प्रेम
अधूरेपन को प्रेम मानना कितना सही है?...............
छोटी-सी इस ज़िंदगी में कइयों ने प्रेम किया होगा; कई प्रेम कर नहीं पाए होंगे, पर उसकी आकांक्षा में भटकते रहे हों, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। संभव है कि कई ऐसे हुए हों, जिन्हें लगता रहा उम्रभर कि वे प्रेम करते हैं, पर असलियत यह थी कि प्रेम के नाम किसी भ्रम का शिकार बनते रहे और ज़िंदगी में असल प्रेम से कभी सामना ही नहीं हुआ। प्रेम पर जब भी बातें होती हैं तो यह कहने वाले बहुतेरे मिल जाते हैं कि प्रेम चर्चा का विषय नहीं है, इसकी तो बस अनुभूति ही संभव है और चूंकि सबकी अनुभूति अलग-अलग है, इसलिए सबके लिए प्रेम का अर्थ भी एक नहीं हो सकता है। इस धारणा से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं। यह तर्क मूल विषय से पलायन का तर्क है।
सच तो यह है कि प्रेम के कई चरण होते हैं और किसी एक चरण को अकेले में ही संपूर्ण प्रेम मान लेने की गलतियां लोग अमूमन करते फिरते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि प्रेम जीवन का इतना अहम हिस्सा है कि उसकी एक झलक मात्र ही जीवन में परिपूर्णता का अहसास देने लगती है। लोग समग्रता में इसे समझे बिना ही इसके बहाव में बह जाते हैं। जीवन अगर नदी है तो प्रेम इस नदी की धारा है। इस धारा में तैरने की कला, जो सीख लेता है, जीते-जी उसकी स्वर्ग की इच्छा पूरी हो जाती है। ... लेकिन आप अगर इस धारा में तैर नहीं पाए और बहाव में बहते चले गए तो फिर जीवन वैसा ही होगा, जैसे कोई नाव बिना पतवार या नाविक के बही जा रही हो, जिसमें न अपने चलने की कोई इच्छा का पता हो और न रुकने पर ही कोई नियंत्रण।
प्रेम का पहला चरण है – जीवन में संवेदनशीलता और समझदारी होना। समझदारी इस बात कि कि प्रेम हासिल करने या किसी तरह के अहंबोध का नाम नहीं है। प्रेम समर्पण भी नहीं है। यह प्रेम-पात्र के साथ सहअस्तित्व की योजना व कार्यान्वयन है। अपने अंदर के प्रेम की अदम्य इच्छा को समझ सकने की क्षमता सबमें नहीं होती, लोग बस बेकल हुआ करते हैं। हमारे समाज में प्रेम और अहंकार का घालमेल देखने को बहुत मिलता है। यह प्रेम पर फिल्मों का असर है। इस घालमेल का एक और कारण है। प्रेम करने की इच्छा का जन्म व्यक्ति के अंदर समाए उस मूल-प्रश्न से ही होता है कि हमारे जीवन का कुल औचित्य क्या है। इसका जबाव जीवन को तीन दिशाओं में ले जा सकता है। अव्वल यह होता है कि लोग अपनी महत्ता को स्थापित कर अहंकार से भर जाते हैं। नहीं तो भगवद्भक्ति की ओर चले जाते हैं या नशे के चंगुल में बुरी तरह फंस जाते हैं। इस अहम सवाल से उबरने का तीसरा तरीका प्रेम है। प्रेम के जरिए लोग जीवन में अर्थ भरने की कोशिश करते हैं और उसका असल औचित्य खोजते हैं। तो कहना यह है कि प्रेम और अहंकार का जन्म एक ही मूल-प्रश्न से होता है, पर समझदारी व संवेदना वे तत्व हैं, जो अहंकार के बदले प्रेम के चयन की दिशा की ओर इंसान को आगे बढ़ाती हैं।
जिंदगी में प्रेम को जीने के लिए प्रेम के मूल-भाव को समझने की जरूरत है। प्रेम की लालसा का केंद्रीय मतलब है जीवन के कोरे कैनवास पर रंग भरना। रंग सृजनशीलता को द्योतक हैं और सुंदरता का भी। प्रेम के जरिए हम ज़िंदगी को सृजनशील व सुंदर बनाते हैं, जो कि अकेले में कभी संभव नहीं होता। सृजन वही महत्वपूर्ण है, जो दूसरों को भी सृजन की प्रक्रिया में शामिल करे। प्रेम में मन किसी भी प्रकार के नकारात्मक भावों से दूर रहता है और जहां कहीं भी नकारात्मकता का कोई अंश-मात्र आता दिखता है, प्रेम इसके खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा का भी नाम है।
प्रेम के भाव को जानने के बाद भी जरूरी नहीं है कि प्रेम आपके जीवन में साकार हो ही। संवेदनशीलता और समझदारी के साथ यह निराकार रूप में आपके साथ जरूर रहेगा। प्रेम को साकार करने से आशय है, सही साथी की तलाश, जिसके सामने आप अपने प्रेम को अभिव्यक्त कर सकें। बिना साथी के प्रेम का मतलब सिर्फ प्रेम की तलाश है। इस तलाश पर लंबी बात हो सकती है। किसी प्रेम संबंध में पड़ने से पहले या इसके टूट जाने से बाद प्रेम कहीं नहीं रहता। प्रेम तभी तक पूर्ण है, जब तक आप पूर्णता के साथ अपने साथी के संग हैं और उनके साथ आपकी सृजनशीलता का विकास हो रहा हो। अन्यथा, इससे इतर की सारी प्रक्रियाएं प्रेम की विविध अपूर्ण चरणों से अधिक कुछ भी नहीं है। ... और जो अपूर्ण है, उसका शोक कैसा?
