प्राण- महा खलनायक

प्राण- महा खलनायक  हिंदी सिनेमा जगत के प्रख्यात चरित्र अभिनेता प्राण का 12 जुलाई शुक्रवार को मुंबई के लीलावती अस्पताल में निधन हो गया। 93 वर्ष के प्राण लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे। उन्होंने रात 8.30 बजे अस्पताल में आखिरी सांस ली।प्राण को इस साल दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया था। लेकिन वह इतने बीमार थे कि पुरस्कार ग्रहण करने दिल्ली नहीं आ पाए। बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने उनके घर जाकर उन्हें अवार्ड दिया। इससे पहले साल 2001 में भारत सरकार ने उन्हें देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।हिंदी सिनेमा के सौ साल और गुजर चुके इन सौ बरसों में ना जाने कितने फिल्मी सितारे सिनेमा के फलक पर जगमगाए औऱ फिर वक्त के अंधेरे में कहीं खो गए. सौ सालों के इन पन्नों में दिलीप कुमार, देवआनंद और राजकपूर जैसे नायकों का सुनहरा दौर भी दर्ज है और राजेश खन्ना से लेकर अमिताभ बच्चन जैसे महानायकों का स्टारडम भी. लेकिन जब कभी बॉलीवुड में महा-खलनायक का जिक्र छिड़ता है तो नजरों में उभरता है सिर्फ एक ही चेहरा- प्राण.

ये वो चेहरा है जो हिंदी सिनेमा में उस वक्त से है जब ना तो परदे पर दिलीप कुमार मौजूद थे और ना ही देव आनंद और राजकपूर जैसे नायक. ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का वो जमाना भी वक्त की दहलीज लांघकर कभी का रंगीन हो गया. लेकिन बदलते दौर में भी फिल्मों का ये चेहरा कभी नहीं बदला क्योंकि बदलते वक्त के साथ इस चेहरे ने खुद को कुछ इस सलीके से बदल लिया कि वो हमेशा के लिए बन गया बॉलीवुड का प्राण.

उपकार फिल्म के लंगड़े मलंग चाचा के किरदार ने साठ के दशक के आखिर में हिंदी सिनेमा के इस महा-खलनायक को फिल्मी परदे पर एक नई पहचान दिलाई. लेकिन ये तो प्राण साहब की कहानी का बहुत आगे का हिस्सा है. उनकी असल फिल्मी कहानी तो करीब सत्तर साल पहले 1939 में उस वक्त शुरु होती है. जब लाहौर की हीरामंडी में एक पान की दुकान पर किस्मत ने प्राण से पूछा था सिनेमा में नौकरी करोगे. और पान चबाते हुए प्राण ने जवाब दिया नहीं.

सिर्फ बीस साल के थे प्राण. जब पहली बार फिल्मी परदे पर उनकी एंट्री हुई थी. दरअसल प्राण की असल जिंदगी भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है. शुरूआती जिंदगी

लाल किले के सामने बसी पुरानी दिल्ली इलाके में कभी मिर्जा असद-उल्ला खां गालिब रहा करते थे. उर्द के मशहूर शायर गालिब की हवेली भी इसी बल्लीमारान इलाके में आज भी मौजूद है. लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि बॉलीवुड के महा-खलनायक प्राण का रिश्ता भी इसी बल्लीमारान इलाके से रहा हैं. दरअसल 12 फरवरी 1920 को बल्लीमारान के ही एक घर में पैदा हुए थे प्राण.

पंजाबी पुत्तर प्राण किशन सिकंद का शुरुआती बचपन तो पुरानी दिल्ली की इन्हीं गलियों में खेलते-कूदते गुजरा, लेकिन जल्द ही दिल्ली उनसे छूट गई. उनके पिता एक सरकारी ठेकेदार थे लिहाजा बार-बार ट्रांसफर के चलते उन्हें अपने परिवार के साथ एक दिन छोडनी पडी दिल्ली.

