सही दोस्त
फ़ुरसत में हूं।
कभी-कभी जब फ़ुरसत में होता हूं, तो चिन्तन-मनन की प्रक्रिया चल पड़ती है। आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। आस-पास हमें हर दूसरा आदमी यह कहता हुआ मिल जाता है कि दुनिया बड़ी स्वार्थी है। ... और साथ में यह भी जोड़ देते हैं कि सच्चे दोस्त नहीं मिलते। भले ही अपने-आप में लाख कमी हो, दोस्तों में प्रायः दो गुण अवश्य ढूँढते हैं, एक मार्गदर्शक और दूसरा राज़दार! जब कभी भी हम मुसीबत में हों, किसी दोराहे पर अटक गए हों, तो वह हमें सही रास्ता सुझाए और जो व्यक्तिगत या विशेष योजना बने या जो बातें हम आपस में बांटें, उसे अपने तक ही सीमित रखे। कुल मिलाकर वह मेरी कमियों को भी दिखाए और हमारे साथ भी चले।
दुनिया की भीड़ में कौन सही दोस्त है, कौन नहीं, इसकी तलाश चलती रहती है। आज फुरसत में हम भी एक कोशिश करके देख ही लेते हैं। काफ़ी सोच-विचार के बाद, अब सही दोस्त की तलाश में निकलने को हम और हमारा मन उद्यत हैं। बस अभी निकलने को ही थे कि एक एस.एम.एस. आता है। ‘इनबॉक्स’ में जाकर उसे देखता हूं। लिखा है –
“दुनिया में कभी सही दोस्त की तलाश में बाहर मत निकलना ... चूँकि आजकल गर्मी प्रचंड है और मैं घर के अंदर ए.सी. चलाकर बैठा होता हूं।”
सोचता हूँ – “हुंह! कैसे-कैसे लोग! कैसी-कैसी बातें!!” मैं एस.एम.एस. डिलिट करके बाहर निकल पड़ता हूं। मेरे साथ मेरा मन भी चल पड़ता है और शुरू होती है हमारी तलाश भी। सही और सच्चे दोस्त की तलाश।
लोग मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं। हम निर्णय करने में देर करते रहते हैं। दिल कहता है - यही सही है, मन कहता है - सही निर्णय पर पहुंचने के लिए समय चाहिए। इसी वाद-विवाद के बीच, हम मन की सुन लेते हैं। अब मन तो मनमौजी है - भटकता रहता है और जब अटकता है – देर हो चुकी होती है। तब तक सही निर्णय भी ग़लत हो जाता है। सही निर्णय, सही समय पर न लिया जाए, तो सही होते हुए भी ग़लत हो जाता है। ऐसे में देर से लिया गया सही निर्णय भी किसी काम का नहीं रहता।
कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में कहा है, “सर्वज्ञस्यप्येकाकिनो निर्णयाभ्युपगमो दोषाय” अर्थात्अकेला व्यक्ति यदि सर्वज्ञ भी हो तो भी उसके निर्णय में दोष हो ही जाता है। अकेले तो मैं भी हूं। अकेले होने पर निर्णायक भी खुद ही बनना पड़ता है।
आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने पुनर्नवा में कहा है, “निर्णायक को पांच दोषों से बचना चाहिए – राग, लोभ, भय, द्वेष और एकान्त में वादियों की बातें सुनना।” इनमें से सारे ही दोष हममें विराजमान हैं और एक हम हैं, सोचते हैं कि - हम जो चाहते हैं – मन जो चाहता है - वह नहीं होता। हां, यह सच है कि मेरा मनचाहा कभी भी नहीं होता। आखिर ऐसा क्यों होता है?
हम चाहते हैं कि सब कुछ परफेक्ट हो, हमारे मन मुताबिक। मगर ऐसा होता नहीं। होने को कुछ और हो जाता है - पर वो नहीं होता जो हम चाहते हैं। फलतः हम स्व-निर्धारित व्यवस्था और मनोनुसार जीवन जी नहीं पाते।
जीवन में ऊँच-नीच, तो लगी ही रहती है। दाएं-बाएं, और आगे-पीछे भी। मनोनुसार जीवन नहीं चलता। इसका चलना-न-चलना हमारे हाथ में होता भी नहीं। लेकिन हम अपने जीवन में कुछ परफेक्ट मोमेंट्स भर तो सकते ही हैं। कुछ पंक्तियां याद आती हैं -
कैनवास पर तस्वीरें बनाने चला था
भरा रंग उस पर, मुझे जो मिला था
पर हुआ वही, जो था नसीब में होना
रीता रहा मेरे जीवन का कोई कोना
चलो ढूंढ़ें एकांत अपने लिए
जहां बना सकें वह तस्वीर मनचाही।
दुर्भाग्य, ऐसा हुआ नहीं, हर-बार तस्वीर अधूरी रह गई। आज फिर ऐसी किसी जगह की तलाश आ गया हूं।
एकांत और मौन है मेरे पास।
चहुं ओर पसरा मौन
मुझे मेरे करीब लाता है
मेरा स्वर निकल कर नयन से
मेरे मन में प्रवेश पाता है
मौन मन को भाता है
जग – जीवन से प्यार गहराता है।
इस एकांत में एक दिव्य-ज्योति दिखती है। एक आकृति जो हज़ार रंग लिए है – कुछ कहती है – अस्पष्ट – धुंधले मन पर वह अंकित होता है --- “तू करता है वह – जो तू चाहता है और होता वह है – जो मैं चाहता हूं!”
--- हां – हां – हां ... ... पर क्या करूं ?
-- “तू वो कर जो मैं चाहता हूं, फिर वह होगा जो तू चाहता है।”
***
आकृति अब नहीं है। वह शून्य में विलीन हो गई है।
अहा! आज जो मेरी एटर्नल-जर्नी हुई .. वह बहुत ही अच्छी रही। इस जर्नी से एक मोरल ऑफ द स्टोरी तो मिली ही मुझे –
“दिन में एक बार अपने आप से बात कर ही लेनी चाहिए, नहीं तो हम दुनिया के सबसे अच्छे दोस्त के मिलने का अवसर गंवा बैठते हैं।”
- फ़ुरसत में आज अपने से मिला – मुझे मेरा सही दोस्त मिल गया!
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