नानक दुखिया सब संसार’
वास्तव में सभी संसार में सुख और दुःख से
ही परिचलित हो रहे हैं । जिसे देखो वही सुख चाहता है, सभी दुःख से बचना
चाहते हैं । मैं भी दुःख से बचना चाहता हूँ और सदैव सुखी रहना चाहता हूँ ।
सुख पाने और दुःख से बचने का सभी प्रयत्न करते हैं । किन्तु कितने लोग सफल
हो पाते हैं? हाँ, इस फेर में पड़ कर कभी सुखी तो कभी दुखी अवश्य होते रहते
हैं । कुछ लोग कहते हैं यही जीवन का चक्र है । सुख-दुःख तो जिन्दगी की
गाड़ी के दो पहिये हैं, इनसे बचना असम्भव है ।
मेरी चिन्ता ये नहीं है कि जीवन में सुख
या दुःख क्यों होते हैं । मेरी चिन्ता ये है कि जीवन में सुख की अपेक्षा
दुःख अधिक क्यों हैं? क्या जीवन में हम उतना ही सुख पाते हैं जितना कि दुःख
। अधिकांश लोग तो यही कहते हैं कि जीवन में दुःख अधिक हैं । इस विषय में
मुझे गुरु नानक की बात ज्यादा सच्ची लगती है नानक दुखिया सब संसार ।
मैं किसी डॉक्टर, वकील या ज्योतिषी के पास देखता हूँ, कोई भी सुखी आदमी
नहीं आता । कोई शरीर से दुखी है तो कोई किसी के द्वारा किए गए अन्याय से
दुखी है और ज्योतिषियों के पास जो लोग आते हैं उनके दुःखों की तो कोई गिनती
ही नहीं की जा सकती । कोई इसलिये दुखी है कि संतान नहीं होती और कोई
इसलिये दुखी है कि संतान तो है मगर बहुत दुःख दे रही है । कोई इसलिये दुखी
है कि विवाह नहीं हो पा रहा और कोई इसलिये दुखी है कि तलाक नहीं हो रहा ।
कोई दुखी है कि पैसा नहीं है, कोई दुखी है कि पैसा बहुत है । कोई दुखी है
कि उस पर मकान नहीं है, कोई इसलिये दुखी है कि कई मकान हैं मगर उन की
देख-भाल नहीं हो पा रही । किसी के मकान पर किसी ने कब्जा कर लिया है तो
किसी को मकान का कब्जा नहीं मिल पा रहा । अकेले मकान को ही लेकर लोगों के
अनगिनत दुख हैं । किसी पर मकान की मरम्मत कराने के लिए पैसे नहीं हैं ।
किसी का मकान इतना छोटा है कि गुजर नहीं हो पा रही तो किसी का मकान इतना
बड़ा है कि उस में उसका मन नहीं लग रहा, अकेलापन अनुभव हो रहा है । किसी का
दुःख है कि कोई उसकी बात नहीं पूछता । किसी को दुःख है कि उससे कोई खाने
तक की पूछने वाला नहीं है और कोई दुखी है कि लोग हर समय उससे खाने की ही
पूछते रहते हैं । किसी को दुःख है कि किसी काम के लिये समय ही नहीं मिलता,
किसी का दुःख है कि उसका समय नहीं कट रहा । बेटा दुखी है कि बाप उसकी नहीं
सुनता और बाप दुखी है कि बेटा उसकी कोई बात नहीं मानता । किसी को दुःख है
कि पूजा में मन नहीं लगता और किसी का दुःख है कि जब पूजा में मन लग जाता है
तो बहुत बख्त लग जाता है और ऑफ़िस के लिए देर हो जाती है । कहने का मतलब
है कि कोई किसी वज़ह से दुखी है तो कोई किसी वज़ह से । कोईकोई तो इसलिये
दुखी रहते हैं कि दूसरे सुखी क्यों हैं । यहाँ तक कि कोई-कोई तो दुःख से
बचने की चिन्ता में दुखी हुए जा रहे हैं । जो भी हो नानक दुखिया सब संसार ।
