिक की चिंता है।
अर्थ निति पर भी आम आदमी की स्पष्ट राय है। निश्चय ही देश का साधारण नागरिक समाजवाद और पूंजीवाद के पचड़े में फंसे बिना देश की अर्थ व्यवस्था में ग्रोथ देखना चाहता है बड़े उद्योगों और कॉर्पोरेट को सुचारू रूप से व्यापर करते देखना चाहता है जिस से रोजगार के समुचित अवसर पैदा हों देश में रोजगार और खुशहाली बढ़े लेकिन आम आदमी यह काम ईमानदारी से पूरा होते देखने में इंटरेस्टेड है। बड़े व्यापारी कॉर्पोरेट मुनाफा कमायें लेकिन जायज तरीके से न कि मंत्रियों सरकारों से मिलीभगत कर क़ानून की खामियों से जनता के पैसे को लूटा जाये। कोई नहीं चाहता कि मंत्री या उनके बेटे षड्यंत्रकारी कॉर्पोरेट के वकील बनें और जनता का हजारों करोड़ एक झटके में साफ हो जाये। आम नागरिक चाहता है कि विदेशी निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर और इंडस्ट्री में हो जिससे रोजगार के साधन सुविधाएँ बढ़ें न कि स्टॉक एक्सचेंज से प्रॉफिट लेकर कम्पनियां निकल लें और चाहे जब वापस आ जायें। आम आदमी नहीं चाहता कि सट्टा खेल कर व्यापारी पैसा बनाये और उसकी थाली से दालें सब्जियाँ गायब हो जाएँ। हम वैश्वीकरण के हिमायती हैं क्योंकि दूसरा मॉडल उपलब्ध नहीं है लेकिन हम देश में फैले आर्थिक पोटेंशियल को भी विकसित करना चाहते हैं। देश के नागरिक सोशलिस्ट नहीं हैं तो भी जनता के पैसे को बेदर्दी से फूंकने के विरुद्ध हैं नहीं चाहते कि बाईस रूपये वाले शख्स को गरीबी से ऊपर मानने वाले विलासी सरकारी अधिकारी करोड़ों की लागत से बने पखानों में विसर्जन करें। आम नागरिक तेल पर लगे टैक्स से मुक्ति चाहता है जिसके लिए सरकार वैकल्पिक टैक्स व्यवस्था डेवलप करे।
आम आदमी शांतिपूर्ण जीवन चाहता है जो आतंकवाद और नक्सलवाद के रहते सम्भव नहीं है इसलिए सरकारों से अपेक्षा करता है कि इन मुद्दों पर सख्ती बरती जाय। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और असाम से गुजरात तक आम आदमी यही सब चाहता है लेकिन जाने क्यों चुनाव आते आते अपना दिमाग राजनितिक दलों की बांसुरी की बेसुरी तान पर हाईजैक करा बैठता है। जरूरत इस ट्रेंड को बदलने की है।
चुनावों से दूर जब व्यक्ति जीवन यापन कर रहा होता है उसकी आवश्यकताएँ सच होती हैं उस मिथक से दूर जिसे वह चुनावों के दौरान जी रहा होता है। साधारण व्यक्ति इतना साधारण होता है कि उसे विचारधारा अथवा सिद्धान्तों की डोर में नहीं बांधा जा सकता और उसके इसी गुण का लाभ राजनैतिक दल उठाते रहे हैं जबकि नुकसान वह स्वयं भोगता है। भारतवर्ष में समाजवाद साम्यवाद पूंजीवाद सब एक बकवाद बन कर रह जाते हैं क्योंकि किसी भी वाद की सरकार आने से न तो गवर्नेंस बदलती है न सिस्टम। गाँधी जी के कटु आलोचकों को भी मानना होगा कि गाँधी वह पहले व्यक्ति थे जो भारत की आजादी के साथ आ रहे पाखण्डवाद को समय से पूर्व ताड़ गये थे यही कारण था कि जब सारा देश 15 अगस्त 1947 को आजादी का जश्न मना रहा था गाँधी इस सबसे दूर कलकत्ता में थे और न ही उनके आश्रम पर कोई झंडा फहर रहा था क्योंकि गाँधी जी जानते थे कि कानून से व्यवस्था तक और देश की अवस्था तक कुछ नहीं बदला है अगर अन्ना हजारे की भाषा में कहूँ तो गोरे जा रहे थे और काले आ रहे थे इस सबके बीच किसे फुर्सत थी जो देखता सरकार में नागरिकों की भागीदारी कितनी है।
