खाद्य सुरक्षा कानून
देश में एक बार फिर से यूपीए सरकार को 9 साल बाद खाद्य सुरक्षा के नाम पर
आम आदमी की याद आई है। सरकार चाहती है कि किसी तरह ये बिल संसद में पास हो
जाए, और वह गंगा नहा ले। यानी की चुनावी बैतरनी पार हो जाए। सरकार ये
जल्दबाजी इसलिए भी दिखा रही है ताकी 3 महीने बाद 5 राज्यों में विधान सभा
चुनाव और 2014 में लोकसभा चुनाव होने वाले है। साथ ही राज्यों में लागू
होने वाले चुनाव आचार संहिता से पहले इसे निपटा लिया जाए, ताकी इसे चुनावी
लॉलीपॉप के रूप में लोगों के सामने पेश किया जा सके साथ ही भोजन के बहाने
वोट को अपनी झोली में लाया जा सके। इस
कानून को कांग्रेस का चुनावी बेड़ा पार कराने में सबसे मजबूत पतवार माना जा रहा है। सरकार का कहना है की देश की करीब 67 फीसदी आबादी को भोजन की गारंटी मिलेगी, इसमें से 75 फीसदी आबादी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी होगी।
कानून को कांग्रेस का चुनावी बेड़ा पार कराने में सबसे मजबूत पतवार माना जा रहा है। सरकार का कहना है की देश की करीब 67 फीसदी आबादी को भोजन की गारंटी मिलेगी, इसमें से 75 फीसदी आबादी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी होगी।
मगर सरकार के इस दावे को लेकर कई अहम सवाल खडें हो रहे है। सवाल ये कि
सामान्य और प्राथमिक कैटगरी के परिवारों को कैसे चिन्हित किए जाएंगे। जबकि
अभी एपीएल और बीपीएल की सरकारी परिभाषाएं ही विवादों में हैं। ये कौन
देखेगा कि कौन अत्यंत गरीब है और कौन कुछ हद तक गरीब है। सामान्य और
प्राथमिक परिवारों का चुनाव या वितरण की प्रक्रिया को लेकर कुछ राज्य बिल
के विरोध में हैं, जिनमे प्रमुख रूप से तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक,
पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश है। एक या दो रुपए किलो के
हिसाब से सब्सिडी वाला योजना इन राज्यों में पहले से ही लागू है। ऐसे में
यहा सरकार खाद्य सुरक्षा कानून कैसे लागू करेगी। सवाल यहा ये भी है की
खाद्य सुरक्षा बिल के जगह पर, उतनी ही राशि खर्च कर सरकार रोजगार गारंटी
कानून क्यों नहीं बनाती ताकी हर इन्सान को यह कहने का मौका मिले कि इस देश
कि तरक्की में मेरा भी योगदान है। आम आदमी के हीत में देश के लिए नीति क्या हो, ये संसद तय करती है। मगर इस
नीति का श्रेय हम कैसे लूटे इसे लेकर सरकार और विपक्ष दोनों में होड़ मची
हुई है। यही कारण है की सरकार अध्यादेश का रास्ता अपना रही है। क्योंकी अगर
इसे संसद में चर्चा कराने के बाद पास कराने की मंशा सरकार को होती तो
जाहीर सी बात है की विपक्ष की ओर से कुछ संसोधन करने की मांग भी उठाई जाती।
जिसका थोड़ा बहुत श्रेय विपक्ष को भी मिल जाती है। मगर अध्यादेश में ऐसे
किसी भी प्रकार के संसोधन करना संभव नहीं होगा, सिर्फ इसे संसद में हा या
ना के लिए पेश किया जाएगा। सपा के लाख विरोध करने और सरकार को समर्थन देने
के बावजूद सरकार इसे असानी से पास भी करा लेगी क्योकि जदयू पहले ही इसे
लेकर अपनी सहमती जता चुका है। ऐसे में सरकार द्वारा अपनाई गई ये विधी संसद
की मूल भावना प्रभावित करती है साथ ही सरकार की नियत और नीति दोनों को
उजागर करती है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या खाद्य सुरक्षा कानून
आम आदमी के साथ हमदर्दी है या फिर सिर्फ कोरी राजनीति ?

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