मैं सोचता हूँ कि क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि कोई दुखी ही न हो । मगर ऐसा हो नहीं पा रहा । बड़े-बड़े साधू-सन्त,
समाज-उद्धारक और बहुत सी संस्थाएँ वर्षों से लोगों के दुःख दूर करने के लिए
प्रयत्नशील हैं । लेकिन लोगों के दुःख हैं कि दूर ही नहीं हो रहे । ये सब
एक दुःख दूर करते हैं, लोगों के आगे दूसरा दुःख आ कर खड़ा हो जाता है ।
आखिर लोगों को सुखी बनाने की ये कोशिशें सफल क्यों नहीं हो पा रहीं । सच्ची
बात तो यह है कि लोग सुखी होना ही नहीं चाहते । लोगों को दुखी होने में
मज़ा आता है और दुखी होने के लिए लोग नए-नए बहाने खोजते हैं । सुखी होने
में लोगों मज़ा ही नहीं आता । किसी पर कोई संकट आता है और वह दुखी होता है
तो यह बात समझ में आती है । मगर मनुष्य को दुख में मज़ा लेने की ऐसी लत लगी
है कि कोई संकट न होने पर भी संकट की कल्पना करके दुखी होता है । एक सज्जन
इसलिये दुखी थे कि उनके मरने के बाद उनकी सम्पत्ति का क्या होगा ? कभी
सोचते कि बच्चे उसे बरबाद कर देगें, कभी सोचते कि उनका पड़ौसी उस पर कब्जा
कर लेगा; उनके बच्चे तो बेवकूफ़ हैं, वे उसकी रक्षा नहीं कर सकते । मूल बात
ये कि तरह-तरह की कल्पना करते और दुखी होते । अरे भाई ! क्यों दुखी होते
हो ? मरने के बाद तुम तो उसे देखने आ नहीं सकते । तुम्हें तो पता भी नहीं
लगेगा कि तुम्हारे बाद उस सम्पत्ति का क्या हुआ । तुम्हारे सामने बरबाद हो
तो चलो कुछ बात भी है । मगर मरने के बाद, ये तो कोई बात नहीं हुई । तो कहते
हैं कि मैंने बड़ी मेहनत से इकट्ठी की थी, बड़े जतन से सँभाल कर रखी थी ।
बात ठीक है । किन्तु क्या इसलिए इकट्ठी की थी कि आज उसके बारे में सोच-सोच
कर दुखी होओ । मैंने तो सुना था कि तुमने वह अपने सुख के लिए इकट्ठी की थी,
फिर दुखी क्यों हो ? वो आज भी इकट्ठी है उसे देख कर सुख क्यों नहीं महसूस
करते ? इन बातों से क्या यह नहीं लगता कि आदमी को दुखी होने का कोई न कोई
बहाना चाहिये । प्रायः देखा जाता है कि जब हमारे पास १० जगह से विवाह के
निमन्त्रण आते हैं तो हम सब जगह नहीं जाते । विभिन्न कारणों से कुछ में ही
जा पाते हैं । किन्तु लोग प्रयत्न करते हैं कि मृत्यु की सूचनाएँ जहाँ-जहाँ
से मिली हैं, उन सभी जगह जाँय । यह भी देखा जाता है कि जब लोग विवाह वाले
घर में पहुँचते हैं तो वहाँ पहुँचते ही चेहरा खिलता नहीं है । मगर मृत्यु
वाले घर में पहुँचते ही चेहरा लटक अवश्य जाता है । विवाह वाले घर में सब
नाच रहे होते हैं और आगन्तुक को भी हाथ पकड़ कर नाचने के लिए आग्रह करते
हैं किन्तु आगन्तुक नाचने को तैयार नहीं होता । वही आगन्तुक मृत्यु वाले घर
में जहाँ सब रो रहे होते हैं, बिना आग्रह के रोने लगता है ।
अक्सर देखा जाता है कि किसी दुखद बात को
कभी-कभी सोचते ही चले जाते हैं, उस पर सोचना बन्द नहीं करना चाहते और दुखी
