दिल्ली कि गुड़िया
एक बार एक बच्ची ने अपने पिता से कहा- पापा मुझे राक्षस से डर लगता है, वे कैसे होते हैं? क्या वे मुझे खा जाएंगे? पापा ने डरी हुई बच्ची के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा कि डरने की कोई जरूरत नहीं है बेटी, आज के युग में राक्षस नहीं होते। अब यही बेटी अपने पापा से पूछ रही है कि अगर इस युग में राक्षस नहीं हैं तो कैसे एक 5 साल की मासूम बच्ची को बलात्कार का दर्द सहना पड़ता है? एक मासूम के साथ ऐसी दरिंदगी तो शायद राक्षस भी नहीं दिखाते।
तो क्या सच में आज का इंसान राक्षस से भी बदतर हो गया है? उस मासूम के साथ हुए दर्दनाक हादसे के बाद अपने आस-पास के लोगों के इंसान होने का भ्रम टूटता है। दरअसल, इंसानी चोले में ये दरिंदे राक्षस हैं। जी नहीं, शायद ऐसे लोगों के लिए कहीं और भी ज्यादा शर्मनाक विशेषण की जरूरत पड़ेगी।
अजीब देश है हमारा। साल में नवरात्रि के 18 दिन शक्ति की स्वरूप मां दुर्गा की पूजा इतने धूम-धाम से की जाती है। लेकिन वास्तविकता में लोग उनका ही रूप माने जाने वाली महिलाओं के साथ जानवरों से भी गया-गुजरा सलूक करते हैं। सिर्फ बलात्कार नहीं करते बल्कि ऐसी पाशविकता दिखाते हैं कि रूह कांप जाए। हमने महिलाओं को देवी का दर्जा तो दे दिया लेकिन हकीकत में थोड़ा-सा सम्मान नहीं दे पाए। कितना अच्छा होता अगर मंदिरों में देवी मां की तस्वीरों की पूजा करने के बजाए वही दर्जा और सम्मान हम अपने आसपास की महिलाओं को दे देते तो यह देश खुद-बखुद स्वर्ग बन जाता।
सिर्फ रेप ही क्यों, इस देश में औरत की नियति ही पुरुष के जुर्म सहने की अंतहीन दास्तां है। कभी दहेज का दानव उन्हें निगलता है। कभी हिंसा का शिकार होती हैं। शारीरिक हिंसा तो दिख जाती है लेकिन उस मानसिक हिंसा का क्या जो उसे हर कदम और जीवन भर सहनी पड़ती है। मां की कोख में आने से लेकर शुरू हुआ दोयम बर्ताव जीवन की आखिरी सांस तक औरत के साथ चलता है। इस दोयम व्यवहार के बाद भी अपने हर कर्तव्यों को जीवन के हर कदम पर निभाने की औरत की खूबी उसे सच में देवी बना देती है।
काश कि हम अपने आस-पास की इन असली देवियों के त्याग और कर्तव्य को पहचान लेते तो हमें मंदिरों में उसे खोजने की जरूरत नहीं पड़ती। सम्मान देना तो दूर अब तो स्थितयां इतनी बदतर हो चली हैं कि मासूम बच्चियां तक नहीं सुरक्षित रह गई हैं। किसी समाज का इससे ज्यादा नैतिक पतन क्या हो सकता है कि एक मासूम के साथ इस कदर हिंसा दिखाई जाए।
शुरुआत तो करनी पड़ेगी। इसकी शुरुआत औरतों के प्रति हमारी सोच बदलकर ही हो सकता है। सिर्फ बेटे की रट लगाना बंद कीजिए। हो सके तो बेटियों को भी बेटों के बराबर दर्जा दीजिए। बेटी का जन्म मातम में न बदले बल्कि जश्न का अहसास बने।
महिलाओं को कमजोर मानना बंद कीजिए। उन को पुरुष पर आश्रित बनाने की सोच को बदलिए। सबसे बड़ी बात बेटों को हर महिला का आदर करना सिखाइए। महिला को सिर्फ वासना की वस्तु समझने की सोच को कुचल डालिए। इससे पहले कि रेप हमारे लिए सिर्फ एक खबर बनकर रह जाए वासना के इस दानव का अंत निहायत ही जरूरी है। लेकिन वह बच्ची पापा से दिल्ली की एक मासूम बच्ची के साथ हुए इस शर्मनाक हादसे के बाद कह रही है कि पापा, भगवान से यही दुआ करना कि अगले जन्म मोहे बिटिया ना कीजो। 2.......
