मोहम्मद रफ़ी
मोहम्मद रफ़ी
| पूरा नाम | मुहम्मद रफ़ी | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| जन्म | 24 दिसम्बर, 1924 | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| जन्म भूमि | अमृतसर , पंजाब | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| मृत्यु | 31 जुलाई, 1980 | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| मृत्यु स्थान | मुंबई, महाराष्ट्र | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| अविभावक | हाज़ी अली मुहम्मद | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| पति/पत्नी | बेगम विक़लिस | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| संतान | सात (चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| कर्म भूमि | मुंबई | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| कर्म-क्षेत्र | पार्श्वगायक | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| पुरस्कार-उपाधि | 1965 में पद्मश्री, 6 बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार, 1 बार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| नागरिकता | भारतीय | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| मुख्य गीत | चौदहवीं का चांद हो, छू लेने दो नाजुक होठों को, दिल के झरोखे में, खिलौना जानकर, याद ना जाए आदि | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| अन्य जानकारी | क़रीब 40 साल के फ़िल्मी गायन में 25 हज़ार से अधिक गाने रिकॉर्ड
करवाए।
मोहम्मद रफ़ी साहब (25 दिसंबर 1925-31 जुलाई 1980) को किसी एक कोण से
याद करना उनके व्यक्तित्व के कई पहलुओं को अनदेखा करने जैसा है। सुरों और
संगीत की दुनिया को आत्मा से जोड़ने और ह्रदय के तारों को झंकृत करने की
जादुई कला अगर किसी के पास थी तो वे रफ़ी साहब ही थे। उनके गाए गीत चाहे
किसी बच्चे पर फिल्माए जाएँ या किसी युवा या उम्र दराज़ कलाकार पर, उनकी
आवाज उसी शख़्स की आवाज बन जाती थी। रफ़ी साहब को याद करना हिन्दी फिल्म
जगत के उस सुनहरे दौर को याद करना है जिस दौर में हिन्दी फिल्म संगीत को एक
से एक बेहतरीन, तराशे हुए नगमें मिले जो आने वाली कई सदियों तक संगीत की
दुनिया को रोशन करते रहेंगे। रफ़ी साहब के व्यक्तित्व को शब्दों की सीमा
में बांधकर याद नहीं किया जा सकता। रफ़ी साहब पर आप जहाँ लिखना बंद करते
हैं, वहीं से उनके व्यक्तित्व के कई आयाम सामने आने लगते हैं। मौका चाहे
शादी की खुशी का हो या बेटी की बिदाई का भारी माहौल या रफी साहब ने हर समय
के लिए हर मूड के गीत गाकर हमारी संगीत विरासत को इतना समृध्द कर दिया है
कि उनके गाए गीत घर परिवार से लेकर मंदिर तक मं गूंजते हैं। ऐसा कौनसा
दुह्ला होगा जिसकी बारात में उसके दोस्तों ने ये देश है वीर जवानों का
(फिल्म नया दौर) जैसा गीत गाकर अपनी खुशियों और मस्ती का इजहार नहीं किया
होगा, और शादी के बाद बेटी की बिदाई पर बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको
सुखी संसार मिले जैसा गीत जब गूंजता है तो बेटी को बिदा करने वाले ही नहीं
बल्कि बेटी को बहू बनाकर ले जाने वाले दुल्हे के पक्ष के लोगों की आँखों
में भी आँसू आ जाते हैं। फिर भी आज के दौर में टीवी शो में दो चार गाने गाकर सफलता की ऊँचाई छूकर भीड़ में गुम होजाने वाले तथाकथित उभरते और प्रतिभाशाली गायकों को चाहिए कि वे रफ़ी साहब के गीतों को गाकर उनके जैसा गायक बनने के पहले यह भी जान लें कि रफ़ी जैसी शख़्सियत हजारों सालों में एक बार इस धरती पर आती है। रफ़ी साहब किसी की नकल करके मोहम्मद रफ़ी नहीं बने थे बल्कि उन्होंने अपनी शैली खुद विकसित की थी, अपनी साधना और संगीत के प्रति समर्पण से। आज फिल्मी संगीत रिएलिटी शो और रीमिक्स एल्बमों में जादुई दुनिया का एहसास कराती लेज़र लाईटों और भड़कीले नाच के बीच कहीं खो सा गया है। ऐसे में रफ़ी साहब जैसे गायकों की याद हमें संगीत के एक सुनहरे दौर का खुशनुमाँ अहसास कराती है। मोहम्मद रफ़ी साहब ने अनगिनत गाने गाए होंगे, लेकिन उन्होंने खाली फिल्मों के लिए ही नहीं बल्कि कई गैर फिल्मी गीत भी गाए, और वो उनमें भी वही ही क़शिश और वही जादू है जो उनके फिल्मी तरानों में हैं। रफ़ी साहब को 23 बार फिल्म फेयर पुरस्कारों से नवाज़ा. मजे की बात यह है कि रफ़ी साहब के परिवार में एक भी शख़्स संगीत की दुनिया से