होते रहते हैं । कभी-कभी तो कई-कई रात सोते नहीं । कभी- कभी दिन में भी
सोचते रहते हैं । वस्तुतः दुखी रहने में एक तरह का मज़ा आने लगता है । यह
भी देखा जाता है कि प्रायः नए-नए कविता लिखने वाले, अपने कवि जीवन की
शुरुआत दुख भरी कविताओं से ही करते हैं । यह भी देखने में आता है कि आदमी एक दूसरे के सुख की अपेक्षा दुःख से अधिक
प्रभावित होते हैं । एक दूसरे के सुख की अपेक्षा एक दूसरे का दुःख अधिक
बाँटते हैं । एकदूसरे की खुशी में शामिल होने की अपेक्षा दुःख में शामिल
अधिक होते हैं । इसी का परिणाम है कि बहुत से लोग दूसरों के नकली दुःख पर
तरस खाने लगते हैं, उनकी न्याय बुद्धि नष्ट हो जाती है और धोखा खा जाते हैं
। नकली दुःख प्रकट करके साधू का घोड़ा ठग कर ले जाने की कहानी तो सभी
जानते हैं । ऐसे ठगों की कहानियों से अखबार भरे रहते हैं । दुःख अपना हो या
दूसरे का, मनुष्य के विवेक को नष्ट कर देता है । इसी से स्ट्रैस और
डिप्रैशन उत्पन्न होते हैं ।
दुखी होने वालों में प्रायः एक मजेदार बात
पाई जाती है कि वे उनके पास जो कुछ है उसे देख कर प्रसन्न नहीं होते अपितु
उनके पास जो नहीं है, उसके बारे में सोच-सोच कर दुखी अवश्य होते हैं ।
मानव जीवन के लिए सर्वाधिक आवश्यक पदार्थ वायु है । इसके बिना पाँच-दस मिनट
भी ज़िन्दा नहीं रहा जा सकता । ईश्वर की यह कृपा ही है कि वह वायु
जहाँ-जहाँ मानव जीवन है, वहाँ सर्वत्र उपलब्ध है । उसको पाने के लिए कोई धन
नहीं खर्च करना पड़ता और न ही कोई प्रयत्न करना पड़ता है । इस क्रम में
वायु से कम आवश्यक पदार्थ पानी है । इसके बिना दो-तीन दिन रहा जा सकता है ।
अतः वह सर्वत्र न हो कर केवल दो तिहाई धरती पर ही है । उसे पाने के लिए
प्रयत्न और कदाचित् धन भी खर्च करना पड़ता है । इसी प्रकार क्रमशः भोजन,
वस्त्र और फिर घर; एक से एक कम आवश्यक हैं । इस क्रम में अगर हम सोचते चले
जाँय तो अनुभव में आता है कि जो वस्तु जितनी कम आवश्यक है वह उतनी ही
प्रयत्न साध्य है तथा जो वस्तु जितनी अधिक प्रयत्न साध्य या दुर्लभ है उतनी
ही मानव जीवन के लिए अनावश्यक भी है । किन्तु मनुष्य है कि जो वस्तु उसके
लिए जितनी आवश्यक, अस्तु सहज उपलब्ध है उसको पाकर वह प्रसन्न नहीं होता और न
उसे पाकर ई?र को धन्यवाद ही देता है किन्तु जो वस्तु जितनी कष्ट साध्य या
असाध्य है, उसके न मिलने पर उतना ही दुखी रहता है । मनुष्य की समस्त
इच्छाएँ प्रायः ऐसी वस्तुओं के ही प्रति होती हैं जो कष्ट साध्य या महँगी
हैं । अतः मनुष्य की रुचियाँ भी सर्वाधिक महँगी और कष्ट साध्य वस्तुओं के
प्रति ही अधिक देखी जाती हैं । फलतः लोगों को विदेशी उत्पाद, महँगी
साडियाँ, बड़े होटल में ठहरना, बड़ा घर, विदेशी भोजन, अधिक फ़ीस लेने वाले
डॉक्टर, अधिक दक्षिणा वसूलने वाले पण्डित, जिनके पास समय का अभाव हो, अस्तु
