आधुनिक लोकतांत्रिक-गणतंत्रीय सोच
26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय
दिवसों को होली-दिवाली-ईद की तरह क्यों नहीं मनाया जाता? इन राष्ट्रीय
दिवसों को लोग उन त्यौहारों की तरह क्यों नहीं मनाते, जिनसे पूरा समाज और
उसकी इकाई यानी कि हर व्यक्ति जुडता सा प्रतीत होता है? महीने भर पहले से
जो उत्साह आम जनता के स्तर पर सामाजिक और सामुदायिक त्यौहारों के प्रति
दिखता है वो पहल, लगाव, अपनत्व और जिजीविषा इन राष्ट्रीय दिवसों के प्रति
क्यों नहीं? ऐसा क्यों है कि ये राष्ट्रीय दिवस 365 दिनों में बस एक दिन
आकर चले जाते हैं? हम इनके साथ सामाजिक स्तर पर वैसा तादात्म्य क्यों नहीं
स्थापित कर पाते, जैसा कि महाराष्ट्र में गणेशोत्सव, बिहार-उत्तर प्रदेश
में सूर्य पूजा या छठ, मकर संक्रांति, पंजाब में लोहडी और दक्षिण में पोंगल
के साथ रिश्तों की आम लेकिन सघन बुनावट देखने को मिलती है?
दिलचस्प है कि ये सभी सामाजिक-सांस्कृतिक
त्यौहार भी जनता के स्तर पर रचे-बसे हैं, जिनमें क्षेत्रीय स्तरों पर आम
शिरकत भी जबर्दस्त होती है, लेकिन हमारा गणतंत्र, जो याद दिलाता है कि आज
के ही दिन भारतीय संविधान लागू हुआ था, जिसकी प्रस्तावना का वाक्य ही ’हम
भारत के लोग...' से शुरू होता है, जिसे जनता के दम पर ही गणतंत्र या
रिपब्लिक कहा जाता है, उसके प्रतीक दिवस पर जनसंवेदना में ऐसा अंतर क्यों?
तो क्या हमारी राष्ट्रीय चेतना कहीं कमजोर हो रही है...? ऐसे अनेक सवाल
जेहन में उठने स्वाभाविक हैं. माना कि राजधानी दिल्ली में आकर्षक परेड होती
है. पूरे राष्ट्र की बहुलवादी लोकतांत्रिक संस्कृति की झांकी भी राजपथ पर
जुलूस की शक्ल में दिखती है. देश की सैन्य शक्ति का भी भव्य प्रदर्शन होता
है. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेशी मेहमानों समेत सभी अतिविशिष्ट लोग
इस सरकारी कार्यक्रम में शरीक होते हैं. थोडा संक्षिप्त लेकिन इसी तर्ज पर
प्रदेश की राजधानियों में भी सरकारी कार्यक्रम होते हैं. देश भर के स्कूलों
में भी पारंपरिक परेड होती है, जहां बच्चों को शामिल किया जाता है. लेकिन
ये सब होता है बस कुछ घंटे के लिए ही, आम जनता के स्तर पर क्या होता है?
खेत-खलिहान, सडक-पगडंडी, बाजार-चौराहों पर जहां दिवाली के पटाखे फूटते हैं,
होली के रंग चलते हैं, गुलाल उड़ता है, फाग छिड़ती है, ईद में गले मिलते
हैं, जन्माष्टमी में हांडी फूटती है, दशहरे पर अनगिनत जगह रावण मरता है -
वहां सन्नाटा क्यों है, राष्ट्रीय जश्न मनाने में जनता परहेज करती सी
क्यों लगती है? कहीं रिपब्लिक डे में ’पब्लिक' और गणतंत्र दिवस में ’गण'
पीछे तो नहीं छूट रहा?
ऐसे सवालों का जेहन में उठना इसलिए भी
स्वाभाविक है क्योंकि देश-समाज बदल रहा है. बाजार का वैश्विक दौर है.