दिल्ली के बाद देहरादून और फिर मेरठ और उन्नाव. प्राण अपने पिता केवल कृष्ण सिकंद के साथ उत्तर प्रदेश के कई शहरों में घूमते रहे. हर बार शहर बदलने के साथ उनका स्कूल भी बदल जाता लेकिन उनकी शिक्षा का आखिरी पड़ाव बना उत्तर प्रदेश का शहर रामपुर. रामपुर का राजकीय हामिद इंटर कॉलेज जो कभी एक छोटा सा हाई स्कूल हुआ करता था औऱ यहीं से प्राण कृष्ण सिकंद ने 1936 में पास की थी मैट्रिक की परीक्षा.

भारत को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद होने में अभी ग्यारह साल बाकी थे. ये वो वक्त था जब हिंदुस्तान का का एक अहम शहर था लाहौर. उस जमाने में लाहौर को फिल्म नगरी की हैसियत भी हासिल थी. मैट्रिक के बाद दिल्ली की एक फोटोग्राफी कंपनी ने उन्हें नौकरी दी और तबादला करके लाहौर भेज दिया. प्राण 1938 में लाहौर पहुंचे जहां किस्मत ने उन्हें कैमरे के पीछे से निकालकर कैमरे के सामने ला खड़ा किया.

फिल्मों में एंट्री

प्राण फिल्मों में नहीं आना चाहते थे लेकिन तकदीर उनकी जिंदगी की स्क्रिप्ट लिख चुकी थी. लिहाजा 1940 में वो पहली बार पंजाबी फिल्म यमला जट में बतौर खलनायक नजर आए. लाहौर प्राण की जिंदगी का दूसरा अहम पड़ाव बन चुका था. जहां की फिल्मी दुनिया में प्राण ने करीब 22 फिल्मों में काम किया. उनकी 18 फिल्में रिलीज भी हुई लेकिन फिर नौ साल बाद प्राण की जिंदगी में आया एक खतरनाक तूफान. 1947 में आजादी के साथ ही जब देश दो हिस्सों में टूट गया तो प्राण से लाहौर भी छूट गया.

14 अगस्त 1947 को जब प्राण अपनी पत्नी और एक साल के बेटे के साथ लाहौर से मुंबई पहुंचे तो ताजमहल होटल में आकर ठहरे थे. लेकिन मुंबई की फिल्मी दुनिया उन्हें रास नहीं आई. प्राण को नौ महीने तक फिल्मी दुनिया में कोई काम नहीं मिला. एक-एक कर बीवी के सारे गहने भी जब बिकते चले गए तो प्राण होटल ताजमहल से निकलकर सस्ते से सस्ते होटल में रहने को मजबूर हो गए.

बॉम्बे की फिल्मी दुनिया, जहां लाहौर की कामयाबी काम नहीं आई. स्ट्रगल के उस दौर में प्राण फिल्म स्टूडियो के चक्कर काटते काटते परेशान हो चुके थे. क्योंकि आजादी के बाद के उस दौर में जीवन, हीरालाल, कन्हैयालाल और मदनपुरी जैसे खलनायक पहले से ही परदे पर मौजूद थे और इन धुरंधरों के बीच जगह बनाना आसान ना था.

आखिर नौ महीने के लंबे इंतजार के बाद उस दौर के मशहूर प्रोडक्शन हाउस बॉम्बे टॉकीज से प्राण के लिए आया खुशियों का पैगाम. देवआनंद और कामिनी कौशल फिल्म जिद्दी में प्राण को एक छोटा सा रोल मिला और सौ रुपये की पेशगी बतौर मेहनताना भी. ये प्राण की जिंदगी का तीसरा अहम पड़ाव था.

1948 में फिल्म जिद्दी की रिलीज के बाद अगले पचास बरसों तक प्राण बतौर खलनायक परदे पर छाए रहे. प्राण जब भी परदे पर उतरते दर्शक मोहब्बत भरी नजरों के साथ उनके हर किरदार से नफरत करते रहे.

अलग पहचान

धुएं के छल्ले प्राण की अदाकारी की एक बडी पहचान रहे हैं. 1959 में आई फिल्म बडी बहन में जब खलनायक प्राण की सीन में एंट्री होती है तो उनसे पहले परदे पर नजर आते हैं धुएं के छल्ले. ये बताने की जरुरत इसलिए है कि प्राण ने बुरे आदमी को हर बार नई अदाओं के साथ परदे पर पेश किया है और अदाकारी की ये सारी करामात उन्होने महज अपनी आंखों और आवाज के तालमेल से दिखाई हैं.

