हरिवंश राय बच्चन
1... जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमजोरी थी,
जितना ज्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
2.. जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई।।
3...
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को
किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से
अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
दोनों करके पछताता हूँ,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूँ,
सुधियों के बंधन से कैसे
अपने को आज़ाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
4...
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
उज़ाड़ से लगा चुका उम्मीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की, बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका, उमीद मैं तुषार की
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!
5...
अकारण ही मैं नही उदास।
अपने में ही सिकुड़ सिमट कर
जी लेने का बीता अवसर
जब अपना सुख दुख था अपना ही उछाह उच्छ्वास।
अकारण ही मैं नहीं उदास।
अब अपनी सीमा में बँधकर
देश काल से बचना दुष्कर
यह सम्भव था कभी नही पर सम्भव था विश्वास।
अकारण ही मैं नही उदास।
एक सुनहले चित्र पटल पर
दाग़ लगाने में है तत्पर
अपने उच्छृंखल हाथों से उत्पाती इतिहास।
अकारण ही मैं नही उदास।
6,,, मधुशाला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमजोरी थी,
जितना ज्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
2.. जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई।।
3...
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को
किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से
अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
दोनों करके पछताता हूँ,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूँ,
सुधियों के बंधन से कैसे
अपने को आज़ाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
4...
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
उज़ाड़ से लगा चुका उम्मीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की, बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका, उमीद मैं तुषार की
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!
5...
अकारण ही मैं नही उदास।
अपने में ही सिकुड़ सिमट कर
जी लेने का बीता अवसर
जब अपना सुख दुख था अपना ही उछाह उच्छ्वास।
अकारण ही मैं नहीं उदास।
अब अपनी सीमा में बँधकर
देश काल से बचना दुष्कर
यह सम्भव था कभी नही पर सम्भव था विश्वास।
अकारण ही मैं नही उदास।
एक सुनहले चित्र पटल पर
दाग़ लगाने में है तत्पर
अपने उच्छृंखल हाथों से उत्पाती इतिहास।
अकारण ही मैं नही उदास।
6,,, मधुशाला
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला \-२ किस पथ से जाऊँ, असमंजस में है वो भोला भाला अलग अलग पथ बतलाते सब, अलग अलग पथ बतलाते सब, पर मैं ये बतलाता हूँ राह पकड़ तू एक चला चल, पा जायेगा मधुशाला पा जायेगा मधुशाला
सुन कल कल, छल छल, मधुघट से गिरती प्यालों में हाला सुन कल कल, छल छल कल कल, छल छल, मधुघट से गिरती प्यालों में हाला सुन रुनझुन रुनझुन जल वितरण, करती मधु साक़ी बाला बस आ पहुँचे, दूर नहीं बस आ पहुँचे, दूर नहीं, कुछ चार कदम अब चलना है चहक रहे सुन पीनेवाले, महक रही ले मधुशाला चहक रहे सुन पीनेवाले, महक रही ले मधुशाला लाल सुरा की धार लपट सी, कह न इसे देना ज्वाला कह न इसे देना ज्वाला फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का हाला दर्द नशा है इस मदिरा का, दर्द नशा है इस मदिरा का, विगत स्मृतियां साक़ी है पीड़ा में आनन्द जिसे हो, आये मेरी मधुशाला पीड़ा में आनन्द जिसे हो, आये मेरी मधुशाला धर्मग्रंथ सब जला चुकी है, धर्मग्रंथ सब जला चुकी है, जिसके अन्तर की ज्वाला मन्दिर मसजिद गिरिजे सब को, तोड़ चुका जो मतवाला पण्डित मोमिन पादरियों के फन्दों को जो काट चुका कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला लालाइत अधरों से जिसने हाय नहीं चूमी हाला हर्श विकँपित करसे जिसने हाय न छुआ मधु का प्याला हाथ पकड़ लज्जित साक़ी का, हाथ पकड़ लज्जित साक़ी का, पास नहीं जिसने खींचा पास नहीं जिसने खींचा व्यर्थ सुखा डाली जीवन की, उसने मधुमय मधुशाला व्यर्थ सुखा डाली जीवन की, उसने मधुमय मधुशाला बने पुजारी, प्रेमी साक़ी, गंगाजल पावन हारा रहे फेरता, अविरत गति से मधु के प्यालों की माला और लिये जा, और पिये जा और लिये जा, और पिये जा, इसी मंत्र का जाप करे मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूँ, मन्दिर हो ये मधुशाला मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूँ, मन्दिर हो ये मधुशाला एक बरस में, एक बार ही, जगती होली की ज्वाला एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला दुनिया वालों किन्तु किसी दिन आ मदिरालय में देखो आ मदिरालय में देखो दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला अधरों पर हो कोई भी रस, जीव्हा पर लगती हाला भाजन हो कोई हाथों में, लगता रख्खा है प्याला हर सूरत, साक़ी की सूरत हर सूरत, साक़ी की सूरत, मैं परिवर्तित हो जाती आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कंचन का प्याला छलक रही है, छलक रही है छलक रही है जिसमे माणिक रूप मधुर मादक हाला मैं ही साक़ी बनता मैं ही पीने वाअला बनता हूँ पीने वाअला बनता हूँ जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम, वहीं गयी हो मधुशाला जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम, वहीं गयी हो मधुशाला दो दिन ही मधु मुझे पिला कर, ख़ूब उठी साक़ी बाला दो दिन ही मधु मुझे पिला कर, ख़ूब उठी साक़ी बाला भर कर अब खिसका देती है, वह मेरे आगे प्याला नाज़ अदा अन्दाज़ों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ अब तो कर देती है केवल, फ़र्ज़\-अदाई मधुशाला अब तो कर देती है केवल, फ़र्ज़\-अदाई मधुशाला अब तो कर देती है केवल, फ़र्ज़\-अदाई मधुशाला फ़र्ज़\-अदाई मधुशाला छोटे से जीवन में कितना प्यार करूं, पी लूं हाला छोटे से जीवन में कितना प्यार करूं, पी लूं हाला आने के ही साथ जगत में, आने के ही आने के ही साथ जगत में, कहलाया जानेवाला स्वागत के ही साथ विदा की, स्वागत के ही साथ विदा की, होती देखो तैयारी बन्द लगी होने खुलते ही, बन्द लगी होने खुलते ही, मेरी जीवन मधुशाला मेरी जीवन मधुशाला शान्त सकी हो, अब तक साक़ी शान्त सकी हो, अब तक साक़ी पी कर किस उर की ज्वाला और और की रटन लगाता, और और की रटन लगाता, जाता हर पीने वाला कितनी इच्छायें हर्जाने वाला, छोड़ यहाँ जाता कितने अरमानों की बन कर कब्र खड़ी है मधुशाला कित्ने अर्मानोण कि बन कर कब्र खडि है मधुशल यम आयेगा साक़ी बन कर, साथ लिये काली हाला यम आयेगा साक़ी बन कर, साथ लिये काली हाला पी, न होश में फिर आयेगा, सुरा\-विसुध यह मतवाला यह अन्तिम बेहोशी, अन्तिम साक़ी, अन्तिम प्याला है पथिक, प्यार से पीना इसको, पथिक, प्यार से पीना इसको, फिर न मिलेगी मधुशाला फिर न मिलेगी मधुशाला गिरती जाती है दिन प्रतिदिन प्रनयणी प्राणों की हाला भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदिन सुभगे मेरा तन प्याला रूठ रहा है मुझसे रूपसि, दिन दिन यौवन का साक़ी, सूख रही है दिन दिन सुन्दरी सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला मेरी जीवन मधुशाला ढलक रही हो तन के घट से, संअगिनी जब जीवन हाला, पात्र गरल का ले जब अन्तिम साक़ी हो आनेवाला हाथ\-परस भूले प्याले का \-२ हाथ\-परस भूले प्याले का, स्वाद\-सुरा जीव्हा भूले, कानो में तुम कहती रहना कानो में तुम कहती रहना मधुकण प्याला मधुशाला \-२ मेरे अधरों पर हो अन्तिम, वस्तु न तुलसिडल प्याला मेरी जीव्हा पर हो अन्तिम, वस्तु न गंगाजल हाला मेरे शव के पीछे चलने वालों, याद इसे रखना राम नाम है सत्य न कहना \-२ कहना सच्ची मधुशाला \-२ मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आँसूं में हाला आह भरे वह, जो हो सुर्भित मदिरा पी कर मतवाला दे मुझको वे कंधा जिनके पग मद डगमग होते हों और जलूं उस थोर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला और जलूं उस थोर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला और चिता पर जाये उंड़ेला पात्र न घ्रिट का, पर प्याला खांट बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला प्राण प्रीये यदि श्रार्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना पीने वालों को बुलवा कर, खुलवा देना मधुशाला पीने वालों को बुलवा कर, खुलवा देना मधुशाला नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला काम धालाना, और धालाना सब्को मदिरा क प्याला जाति प्रीये, जाति प्रीये पूछे यदि कोई, कह देना दीवानों की धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला पितृ पक्ष में पुत्र उथाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में हाला किसी जगह की मिट्टी भीगे, त्रिप्ती मुझे मिल जाएगी तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला ..

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