दुनिया छोटी होकर गांव की शक्ल ले रही है. लेकिन क्षेत्रीय संदर्भ अपनी
विशिष्ट पहचान को लेकर सजग हैं. वे समाज, राजनीति, संस्कृति, विकास सभी
स्तरों पर नई करवट ले रहे हैं. तो क्या वैश्विकता और क्षेत्रीयता के बीच
राष्ट्रीय संदर्भ का ताप कम हो रहा है? यह मुद्दा बहस का विषय हो सकता है
लेकिन एक वास्तविकता ये तो है ही कि गांधी-नेहरू की रहनुमाई में आमजन के
संघर्ष की आग में तपे-बढे़ आजादी के आंदोलन के मूल्यों-संस्कारों के आधुनिक
संदर्भ और परिवेश बदल रहे हैं. इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि आज न
तो कोई ऐसा राष्ट्रीय राजनीतिक दल है और न ही कोई ऐसा राष्ट्रीय अखबार
जिसकी धमक पूरे देश में महसूस की जाती हो - ये बापू का जमाना नहीं है जो
किसी आश्रम से भी चंद पंक्तियां लिखकर पूरे देश को एकजुट कर सकते थे. इस
बदलते परिदृश्य में जब युवाओं की लगभग आधी से ज्यादा आबादी वाला ’युवा
भारत' आने वाले समय में ’महाशक्ति' बनने को तैयार है, हमें अपनी राष्ट्रीय
धरोहर, जडों से भटकने की प्रवृत्ति से बचना होगा, क्योंकि यही
लोकतांत्रिक-बहुलवादी संस्कृति ही हमारी राष्ट्रीय पूंजी है, चेतना है.
कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से असम तक भले ही आज 28 राज्य और 7 केंद्र
शासित प्रदेश हों, लेकिन हमें हमेशा याद रखना है कि हिंदुस्तान के इस
गुलदस्ते में डेढ़ हजार से ज्यादा भाषाएं और बोलियां हैं, लगभग साढे़ छह
हजार जातियां हैं, ढाई दर्जन प्रमुख त्यौहार हैं - और इन सभी विभिन्नताओं
के बीच हम एक हैं. यही अनेकता में एकता हमारी ताकत है, थाती है.
इन विभिन्नताओं के बीच हमारी एकजुटता जहां
हमारी पूंजी है, वहीं ये विभिन्नताएं हमारी खूबसूरती. यही हमारे
हिंदुस्तानी गुलदस्ते के हर फूल की अलग महक और विशिष्ट पहचान भी. आज जरूरत
है बेहतर समन्वय और समग्र दृष्टिबोध की. एक खास बात यह भी है कि हमारे सभी
सामाजिक त्यौहारों का एक सांस्कृतिक-पौराणिक संदर्भ है जो कहीं न कहीं
व्यापक संदर्भों में आधुनिकता से भी जुड़ता है. ठीक इसी तरह हमारी आधुनिक
लोकतांत्रिक-गणतंत्रीय सोच को भी भारत की हजारों साल की मध्यमार्गी
जनतंत्रीय दृष्टि से जोड़ने की जरूरत है. साथ ही सरकार के समानांतर आमजन के
स्तर पर राष्ट्रीय दिवसों को मनाने की पहल होनी चाहिए, भले ही ऐसे प्रयास
छोटे ही क्यों न हों. इससे हमारे राष्ट्रीय दिवस ही नहीं, सारा
राष्ट्रीय कलेवर और भी ज्यादा गणतंत्रीय मूल्यों-संस्कारों-सरोकारों से
संपन्न हो सकेगा. क्षेत्रीय ताने-बाने और वैश्विकता के ध्रुवों के बेहतर
जुड़ाव का माध्यम हमारी राष्ट्रीय चेतना और भारत के वे सांस्कृतिक मूल्य
ही हो सकते हैं - जो गांधी के तीन शब्द ’करो या मरो' से पूरे देश को एकजुट
कर देते हैं, तिलक के गणेशोत्सव कार्यक्रम नवसांस्कृतिक आभा का संचार करते
हैं और शिकागो के मंच पर विवेकानंद ’भाइयों और बहनों' संबोधन के बाद सारी
दुनिया को वेदांत के संदेश से चमत्कृत और मंत्रमुग्ध कर देते हैं. तो ये है
हमारी ताकत, जिसे कोई सांप्रदायिक, क्षेत्रीय, जातीय, विभाजनकारी या कोई
दकियानूसी ताकत कभी तोड़ नहीं सकती. यही हमारी हजारों साल की पूंजी
’आध्यात्मिक शक्ति' भी है, जिसे खुद को साबित करने के लिए किसी लाल चौक पर
झंडा फहरा कर कोई अग्निपरीक्षा देने की आवश्यकता नहीं है. ये वो
राष्ट्रीयता है जो लाल किले की प्राचीर से भी उतनी ही सहजता से प्रकट होती
है, जितनी किसी सुदूर अंचल के खेत-खलिहान या पगडंडी से. बस इस शाश्वत
भावना को फिर से पुनर्जीवित और आत्मसात करने की आवश्यकता है, तभी हम हर उस
धुंधलके को मिटा पाने में सफल होंगे, जो यदाकदा प्रश्नचिह्न बन के हमारे
राष्ट्रीय मानस को कुरेदने की चेष्टा करते हैं.
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