परदे पर प्राण की आंखे बोलती रही हैं और जो कभी उनकी आंखे ना कह सकी, वो उनके तेवर जता दिया करते हैं. चुभती मुस्कुराहट और पैनी नजरों से अभियन में खौफ पैदा करने वाले प्राण फिल्मी परदे पर कभी खुलकर नहीं हंसे. 1966 में आई फिल्म दिल दिया दर्द लिया में बस पहली और आखिरी  बार ही दर्शकों ने सुना प्राण का परदे पर अट्टहास.

खास अदा और नुकीले संवाद प्राण के अभिनय की पहचान रहे हैं लेकिन उनके गेटअप और नए नए लुक का फॉर्मूला भी फिल्मों में उनकी कामयाबी का औजार बना. प्राण ने कभी अभिनय की ट्रेनिंग तो नहीं ली लेकिन वो जिंदगी भर किरदारों के साथ प्रयोग कर सीखते रहे.

पचास और साठ के दशक में दिलीप कुमार, देवानंद और राजकूपर की तिकडी का सुनहरा फिल्मी दौर ऊरज पर था. और उस वक्त इन तीनों नायकों के पसंदीदा खलनायक थे प्राण. बॉलीवुड की तीन दमदार पीढियों को टक्कर देने वाले शख्स का नाम हैं प्राण. पचास और साठ के दशक के पहले दौर में अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राजकपूर और देवआनंद से उनका सामना हुआ. तो वही उसके बाद शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार और धर्मेद्र से उन्होने परदे पर किए दो दो हाथ. हिंदी सिनेमा के तीसरे दौर में प्राण का मुकाबला बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना और फिर अमिताभ बच्चन से हुआ.

65 साल का फिल्मी सफर

पैंसठ साल का लंबा फिल्मी सफर. एक कलाकार के तौर पर प्राण ने हिंदी सिनेमा को जो कुछ दिया वैसी मिसाल कम ही नजर आती है. जिस देश में गंगा बहती है का राका डाकू हो फिल्म उपकार का लंगडा मलंग चाचा या फिर जंजीर का शेर खान. प्राण ने परदे पर अपने हर किरदार में फूंक दिए प्राण.

खल-नायकी के अपने चालासी साल के लंबे दौर में प्राण ने हर साल करीब पांच से छह फिल्मों में अभिनय किया और उनकी पहली पसंद थे पांच या छह सीन वाले ऐसे छोटे रोल जो परदे पर खल-नायकी का तूफान खड़ा कर सके. लेकिन 1967 में जब फिल्म उपकार आई तो प्राण के फिल्मी करियर ने अचानक यू टर्न ले लिया और वो खलनायक के खोल से निकलकर बन गए मस्त मलंग बाबा.

साठ के दशक में प्राण ने परदे पर चरित्र अभिनेता के तौर पर भी अपना सिक्का जमा लिया था लेकिन दर्शक आज भी उसी प्राण को उसी मोहब्बत से नफरत करते हैं जैसे वो चालीस, पचास और साठ के दशक में करते थे. क्योकि प्राण अविभाजित भारत के एक ऐसे कलाकार है जिनके साथ पूरा भारतीय सिनेमा जवान हुआ है.

 प्राण साहब पर्दे पर बुरे आदमी का किरदार करते हुए कितने आक्रामक और कमोबेश प्राणघातक लगते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। वे उस जमाने के कलाकार थे जब कलाकारों के सिर पर इमेज चढ़कर बोलती थी।

पर्दे पर वे जैसे दिखाई देते थे, समाज उनको वैसे ही अंगीकार करता था। उस तरह का प्रतिसाद दिया करता था। उस समय की वैंप बिन्दु को हमेशा से दर्शकों ने 'घरफोडू' और 'कुलटा' स्त्री कहकर ही धिक्कारा, जबकि परदे पर निभाए गए उनके चरित्र तो कहानी की मांग हुआ करते थे।