जिनसे मिलना कठिन हो ऐसे धर्म गुरु, वकील, अभिनेता, नेता आदि अच्छे और
श्रेष्ठ लगते हैं । मजे की बात है कि जो सोना जीवित रहने के लिए बिल्कुल
आवश्यक नहीं है, उसे पाने के लिए, मनुष्य हर समय बेचैन रहता है । जो जीवन
की परमावश्यकता है उस वायु की और पानी की शुद्धता के प्रति जो मनुष्य तनिक
भी सतर्क नहीं रहता, वही मनुष्य सोना एक दम खरा और शुद्ध चाहता है । कैसी
विडम्बना है ? आज मनुष्य ऐसे ही पदार्थों को इकट्ठा करना जीवन का लक्ष्य
मान बैठा है जो अपेक्षाकृत दुर्लभ अस्तु अनावश्यक हैं । यही कारण है कि सभी
को अपनी कमीज़ से दूसरे की कमीज़ अधिक उजली दिख रही है । अपनी थाली का भात
अच्छा नहीं लग रहा पराई थाली का भात अच्छा लग रहा है । अपनी पत्नी से
दूसरे की पत्नी अधिक सुन्दर लगती है । जब तक मनुष्य की ऐसी सोच रहेगी, जब
तक मनुष्य घर की खाँड़ छोड़ कर बाहर के गुड़ के पीछे भागता रहेगा । मनुष्य
दुखी ही रहेगा । यही उसकी नियति है ।
मेरी स्पष्ट धारणा है कि आनन्द मनुष्य की
स्वाभाविक अनुभूति है, सुख या दुःख तो ऊपर से ओढ़ी हुई बुद्धि जन्य
अनुभूतियाँ हैं । प्रायः लोग जिस समय किसी के द्वारा कही गई दुखद बात को
अथवा किसी दुखद घटना या व्यवहार को सोच-सोच कर दुखी हो रहे होते हैं, उस
समय उनकी तन्मयता योगियों से भी अधिक होती है । मनुष्य सोचता है और सोचता
रहता है और घण्टों तथा कभी-कभी तो कई-कई रात तक सोचता रहता है, यहाँ तक कि
दिन में भी काम करते-करते भी उस विषय में ही सोचता रहता है । फलतः दुखी
होने का तार नहीं टूटता । सोचने के साथ-साथ दूसरों से भी उसी के और केवल
उसी के बारे में बात करते रहना चाहता है । कभी-कभी अकेले में सोचते-सोचते
रोने लगता है । सोचता है क्यों मेरे ही साथ ऐसा होता है ? और तो किसी के
साथ ऐसा नहीं होता । पता नहीं हमारे भाग्य में क्या लिखा है ? कैसे जीवन
चलेगा ? यह भी कोई जीवन है । इस जीवन से मर जाँय तो अच्छा है (कोई-कोई तो
आत्महत्या तक कर लेते हैं) । खैर, जो भी हो मनुष्य जिस समय सोच-सोच कर दुखी
हो रहा होता है, उस समय कोई मित्र आकर कोई मूवी देखने के लिए चलने का
आग्रह करे तो वह चिन्ताशील व्यक्ति उसके साथ नहीं जाता । कहता है कि तुम
चले जाओ मेरा चित्त ठिकाने नहीं है । अब सोचें कि वह उसके साथ क्यों नहीं
जाता ? स्पष्ट है कि अगर वह चला जायेगा तो चिन्ता के विषय से उसका ध्यान
बँट जायगा, चिन्ता में व्यवधान पड़ जायगा । व्यवधान पड़ेगा तो सोचना बन्द
हो जायगा । सोचना बन्द हो जायगा तो दुखी होना बन्द हो जायगा, और दुखी होने
में इतना आनन्द आ रहा होता है कि वह उसे छोड़ कर जाना नहीं चाहता । यह
आनन्द ही है जिसके कारण वह ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहता, जिससे उसका दुखी
होने का तार टूटे या आनन्द भंग हो । यह एक प्रकार की समाधि की अवस्था है
जिसमें वह, वह नहीं रहता; शुद्ध दुःख बन जाता है । दुःख से उसका यह