सदियों से यही सब होता चला आ रहा है। दिल्ली गैंग रेप के बाद जो माहौल बना था, उससे लगा था कि शायद कुछ बदलाव आएगा। लेकिन यह उम्मीद बेमानी साबित हुई। बच्चे हमेशा से ईजी टारगेट रहे हैं, लेकिन अब जब महिलाओं ने भी अत्याचारों और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठा दी है, वे अपने हक के लिए खड़ी होने लगी हैं तो बच्चों पर आ गए। अब क्या हम बच्चों को भी उनके बचपन में यह सिखाएं बैठाकर कि 'बेटा तुम्हें कोई यहां छुए तो यह पैपर स्प्रे जो तुम्हारे बैग में रखा है इसे उसकी आंखों में झोंक देना।'?
तो क्या सच में आज का इंसान राक्षस से भी बदतर हो गया है? उस मासूम के साथ हुए दर्दनाक हादसे के बाद अपने आस-पास के लोगों के इंसान होने का भ्रम टूटता है। दरअसल, इंसानी चोले में ये दरिंदे राक्षस हैं। जी नहीं, शायद ऐसे लोगों के लिए कहीं और भी ज्यादा शर्मनाक विशेषण की जरूरत पड़ेगी।
अजीब देश है हमारा। साल में नवरात्रि के 18 दिन शक्ति की स्वरूप मां दुर्गा की पूजा इतने धूम-धाम से की जाती है। लेकिन वास्तविकता में लोग उनका ही रूप माने जाने वाली महिलाओं के साथ जानवरों से भी गया-गुजरा सलूक करते हैं। सिर्फ बलात्कार नहीं करते बल्कि ऐसी पाशविकता दिखाते हैं कि रूह कांप जाए। हमने महिलाओं को देवी का दर्जा तो दे दिया लेकिन हकीकत में थोड़ा-सा सम्मान नहीं दे पाए। कितना अच्छा होता अगर मंदिरों में देवी मां की तस्वीरों की पूजा करने के बजाए वही दर्जा और सम्मान हम अपने आसपास की महिलाओं को दे देते तो यह देश खुद-बखुद स्वर्ग बन जाता।
सिर्फ रेप ही क्यों, इस देश में औरत की नियति ही पुरुष के जुर्म सहने की अंतहीन दास्तां है। कभी दहेज का दानव उन्हें निगलता है। कभी हिंसा का शिकार होती हैं। शारीरिक हिंसा तो दिख जाती है लेकिन उस मानसिक हिंसा का क्या जो उसे हर कदम और जीवन भर सहनी पड़ती है। मां की कोख में आने से लेकर शुरू हुआ दोयम बर्ताव जीवन की आखिरी सांस तक औरत के साथ चलता है। इस दोयम व्यवहार के बाद भी अपने हर कर्तव्यों को जीवन के हर कदम पर निभाने की औरत की खूबी उसे सच में देवी बना देती है।
काश कि हम अपने आस-पास की इन असली देवियों के त्याग और कर्तव्य को पहचान लेते तो हमें मंदिरों में उसे खोजने की जरूरत नहीं पड़ती। सम्मान देना तो दूर अब तो स्थितयां इतनी बदतर हो चली हैं कि मासूम बच्चियां तक नहीं सुरक्षित रह गई हैं। किसी समाज का इससे ज्यादा नैतिक पतन क्या हो सकता है कि एक मासूम के साथ इस कदर हिंसा दिखाई जाए।
शुरुआत तो करनी पड़ेगी। इसकी शुरुआत औरतों के प्रति हमारी सोच बदलकर ही हो सकता है। सिर्फ बेटे की रट लगाना बंद कीजिए। हो सके तो बेटियों को भी बेटों के बराबर दर्जा दीजिए। बेटी का जन्म मातम में न बदले बल्कि जश्न का अहसास बने।
महिलाओं को कमजोर मानना बंद कीजिए। उन को पुरुष पर आश्रित बनाने की सोच को बदलिए। सबसे बड़ी बात बेटों को हर महिला का आदर करना सिखाइए। महिला को सिर्फ वासना की वस्तु समझने की सोच को कुचल डालिए। इससे पहले कि रेप हमारे लिए सिर्फ एक खबर बनकर रह जाए वासना के इस दानव का अंत निहायत ही जरूरी है। लेकिन वह बच्ची पापा से दिल्ली की एक मासूम बच्ची के साथ हुए इस शर्मनाक हादसे के बाद कह रही है कि पापा, भगवान से यही दुआ करना कि अगले जन्म मोहे बिटिया ना कीजो। 2.......
5 साल की उस मासूम बच्ची के साथ जो कुछ हुआ, उसे हैवानियत कहना भी हैवान को ज़लील करने जैसा होगा। पहले महिलाएं और अब बच्चे। इतना तो तय है कि समाज का वल्नरेबल तबका निशाने पर है। कल तक हम महिला सुरक्षा बिल के लिए लड़ रहे थे, लेकिन क्या अब बाल सुरक्षा कानून को रीव्यू करने पर भी बहस छेड़ेंगे?