आज पैंसठ वर्षों में एक जमात तो ऐसी खड़ी हो गयी है जो सरकार से कुछ अपेक्षाएं रखती है और यही वर्ग वर्तमान शासन पद्धति से सबसे अधिक त्रस्त है। यह ऐसा आम आदमी है जो हर विषय पर अपनी राय व्यक्त करता है क्योंकि वह जान गया है कि यदि देश की सरकार उसके सरोकारों के प्रति सम्वेदनशील हो तो उसकी अपेक्षाएं पूरी हो सकती हैं। विडम्बना यह है कि वर्तमान राजनीती उसकी अपेक्षाओं के प्रति कठोर है क्योंकि राजनीतिज्ञों को लगता है कि देश के साधरण नागरिक को यदि सत्ता में इस प्रकार भागीदारी दी गयी तो राजनितिक दलों की निरंकुशता समाप्त होगी एकाधिकार खत्म होगा और भ्रष्टाचार की कमाई जो एक धारणा के अनुसार लाखों करोड़ तक पहुंच गयी है बंद हो जाएगी। लेकिन दूसरी ओर सतत संघर्षरत यह वर्ग जिसमें मूलतः देश का पढ़ा लिखा आम आदमी बहुतायत में है अब लम्बे संघर्ष का मन बना चुका है। इस वर्ग की अपेक्षाओं पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि यह वर्तमान व्यवस्था में जिस आमूलचूल परिवर्तन की बात कर रहा है वह मात्र व्यवस्था का परिशोधन है।
लोकपाल बिल पर लोकसभा में प्रश्न उठा कि सिविल सोसायटी जो मूलतः आम जनों का छोटा ग्रुप था, देश के संघीय ढांचे पर प्रहार कर रही है। कोई भारतीय देश के संघीय ढांचे को बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकता क्योंकि संघीय ढांचा उसकी आत्मा में बसा है। भारत का संविधान बनने से हजारों वर्ष पूर्व भी देश छोटे छोटे गण राज्यों में बंटा था जिनकी अपनी परिपक्व व्यवस्था थी। भारतीय इतिहास के दोनों महानतम राजा प्राचीन सम्राट अशोक महान और मध्यकालीन अकबर महान के राज्य में पूर्ण विकसित संघीय व्यवस्था थी। माइथोलॉजी में रूचि रखने वाले अश्वमेध और राजसूय यज्ञों से भली भांति परिचित हैं इन अभियानों में छोटे सभी राजाओं को अपना राज्य बनाये रखते हुए बड़े राजा की अधीनता स्वीकार करनी होती थी जो संघीय व्यवस्था का ही रूप था। इसके उदाहरण रामराज्य में भी मिलते हैं। माइथोलॉजी के अनादि काल में भगवान शिव को सभी पर्वतीय और मैदानी गणराज्यों के राजा और मुखिया अपने कल्याण के लिये अपना पति यानि प्रधान स्वीकार करते थे ये शिव जी के गण कहलाते थे और इनकी सामान्य देखरेख और व्यवस्था का उत्तरदायित्व शिव पुत्र गजानन पर था जो इन गणों के अध्यक्ष होने के कारण ही गणपति अथवा गणेश नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए। यह इतिहास का पहला संघीय राज्य व्यवस्था का उल्लेख है।
ऐसे देश का नागरिक मूलतः संघीय ढांचे का ही समर्थक हो सकता है और वही इस देश का आम आदमी है। लेकिन यह आम आदमी पूछने का अधिकार चाहता है कि कैसे एक राज्य का मुख्य मंत्री स्वयम्भू होकर हफ्ता भर पाकिस्तान में बैठ अपने एजेंडे सेट कर सकता है क्यों कोई मुख्यमंत्री विधान सभा में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इतर प्रस्ताव पास करा सकता है कैसे कोई मुख्यमंत्री सुप्रीम कोर्ट से मिली फांसी की सजा देने से अपने राज्य में इंकार कर सकता है क्यों एक प्रदेश का