इसी प्रकार प्राण साहब के साथ भी रहा। दर्शक इस बात की जांच-पड़ताल करने लगे कि असल जीवन में प्राण क्या हैं, उन्हें तो प्राण हमेशा एक बुरे आदमी का पर्याय नजर आए। यह तो उनके करियर का टर्निंग प्वाइंट था कि खासी लोकप्रियता के आलम में एक के बाद एक सफल फिल्में दे रहे प्राण अचानक चरित्र अभिनेता बन गए। वे सकारात्मक चरित्र करने लगे। कॉमेडी भी अपने आपको औरों से इक्कीस रखकर बतलाया, वरना अच्छे-अच्छे अभिनेता इमेज बदलने के चक्कर में 'लाइन हाजिर' होकर रह गए।

प्राण की शख्सियत विराट थी। निश्चित रूप से कहीं न कहीं अपने जीवन में अनुशासन को उन्होंने भरपूर तवज्जो दी है और अपनी आत्मशक्ति को विकसित। अपने प्रति समाज और इंडस्ट्री के मन में व्याप्त आदर की झलकियां जब वे बड़े आयोजनों, सभा सोसाइटियों में देखते तो भावुक हो जाते। लाखों-करोड़ों आंखों में अपने प्रति जो जज्बात देखते, वह उनको उनके स्वर्णिम अतीत की ओर ले जाता।

