लम्हों का सफ़र
1...
जिसको चाहा वो चला गया ,
2...
अकेला था अकेला ही रह गया ।
व़ो एक हँसी जिसको कभी न समेट पाया ,
एक दिन अचानक बिछड़ के फिर न मिल पाया ,
वरना मिलने वालो को बिछड़ बिछड़ के मिलता पाया ।
कहाँ उनका रास्ता था और कहाँ रास्ता मेरा ,
कहीं किसी चौराहे रास्तों को मिलते न पाया ,
बिछड़ कर हर चेहरे एक चेहरा मे खोजता हूँ अब ,
भीड़ मे खुद को जब भी पाया तो तन्हा ही पाया ।
2...
बदलता रहा कलेंडर के पन्ने सालभर ,
3...
बदला नहीं गम का मौसम सुबह शाम रात भर।
बाँटने के शौक मे क्या क्या न बँटा जमीन पर,
देश बँटे ,लोग बँटे,वक़्त तक बँटा कलेंडर पर ।
कितने सारे लोग आये हमदर्द बताकर ,
मौका पाकर ले गए कलेडर से सपनो को नोंच कर ।
सच का टोकरा लिए बैठे रहे हम कलेंडर पर ,
बिक गए दुनिया के सारे झूठ वक़्त के बाजार पर ।
बदलते साल की खुशियों मे डूबा है ये शहर ,
किसी ने देखा भूखे बचपन को ठिठुरते फुटपाथ पर ।
3...
आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा ,
कब तक चलूँगा ईमान रास्ते पर कभी तो भटक ही जाऊँगा ।
लड़ता रहूँगा ताउम्र सच की खातिर,
जब पेट पर आयेगी तो बहक भी जाऊँगा ,
आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा ।
कब चलता रहूँगा सूने रास्तों पर ,
कभी तो किसी बेईमान दुपहिये पर लटक ही जाऊँगा ,
आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा ।
कभी तो किसी बेईमान दुपहिये पर लटक ही जाऊँगा ,
आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा ।
चटकते सब है चटकूँगा मै भी पर ,
दो चार को आईना दिखा ही जाऊँगा ,
आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा । 4,,,, पेड़ो पर भी उगने लगे है पैसे देखो खेल सियासत के कैसे कैसे ,
दो चार को आईना दिखा ही जाऊँगा ,
आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा । 4,,,, पेड़ो पर भी उगने लगे है पैसे देखो खेल सियासत के कैसे कैसे ,
बेचते रहते है ईमान सरेआम है लोग कैसे कैसे |
बन गए लफंदर हमारे आका वोट बिके जैसे जैसे ,
जो बिके नहीं वो टिके है यहाँ वहाँ जैसे तैसे |
पेड़ो पर भी उगने लगे है पैसे देखो खेल सियासत के कैसे कैसे ,
बच्चे न रहे न माँये न रही ,दंगे हुए कैसे कैसे |
सियासी लोग हँसते रहे सर कटे जैसे जैसे ,
दंगाई भगवान बने राम बचे जैसे तैसे |
पेड़ो पर भी उगने लगे है पैसे देखो खेल सियासत के कैसे कैसे ,
जीरो भी न गिन पाए लोग घोटाले हुए कैसे कैसे
5... बदलता कुछ भी नहीं
डर वही है जो सदियों पूर्व थे |
म्रत्यु के, भूख के, लाज के
आज भी मारे जाते है लोग
ईश्वर के नाम पर |
बदलता कुछ भी नहीं
लूट नहीं लूट के तरीके बदलते है |
नित जुड़ते है नए आयाम लूटशास्त्र में
चहेरे बदलते है, शासको के महत्वाकांछाये नहीं
बदलते है तानाशाही के तरीके प्रजातंत्र के नाम पर |
बदलता कुछ भी नहीं
देह नहीं बदलती, देह के दर्द नहीं बदलते |
देह खाती है साँस लेती है सोती है आज भी
आज भी देह बिकती है , इन्सान की
आज भी रोती है ,माँये पुत्रविलाप मे
आज भी बिकते है इमान, सरे बाजार पर |

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