सदियों से यही सब होता चला आ रहा है। दिल्ली गैंग रेप के बाद जो माहौल बना था, उससे लगा था कि शायद कुछ बदलाव आएगा। लेकिन यह उम्मीद बेमानी साबित हुई। बच्चे हमेशा से ईजी टारगेट रहे हैं, लेकिन अब जब महिलाओं ने भी अत्याचारों और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठा दी है, वे अपने हक के लिए खड़ी होने लगी हैं तो बच्चों पर आ गए। अब क्या हम बच्चों को भी उनके बचपन में यह सिखाएं बैठाकर कि 'बेटा तुम्हें कोई यहां छुए तो यह पैपर स्प्रे जो तुम्हारे बैग में रखा है इसे उसकी आंखों में झोंक देना।'?
फांसी देने से क्या इसका इलाज हो जाएगा? हम कहां जा रहे हैं? क्या कर रहे हैं? पहले रामसिंह के लिए फांसी मांगी, अब इस दरिंदे के लिए फांसी मांग रहे हैं। लेकिन क्या इन्हें फांसी मिलने से समाज को सही दिशा मिल जाएगी? क्या सबकुछ ठीक हो जाएगा? क्यों आज हमारे बीच इतने फासले हो गए हैं कि हमें पड़ोसी का बच्चा बच्चा दिखाई नहीं देता? क्यों हम खुद में इतने खो गए हैं कि अपने, अपनी इच्छाओं के और अपनी जरूरतों के अलावा सब चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं?
मैंने पहले भी कहा है कि शुरुआत खुद से कीजिए। सार आज भी यही है। हां, आज दिन के 24 घंटे भी हमें कम लगते हैं। क्या करें, वर्क प्रेशर ही इतना है। लेकिन जरा उन 24 घंटों में से 5 मिनट निकालकर सोचिए कि यह समाज क्या हमारा ही परिवार नहीं है? बेशक अपने आस-पड़ोस में बैठकर घंटों गप्पे मत मारिए लेकिन घर से निकलते वक्त कम से कम एक दूसरे को देखकर 2 सेकंड की मुस्कान तो दीजिए। ज़रा-ज़रा से झगड़े को इज़्ज़त का सवाल बनाना छोड़ कर देखिए। झुकने को कमज़ोरी मानना बंद कीजिए। पेशंस से काम लीजिए। क्या पता कुछ हल निकल आए।
रही बात इस हैवानियत के विरोध की। विरोध ज़रूरी है। बिल्कुल ज़रूरी है। होना भी चाहिए। लेकिन हाथ जोड़कर निवेदन है कि इसे पिकनिक का बहाना या 'हट के' टाइप इवेंट मानकर वहां मत पहुंचिए। सड़कें जाम मत कीजिए। खंभों पर लटक कर या अराजकता फैलाकर कुछ नहीं मिलेगा। पब्लिक इंट्रस्ट लिटिगेशन्स, राइट टु इन्फर्मेशन, राइट टु रीकॉल, एफआईआर दर्ज कराना... ये सब ब्रह्मास्त्र जो देश की व्यवस्था आपको देती है, उनका सही और पूरा इस्तेमाल कीजिए। यह सच है कि वक्त लगेगा। क्या करें, भ्रष्टाचार हमारी जड़ों में जो घुस गया है। लेकिन कोई भी बड़ा और स्थायी बदलाव मिनटों में नहीं आता।
70 साल होने आए हमें भटकते-भटकते। अब स्थायी समाधान ढूंढना जरूरी है।
.3...... ..
क्या इनके लिये विशेष प्रावधान करके इन्हे खत्म नही किया जा सकता... सरकार अपने काले कारनामो और लूटमारी और फायदे के मद्देनज़रके लिये तो मन चाहे कानूनों मे फेर बदल करती ही रहती है.... एक काम प्रोपकार का ही सही... किसी को तो न्याय मिलेगा.... और हां वो 'उस' नाबालिग के बारे मे भी ऐसा ही कुछ कर दें तो समूचे देश ही नही पूरी दुनिया दुआ देगी.... दुनिया भर के "इंसानो" की नज़रें आज भारत पर ही टिकी हैं... विरोध मे दुनिया की औरतों ने भारत आना केन्सल करती जा रही हैं.... कानून तो अपना काम करेगा ही... थोड़ा सा कुछ तो आप भी करें... लोकतंत्र का म्तलब ये कदापि नही होता कि कोई आपकी मारता रहे और आप मर्वाते जाएं... तुम्हारे भाषनो से भी कुछ नही होता कि "तुम भी बेटियों के बाप हो"... अरे मुख्य तो ये है कर क्या रहे हो...??.. अरे कुछ तो ग़ैरत लाओ.... रही तुम लोगों की बेटियों की बात ... तो बाबू वे तो सुरक्षित हैं.... यहाँ चिंता बेसहारा आम आदमी और उसके परिवार की है... तुम्हारी नही....
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