प्रमुख फिल्में

वर्ष फ़िल्म चरित्र टिप्पणी
2002 तुम जियो हज़ार साल

1999 जय हिन्द

1998 बदमाश

1997 गुड़िया हमीद
1997 सलमा पे दिल गया है

1997 लव कुश

1996 तेरे मेरे सपने

1995 साजन की बाहों में

1994 भाग्यवान धनराज
1994 हम हैं बेमिसाल डिसूज़ा
1993 1942: अ लव स्टोरी

1993 गुरुदेव

1993 चन्द्रमुखी

1993 आजा मेरी जान

1992 इसी का नाम ज़िन्दगी

1992 इन्तेहा प्यार की महेन्द्र प्रताप ओबेरॉय
1992 माशूक

1991 सनम बेवफ़ा

1991 बंजारन ठाकुर बाबा
1991 लक्ष्मण रेखा किशन लालबहादुर शर्मा
1990 रोटी की कीमत

1990 आज़ाद देश के गुलाम अशोक भंडारी
1989 तूफान

1989 जादूगर

1989 दाता

1988 पाप की दुनिया जेलर
1988 गुनाहों का फ़ैसला

1988 मोहब्बत के दुश्मन

1988 शेरनी

1988 धर्मयुद्ध

1988 कसम मंगल सिंह
1988 औरत तेरी यही कहानी

1987 गोरा

1987 हिफ़ाज़त

1987 कुदरत का कानून

1987 ईमानदार

1987 मुकद्दर का फैसला धनराज
1986 धर्म अधिकारी

1986 लव एंड गॉड

1986 जीवा लाला
1986 बेटी रामू
1986 सिंहासन

1986 दिलवाला

1985 पाताल भैरवी

1985 कर्मयुद्ध चरन सिंह द्योल
1985 माँ कसम

1985 बेवफ़ाई

1985 युद्ध

1985 होशियार

1985 सरफ़रोश बाबा
1984 हसीयत जगदीश
1984 राज तिलक अर्जुन सिंह
1984 सोनी महिवाल

1984 लैला भरत सिंह
1984 फ़रिश्ता ख़ान चाचा
1984 इंसाफ कौन करेगा

1984 दुनिया

1984 राजा और राना

1984 मेरा फैसला कमिश्नर राना
1984 जागीर मंगल सिंह
1984 शराबी

1983 फ़िल्म ही फ़िल्म

1983 नास्तिक बलबीर
1983 वो जो हसीना

1983 अंधा कानून

1983 दौलत के दुश्मन

1983 सौतन

1983 नौकर बीवी का अब्दुल
1982 ताकत

1982 तकदीर का बादशाह

1982 जानवर

1982 जीओ और जीने दो

1981 खुदा कसम सेठ गिरधारी लालबहादुर
1981 क्रोधी

1981 कालिया

1981 लेडीज़ टेलर सलीम बेग़
1981 खून का रिश्ता

1981 मान गये उस्ताद चंदन सिंह
1981 नसीब नामदेव
1981 वक्त की दीवार

1980 ज़ालिम

1980 जल महल

1980 बॉम्बे 405 मील

1980 कर्ज़

1980 धन दौलत

1980 आप के दीवाने

1980 ज्वालामुखी राय
1980 दोस्ताना टोनी
1978 डॉन

1978 काला आदमी

1978 खून की पुकार

1978 अपना कानून इंस्पेक्टर वर्मा
1978 दो मुसाफ़िर

1978 विश्वनाथ

1978 गंगा की सौगन्ध

1978 चोर हो तो ऐसा प्राण राजेन्द्रनाथ
1978 देश परदेस समीर साहनी
1977 चक्कर पे चक्कर

1977 चाँदी सोना अमर
1977 धर्मवीर

1977 हत्यारा

1977 अमर अकबर एन्थोनी किशन लाल
1976 दस नम्बरी

1976 शंकर दादा

1975 वारंट

1975 चोरी मेरा काम

1975 दो झूठ

1975 सन्यासी

1974 मज़बूर माइकल डिसूज़ा
1974 कसौटी प्यारेलाल
1973 ज़ंजीर Sher Khan
1973 जुगनू श्याम
1973 जोशीला

1973 बॉबी जैक ब्रैगैन्ज़ा
1973 गद्दार

1972 यह गुलिस्ताँ हमारा

1972 परिचय

1972 विक्टोरिया नम्बर २०३ राना
1972 जंगल में मंगल

1972 रूप तेरा मस्ताना अजीत
1972 एक बेचारा

1972 सज़ा

1972 बेईमान कॉंस्टेबल राम सिंह
1972 आन बान राजा बहादुर
1971 ज्वाला

1971 नया ज़माना

1971 जवान मोहब्बत विनोद
1970 हमजोली गोपाल राय
1970 गोपी लाला
1970 यादगार मामा जी
1970 जॉनी मेरा नाम मोती
1970 पूरब और पश्चिम

1970 भाई भाई

1969 अंजाना

1969 सच्चाई प्रकाश
1969 भाई बहन रतन
1969 आँसू बन गये फूल

1968 ब्रह्मचारी रवि खन्ना
1968 साधू और शैतान

1968 आदमी

1967 मिलन

1967 उपकार मलंग
1967 एराउन्ड द वर्ल्ड प्राण
1967 पत्थर के सनम लाला भगत राम
1967 राम और श्याम गजेन्द्र
1966 दस लाख

1966 दो बदन अश्विनी राजेन्द्रनाथ
1966 लव इन टोक्यो प्राण
1966 सावन की घटा

1965 खानदान

1965 मेरे सनम श्याम
1965 गुमनाम बैरिस्टर राकेश
1965 शहीद

1964 दूर की आवाज़

1964 राजकुमार

1964 पूजा के फूल बलम सिंह
1963 फिर वही दिल लाया हूँ

1963 मेरे महबूब

1963 दिल ही तो है

1962 हाफ टिकट राजा बाबू
1962 दिल तेरा दीवाना गनपत
1962 झूला

1962 मनमौजी जग्गा
1961 जब प्यार किसी से होता है

1960 जिस देश में गंगा बहती है

1960 छलिया अब्दुल रहमान
1960 माँ बाप सोहन लाल
1960 महलों के ख़्वाब

1959 बेदर्द ज़माना क्या जाने

1959 प्यार की राहें

1958 मधुमती

1958 अमर दीप प्राण
1957 आशा राज
1957 झलक

1957 मिस्टर एक्स

1956 इंस्पेक्टर

1956 चोरी चोरी

1955 आज़ाद सुन्दर
1955 पहली झलक

1955 मुनीम जी

1955 कुंदन

1954 लकीरें

1954 बिरज बहू

1953 आह

1951 बहार शेखर
1951 अफ़साना मोहन
1950 शीश महल

1948 ज़िद्दी

नामांकन और पुरस्कार

फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार

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