छोटी-सी इस ज़िंदगी में कइयों ने प्रेम किया होगा; कई प्रेम कर नहीं पाए होंगे, पर उसकी आकांक्षा में भटकते रहे हों, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। संभव है कि कई ऐसे हुए हों, जिन्हें लगता रहा उम्रभर कि वे प्रेम करते हैं, पर असलियत यह थी कि प्रेम के नाम किसी भ्रम का शिकार बनते रहे और ज़िंदगी में असल प्रेम से कभी सामना ही नहीं हुआ। प्रेम पर जब भी बातें होती हैं तो यह कहने वाले बहुतेरे मिल जाते हैं कि प्रेम चर्चा का विषय नहीं है, इसकी तो बस अनुभूति ही संभव है और चूंकि सबकी अनुभूति अलग-अलग है, इसलिए सबके लिए प्रेम का अर्थ भी एक नहीं हो सकता है। इस धारणा से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं। यह तर्क मूल विषय से पलायन का तर्क है।
सच तो यह है कि प्रेम के कई चरण होते हैं और किसी एक चरण को अकेले में ही संपूर्ण प्रेम मान लेने की गलतियां लोग अमूमन करते फिरते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि प्रेम जीवन का इतना अहम हिस्सा है कि उसकी एक झलक मात्र ही जीवन में परिपूर्णता का अहसास देने लगती है। लोग समग्रता में इसे समझे बिना ही इसके बहाव में बह जाते हैं। जीवन अगर नदी है तो प्रेम इस नदी की धारा है। इस धारा में तैरने की कला, जो सीख लेता है, जीते-जी उसकी स्वर्ग की इच्छा पूरी हो जाती है। ... लेकिन आप अगर इस धारा में तैर नहीं पाए और बहाव में बहते चले गए तो फिर जीवन वैसा ही होगा, जैसे कोई नाव बिना पतवार या नाविक के बही जा रही हो, जिसमें न अपने चलने की कोई इच्छा का पता हो और न रुकने पर ही कोई नियंत्रण।
प्रेम का पहला चरण है – जीवन में संवेदनशीलता और समझदारी होना। समझदारी इस बात कि कि प्रेम हासिल करने या किसी तरह के अहंबोध का नाम नहीं है। प्रेम समर्पण भी नहीं है। यह प्रेम-पात्र के साथ सहअस्तित्व की योजना व कार्यान्वयन है। अपने अंदर के प्रेम की अदम्य इच्छा को समझ सकने की क्षमता सबमें नहीं होती, लोग बस बेकल हुआ करते हैं। हमारे समाज में प्रेम और अहंकार का घालमेल देखने को बहुत मिलता है। यह प्रेम पर फिल्मों का असर है। इस घालमेल का एक और कारण है। प्रेम करने की इच्छा का जन्म व्यक्ति के अंदर समाए उस मूल-प्रश्न से ही होता है कि हमारे जीवन का कुल औचित्य क्या है। इसका जबाव जीवन को तीन दिशाओं में ले जा सकता है। अव्वल यह होता है कि लोग अपनी महत्ता को स्थापित कर अहंकार से भर जाते हैं। नहीं तो भगवद्भक्ति की ओर चले जाते हैं या नशे के चंगुल में बुरी तरह फंस जाते हैं। इस अहम सवाल से उबरने का तीसरा तरीका प्रेम है। प्रेम के जरिए लोग जीवन में अर्थ भरने की कोशिश करते हैं और उसका असल औचित्य खोजते हैं। तो कहना यह है कि प्रेम और अहंकार का जन्म एक ही मूल-प्रश्न से होता है, पर समझदारी व संवेदना वे तत्व हैं, जो अहंकार के बदले प्रेम के चयन की दिशा की ओर इंसान को आगे बढ़ाती हैं।
जिंदगी में प्रेम को जीने के लिए प्रेम के मूल-भाव को समझने की जरूरत है। प्रेम की लालसा का केंद्रीय मतलब है जीवन के कोरे कैनवास पर रंग भरना। रंग सृजनशीलता को द्योतक हैं और सुंदरता का भी। प्रेम के जरिए हम ज़िंदगी को सृजनशील व सुंदर बनाते हैं, जो कि अकेले में कभी संभव नहीं होता। सृजन वही महत्वपूर्ण है, जो दूसरों को भी सृजन की प्रक्रिया में शामिल करे। प्रेम में मन किसी भी प्रकार के नकारात्मक भावों से दूर रहता है और जहां कहीं भी नकारात्मकता का कोई अंश-मात्र आता दिखता है, प्रेम इसके खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा का भी नाम है।
प्रेम के भाव को जानने के बाद भी जरूरी नहीं है कि प्रेम आपके जीवन में साकार हो ही। संवेदनशीलता और समझदारी के साथ यह निराकार रूप में आपके साथ जरूर रहेगा। प्रेम को साकार करने से आशय है, सही साथी की तलाश, जिसके सामने आप अपने प्रेम को अभिव्यक्त कर सकें। बिना साथी के प्रेम का मतलब सिर्फ प्रेम की तलाश है। इस तलाश पर लंबी बात हो सकती है। किसी प्रेम संबंध में पड़ने से पहले या इसके टूट जाने से बाद प्रेम कहीं नहीं रहता। प्रेम तभी तक पूर्ण है, जब तक आप पूर्णता के साथ अपने साथी के संग हैं और उनके साथ आपकी सृजनशीलता का विकास हो रहा हो। अन्यथा, इससे इतर की सारी प्रक्रियाएं प्रेम की विविध अपूर्ण चरणों से अधिक कुछ भी नहीं है। ... और जो अपूर्ण है, उसका शोक कैसा?
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