मुख्यमंत्री आतंकवादियों के विरुद्ध चल रहे मुकदमों वापस लेने के आदेश दे सकता है ? देश का नागरिक अब इन सवालों के जवाब चाहता है। वह जानना चाहता है कि हमारी विदेश निति की मूल आत्मा हमारे देशी हितों से अलग क्यों है। क्यों पड़ोसी मुल्कों के साथ रिश्ते जोड़ते हुए निति निर्माण में मिलिट्री अहलकारों को सम्मिलित नहीं किया जाता जबकि हम हर क्षण सीमा पर सिमित असीमित ठंडा गर्म युद्ध झेलते रहे हैं। देश जानना चाहता है कि क्यों चीन का सैन्य अधिकारी भी हमारे मंत्री को धमकाने की हैसियत रखता है कयों हम चीनी तम्बू देख अपनी जमीन छोड़ने को तैयार रहते हैं ? पकिस्तान के साथ बॉल बल्ले बिरयानी की भाषा में बात करते करते हमारे सैनिकों के सर कट जाने पर देश प्रतिक्रिया की उम्मीद करता है। श्रीलंका के मामले पर कैसे एक छोटा सा क्षेत्रीय दल सरकार की बांह मरोड़ कर लोकसभा में प्रस्ताव लाने के लिए मजबूर कर सकता है यह भी देश के नागरिक की चिंता है।
अर्थ निति पर भी आम आदमी की स्पष्ट राय है। निश्चय ही देश का साधारण नागरिक समाजवाद और पूंजीवाद के पचड़े में फंसे बिना देश की अर्थ व्यवस्था में ग्रोथ देखना चाहता है बड़े उद्योगों और कॉर्पोरेट को सुचारू रूप से व्यापर करते देखना चाहता है जिस से रोजगार के समुचित अवसर पैदा हों देश में रोजगार और खुशहाली बढ़े लेकिन आम आदमी यह काम ईमानदारी से पूरा होते देखने में इंटरेस्टेड है। बड़े व्यापारी कॉर्पोरेट मुनाफा कमायें लेकिन जायज तरीके से न कि मंत्रियों सरकारों से मिलीभगत कर क़ानून की खामियों से जनता के पैसे को लूटा जाये। कोई नहीं चाहता कि मंत्री या उनके बेटे षड्यंत्रकारी कॉर्पोरेट के वकील बनें और जनता का हजारों करोड़ एक झटके में साफ हो जाये। आम नागरिक चाहता है कि विदेशी निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर और इंडस्ट्री में हो जिससे रोजगार के साधन सुविधाएँ बढ़ें न कि स्टॉक एक्सचेंज से प्रॉफिट लेकर कम्पनियां निकल लें और चाहे जब वापस आ जायें। आम आदमी नहीं चाहता कि सट्टा खेल कर व्यापारी पैसा बनाये और उसकी थाली से दालें सब्जियाँ गायब हो जाएँ। हम वैश्वीकरण के हिमायती हैं क्योंकि दूसरा मॉडल उपलब्ध नहीं है लेकिन हम देश में फैले आर्थिक पोटेंशियल को भी विकसित करना चाहते हैं। देश के नागरिक सोशलिस्ट नहीं हैं तो भी जनता के पैसे को बेदर्दी से फूंकने के विरुद्ध हैं नहीं चाहते कि बाईस रूपये वाले शख्स को गरीबी से ऊपर मानने वाले विलासी सरकारी अधिकारी करोड़ों की लागत से बने पखानों में विसर्जन करें। आम नागरिक तेल पर लगे टैक्स से मुक्ति चाहता है जिसके लिए सरकार वैकल्पिक टैक्स व्यवस्था डेवलप करे।
आम आदमी शांतिपूर्ण जीवन चाहता है जो आतंकवाद और नक्सलवाद के रहते सम्भव नहीं है इसलिए सरकारों से अपेक्षा करता है कि इन मुद्दों पर सख्ती बरती जाय। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और असाम से गुजरात तक आम आदमी यही सब चाहता है लेकिन जाने क्यों चुनाव आते आते अपना दिमाग राजनितिक दलों की बांसुरी की बेसुरी तान पर हाईजैक करा बैठता है। जरूरत इस ट्रेंड को बदलने की है।
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