तादात्म्य ही उसे आनन्द की अनुभूति कराता है । सुख-दुःख तो कवि कल्पना की
भाँति मनुष्य की ही बुद्धि जन्य स्रष्टि हैं, जो उसके आनन्द का माध्यम बनते
हैं । किन्तु दुनिया में बहुत थोड़े लोग हैं जो सुख में अर्थात् दुःख के
अभाव में आनन्द की अनुभूति करते हैं । मैंने नहीं देखा कि कभी किसी को सुख
के मारे रात भर नींद न आती हो या किसी काम में मन न लगता हो । इस स्थिति
में तो देखा यह जाता है कि कोई उसे मूवी के लिए आग्रह नहीं करता मगर वह
सबसे मूवी देखने के लिए चलने का आग्रह करता है । कहता है चलो, आज मैं बड़ा
ख़ुश हूँ सब को मूवी दिखाऊँगा या पार्टी दूँगा । सब को निमन्त्रित करता है ।
और इस तरह अपनी ख़ुशी पर से तुरन्त अपना ध्यान बाँट देता है । उस ख़ुशी के
साथ उस का तार नहीं जुड़ पाता । किन्तु कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो दुःख
की बात पर भी दुखी नहीं होते अतः क्रोध की बात पर उन्हें दुःख जन्य क्रोध
भी नहीं आता । यह भी देखा जाता है कि ऐसे लोग ही समाज के सिरमौर बनते हैं ।
यहाँ एक बात समझ लेनी चाहिए कि दुःख में
आनन्द लेने वाले आजीवन दुखी ही रहते हैं और सुख में आनन्द लेने वाले जीवन
भर सुखी ही रहते हैं । क्यों कि सुख या दुःख चाहने से नहीं मिलते, आनन्द
लेने से मिलते हैं । आनन्द ही मनुष्य का मूल स्वभाव है । सुख-दुःख स्वभाव
नहीं, परभाव हैं, जो विचारों से उत्पन्न होते हैं । योग भ्रष्ट लोग अपने
स्वभाव- आनन्द तक पहुँचने के लिए सुख का सहारा लेते हैं । ये जब विभिन्न
प्रकार के पराक्रमों को करते-करते ऊब जाते हैं तब इन्हें तथाकथित सुखों की
व्यर्थता का बोध होता है । किन्तु सदैव दुःख में डूबे रहने वाले तो डूबे ही
रहते हैं । उन्हें दुःख के मिथ्यात्व का बोध तब बड़े कष्ट के साथ होता है,
जब दुःख से उबरने की चेष्टा में वह हर तरफ़ से निराश हो जाते हैं ।
अब प्रश्न उठता है कि क्या दुःख में डूबे
लोगों को दुःख से उबारा नहीं जा सकता ? मुझे लगता है कि यह बहुत आसान है ।
यदि वे उबरना चाहें तो । इसका आसान तरीका है-विषयान्तर । दुखोत्पादक विषय
के चिन्तन पर से ध्यान बाँटना या हटाना ही विषयान्तर है । इसके बहुत से
तरीके हो सकते हैं । कुछ तरीके तो दैनन्दिन व्यवहार में भी देखे जाते हैं ।
छोटा बच्चा जब रोता है तब हम उसे गोद में ले कर और आआआऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ करके
चुप करा देते हैं । वस्तुतः इस तरीके से, बच्चा जिस कारण से रो रहा होता
है, उस कारण पर से हम उसका ध्यान हटा देते हैं । मगर दुःख में आनन्द लेने
वाला व्यक्ति छोटा बच्चा नहीं होता । उस के दुःख के कारण रूप विषय पर से
ध्यान हटाने का कार्य गुरुजन करते आये हैं । गुरुजनों द्वारा इसके लिए भ्रम
निवारण से लेकर ई?राराधन और नाम जप आदि के अनेक मार्ग अपनाए जाते रहे हैं ।
