भारत क्यों छटपटा रहा है

आज मनस-पटल पर एक प्रश्न चिह्न अंकित होने लगा कि आज भारत क्यों छटपटा रहा है।विचारों के थपेङे जैसे-जैसे मस्तिष्क की भीत पर चोट करने लगे।भावनाओं के महलों की नींव हिलने लगी थी।और भावनाऍ शब्दों का रूप लेकर बहने के लिए तत्पर हो उठी।और इसी सैलाब मेम डूबते-तिरते मैने देखा कि आज हम भारतीय विदेशों का गुणगान करते हैं।और अपने देश का नाम आते ही मुंह बिचकाकर बङे स्टाइल से कहते हैं-”ब्लडी शिट! कुछ नहीं होने वाला इस देश का “ऐसा कहते एक क्षण को भी हमेम लज्जा का अनुभव नहीं होता।यदि यह देश ब्लडी शिट है तो यहॉ क्यों इस अपशिष्ट पदार्थ को खाने के लिए रुके हो ?यदि यही प्रश्न कर लिया जाये तो कोई उत्तर न मिलेगा परंतु कोई ये प्रश्न ही नहीं करता। सैकङों मन  अनाज  सङ गया  और किसान  आत्महत्या कर  रहे हैं।पिज्जा बीस मिनट में आता है और एम्बूलेंस दो घंटे में भी नहीं पहुंचती ।एक सिपाही को शहीद होने पर एक लाख और एक  हीरो को एक फिल्म  के  लिए  एक करोङ मिलते  हैं।ब्लॉग और लेखों में ऐसी बातें लिखकर हलचल जरूर मचाई जाती है पर वास्तव में देश की तस्वीर बदलने को कौन तैयार है? आज जब हम देश को,इसकी व्यवस्था को कोसते हैं तो उस समय हमें खुद को कोसना चाहिए क्योंकि देश तो हमसे ही बना है हम ही तो हैं जो बिजली चोरी से लेकर टैक्स चोरी तक करते है।हम ही तो हें जो लोगों को उत्कोच लेकर काम करने के लिए प्रेरित करते हैं ।वो हम ही तो हैं जो घर को साफ करके कूढा सङक पर फेंकते हैं।अपने घर की आधा फिट जमीन बढाने के लिए गली को आधा फिट छोटा कर देते हैं।वो हम ही हैं जो आपदा पीङितों के हिस्से की राहत डकार जाते हैं ।सरकार को रात-दिन कोसने वाले कितने बुद्धिजीवी भरी दोपहरी में अपने ए.सी. महलों से निकलकर मतदान करने जाते हैं?जब हम सरकार बनाने में अपने हिस्से का परिश्रम नहीं कर सकते तो सरकार से अपने लिए मेहनत की परिश्रम करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ?कितने लोग है जो अपने इलाके के  ईमानदार   व्यक्ति को चुनने के लिए प्रतिबद्ध हैं।और कितने ऐसे हैं जो अपने  कार्यक्षेत्र में पूर्ण  ईमानदारी बरतते हैं ? कितने  ऐसे हैं जो अन्याय के विरुद्ध  उठ खङे होते  हैं,शायद कोई नहीं क्योंकि हमें पहले अपनी और अपनों की सुरक्षा की चिंता रहती है देश की नहीं।हम अप्ने बच्चों को डिज्नीलैंड के मिकी-माउस और डोनाल्ड डक से तो बचपन में ही परिचित करा देते हैं पर राणा प्रताप या भगत सिंह के बारे में बताना जरूरी नहीं समझते।और यदि कोई भूल से भी उनके बारे में बताने का प्रयास भी करता है तो समाज की छोङिए उसके अपने परिवार वाले ही उसे पागल,सनकी जैसे विशेषणों से पुकारने लगते हैं ।यदि कोई परंपरा या संस्कृति के विषय में बात करता है तो उसे पिछ्ङा या संकुचित विचारधारा का कहा जाता है।जाति ,धर्म के विषधर तो पहले ही हमें डस रहे थे अब प्रांतीयता ,भाषा के गिद्ध भी हमारी एकता को नोंच-नोंच कर खा रहे है।हमारे रहनुमा ये विषबेल बोकर हमारे बीच आग लगा रहे हैं और उस ऑच पर अपनी सियासत की रोटी सेंक रहे हैं और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस आग को भङका रहा है।अपनी टी.आर.पी. बढाने के लिए कितने ही रियल्टी शो भाषा और प्रांत के आधार पर प्रतियोगियों को आमने-सामने कर देते है और हम लोग बिना बुद्धि का प्रयोग करे प्रांतों और भाषा के आधार पर बंट  जाते है ।जाति और धर्म के आधार पर लङने लगते हैं और मीडिया को एक और मसाला मिल जाता है अपना चैनल चलाने का।आजकल भ्रष्टाचार और बलात्कार दो ऐसे विषय मीडिया को मिले हुए हैं।रोज कोई न कोई मुद्दा उठाए रहते हैं बगैर ये सोचे कि इससे देश की छवि का क्या होगा? मै ये नहीं कहत कि दोशों से पर्दा नहीं हटाया जाये उन्हेम छिपाया जाए बल्कि मेरा मानने ये है इन कमियों पर प्रहार सनसनी फैलाने के लिए ये मुद्दे न उठाए जाऍ।हम दूसरों पर उंगली उठाने से पहले अपनी तरफ भी देखें ।हर कदम को उठानेसे पहलें सोचें कि इससे देश का क्या भला होगा? अगर हम एक कदम भी देश के लिए सोचकर बढाऍगे तो ये देश हजार कदम आगे बढ जाएगा।आलीशान कोठियों वाले जिस दिन तङपते मजदूर की मदद के लिए दौङ्ने लगेंगे देश दौङने लगेगा।जिस दिन हम अपने घर से सिर्फ एक रोटी किसी भूखे को देंगे उस दिन मेरे देश में भूख से तङपकर आत्महत्या करनेवाला कोई नहीं होगा।जब हम अपने तन से पहले वतन के बारे में सोचेंगे तब इस देश का मुकाबला करने वाला कोई नहीं होगा।जब हम अपनी संस्कृति ,अपनी परंपरा अपनी संतान को संस्कार रूप में देने
देने में गर्व का अनुभव करेंगे उस दिन हम पाऍगे कि ये देश’ ब्लडी शिट नहीं ’ ‘सोने की चिङिया ’है।
धीरे-धीरे मेरी ऑखों ने एक और नजारा देखा कि दूर तक सुनहली फसल खङी है जिसमें चुनरी लहराती एक छोटी सी बच्ची खङी है जिसके मन में कोख में मारे जाने का डर नहीं जिसे अपने ही परिजनों से छले जाने का भय नहीं जो अपने सुनहरे भविष्य के प्रति आश्वस्त है मेरे सामने मुट्ठी खोलती है और उसकी हथेली पर एक सोने का सिक्का चमक रहा है।सोने का सिक्का -मेरे देश की समॄद्धि का सिक्का।और अचानक जैसे चेहरे बढ्ने लगे……किसानों के चेहरे….मजदूरों के चेहरे……दफ्तर के बाबुओं के चेहरे……शिक्षकों और नेताओं के चेहरे……अधिकारियों ….और उद्योगपतियों के चेहरे……हर चेहरे पर एक ही संकल्प था भारत को ‘अतुल्य भारत’ बनाने का।हाथ से हाथ मिलने लगे थे।और अचानक मेरी ऑख खुल गई।…….हॉ ,इस स्वप्न को पूरा करने के लिए जागना जरूरी है।………………….ऐ मेरे वतन के लोगों   जाग जाओ……

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