इनमें श्रेष्ठतम मार्ग तो भ्रम निवारण और सत्य का ज्ञान कराना ही है ।
किन्तु यह मार्ग सभी के लिए उपयुक्त नहीं होता और भ्रम निवारण करने में भी
बहुत समय लगता है । अतः गुरुजनों के पास अति सरल और सहज उपलब्ध मार्ग है-
ईश्वर आराधन और नाम-जप । किन्तु आजकल के चतुर सुजानों के लिए ये दोनों ही
मार्ग कठिन हैं । उनको तो येनकेन प्रकारेण स्वयं ही अपना ध्यान भंग करना
पड़ेगा । ऐसे लोगों के लिए ध्यान के अभ्यास की अपेक्षा प्रत्याहार का
अभ्यास करना ही हित कर है । बहुत से लोग दुःख पर से अपना ध्यान बाँटने के
लिए पुस्तक पढ़ना या टी.बी. देखना प्रारम्भ कर देते हैं । किन्तु थोड़ी देर
में ही उसे यह कह कर बन्द कर देते हैं कि इस में भी मन नहीं लग रहा । ऐसे
लोगों से मेरा निवेदन है कि उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी कार्य
के संपादन में कुछ न कुछ समय अवश्य लगता है । जैसे आपकी ट्रैफ़िक में फँसी
या कीचड़ में धँसी कार को आप अपनी सम्पूर्ण जल्दबाजी के बावजूद तब तक कहीं
नहीं ले जा सकते, जब तक कि ट्रैफ़िक साफ़ न हो जाय या कीचड़ में से निकालने
के आपके साधन कारगर न हो जाँय । इस कार्य में समय लगता है । वैसे ही आपके
चिन्ता संकुल और थके हुए भारी मन को भी एक जगह से निकल कर दूसरी जगह
पहुँचने में समय लगता है । वह आप के हुकुम के मुताबिक वहाँ से नहीं निकल
सकता । वह वहाँ से धीरे-धीरे निकलेगा । मेरा अनुभव है कि एक सामान्य
व्यक्ति के चिन्ताकुल मन को अपने दुःख के विषय से हट कर किसी और साधन में
लगने के लिए कम से कम आधा घण्टा समय लगता है । इसीलिये नाम जप भी कम से कम
आधा घण्टा तक करना चाहिये । यहाँ ध्यान रहे कि यह समय इस बात पर निर्भर
करता है कि आप अपने दुःख के विषय-चिन्तन में कितना धँसे हुए हैं । अतः
ध्यान बाँटने के लिये जिस भी साधन से जुड़ें, उसके साथ कम से कम आधा घण्टा
तक जुड़े रहें, चाहे उसमें मन लगे या न लगे । इससे पहले उस को न छोड़ें ।
प्रायः देखने में आता है कि कोई सिनेमा देखते समय तुरन्त ही उसमें किसी की
तन्मयता नहीं हो जाती । कम से कम आधा घण्टा लगता है तन्मय होने में ।
इसलिये किसी जगह तन्मय हुए मन को दूसरी जगह तन्मय होने में आधा घण्टा से कम
समय कदापि नहीं लग सकता । इतना धैर्य तो रखना ही पड़ेगा । किन्तु जो योगी
हैं, अपनी मूल अनुभूति को पहचान कर उसी में डूबे रहते हैं; वे धैर्य,
सन्तोष आदि धर्म और यमों से बँधे होते हैं । उनकी बुद्धि दुःख उत्पन्न ही
नहीं करती । अतः दुःख का अभाव रूप सुख भी उन्हें नहीं छूता । वे तो निरन्तर
अपने आनन्द सागर में डूबते- उतराते रहते हैं ।
वस्तुतः मनुष्य अपने दुःखों का कारण स्वयं
ही है । अतः उनका निवारण भी वह स्वयं ही कर सकता है । किन्तु लोग यह
प्रयत्न ही नहीं करते और दुखी रहते हैं । इसलिये ’नानक दुखिया सब संसार’
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