जुड़ा हुआ नहीं था। रफ़ी साहब के बड़े भाई की अमृतसर में नाई की दुकान थी और रफ़ी साहब का बचपन में इसी दुकान पर आकर बैठते थे। उनकी दुकान पर एक फ़कीर रोज आकर सूफी गाने सुनाता था, सात साल के रफ़ी साहब को उस फ़कीर की आवाज इतनी भाने लगी कि वे दिन भर उस फ़कीर का पीछा कर उसके गाए गीत सुना करते थे। जब फ़कीर अपना गाना बंद कर खाना खाने या आराम करने चला जाता तो रफ़ी साहब उसकी नकल कर गाने की कोशिश किया करते थे। वे उस फ़कीर के गाए गीत उसीकी आवाज़ में गाने में इतने मशगूल हो जाते थे कि उनको पता ही नहीं चलता था कि उनके आसपास लोगों की भीड़ खड़ी हो गई है। कोई जब उनकी दुकान में बाल कटाने आता तो सात साल के मोहम्मद रफ़ी से एक गाने की फरमाईश जरुर करता। एक बार लाहौर के आकाशवाणी केंद्र अपने ज़माने के प्रख्यात गायक-अभिनेता कुन्दन लाल सहगल अपने गीत प्रस्तुत करने आए थे। रफी़ साहब भी अपने भाई के साथ सहगल साहब को सुनने पहुँचे। मगर लेकिन अचानक बिजली चली गई और माईक बंद हो गया तो भारी भीड़ को देखकर सहगल साहब ने गाने से मना कर दिया। पूरे माहौल में अफरा-तफरी सी मच गई। भीड़ बेकाबू होने लगी, इस पर रफ़ी साहब के बड़े भाई ने आयोजकों से कहा कि अगर उनके छोटे भाई को इस मौके पर गाने दिया जाए तो लोगों का गुस्सा कुछ हद तक शांत हो सकता है। आयोजकों की स्वीकृति मिलने के बाद 13 साल के रफी़ ने अपनी गायकी का जो समाँ बांधा कि लोग भूल ही गए कि वे कुंदनलाल सहगल को सुनने आए थे। सुनने वालों में उस दौर के जाने माने संगीतकार श्याम सुन्दर भी थे, उनको रफ़ी की आवाज़ में ऐसा जादू महसूस हुआ कि उन्होंने उसी समय तय कर लिया कि वे इस होनहार बालक को अपने संगीत निर्देशन में गाने का मौका देंगे। मोहम्मद रफ़ी साहब ने पहला गीत एक पंजाबी फ़िल्म गुल बलोच के लिए गाया था और इसका संगीत दिया था श्याम सुंदर जी ने। आज़ादी के एक साल पहले सन् 1946 में रफ़ी साहब अपने दोस्तों और परिवार वालों की सलाह पर मुंबई चले आए। मुंबई में संगीतकार नौशाद ने रफ़ी साहब को पहले आप नाम की फ़िल्म में गाने का मौका दिया। रफ़ी साहब ने मात्र 15 साल की उम्र यानी सन् 1940 से अपने गायन की शुरुआत की और अपने जीवन के अंतिम पड़ाव सन 1980 तक इन्होने लगभग 26,000 गीत गाए। (हालांकि इस बात पर अभी विवाद है कि उन्होंने कुल कितने गीत गाए, लेकिन अगर उनका मूल्यांकन संख्या की बजाय गीतों की विविधता और उनकी मौलिकता से किया जाए तो इस बात का कोई मायने नहीं रह जाता कि उनके गाए गीतों की संख्या क्या है) इन गीतों में ग़ज़ल, भजन, देशभक्ति गीत, क़व्वाली से लेकर हिन्दी के अलावा अन्य भाषाओं के गीत भी शामिल हैं। उनके गाए गीत गुरु दत्त, दिलीप कुमार, देव आनंद, भारत भूषण, जॉनी वॉकर, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र से लेकर ऋषि कपूर जैसे अभिनेताओं पर फिल्माए गए। रफी साहब को खास पहचान मिली 1946 में बनी फिल्म अनमोल घड़ी के गीत तेरा खिलौना टूटा, जिसका संगीत दिया था नौशाद साहब ने। 1951 में जब नौशाद साहब फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गानों की धुन तैयार कर रहे थे तो वे इसके गीत अपने मनपसंद गायक तलत महमूद से गवाना चाहते थे। नौशाद साहब धूम्रपान करने वालों से प्रायः कतराते थे, एक बार उन्होंने जब तलत महमूद को धूम्रपान करते देखा तो उन्होंने तलत मेहमूद से गवाने का विचार छोड़ दिया और उनकी निगाह टिकी रफ़ी साहब पर। बैजू बावरा में रफी़ साहब ने जिस अंदाज और कशिश के साथ गीत गाए उसके बाद तो नौशाद साहब रफ़ी साहब के मुरीद ही हो गए। नौशाद साहब के बाद राजकपूर के खेमे के पसंदीदा संगीतकार शंकर-जयकिशन ने रफ़ी साहब को कई गीत गाने का मौका दिया। शंकर-जयकिशन की इच्छा थी कि रफ़ी साहब राज कपूर के लिए भी अपनी आवाज दे, मगर राज कपूर अपने लिए मुकेश के अलावा किसी और आवाज़ को पसंद ही नहीं करते थे। शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देशन में रफी़ साहब ने राजकपूर को छोड़कर उस दौर के हर नामी कलाकार के लिए अपनी आवाज़ दी। इसके बाद संगीतकार ओ पी नैय्यर (जिन्होंने लता मंगेशकर की टक्कर में आशा भोसले स्थापित ही नहीं किया बल्कि जिंदगी भर उन्होंने लता मंगेशकर के लिए एक भी गीत का संगीत नहीं दिया) ने रफ़ी-आशा की जोड़ी को फिल्मी दुनिया की सफलतम गायक जोड़ी के रूप में स्थापित कर दिया। उस दौर के जाने माने संगीतकारों पं. रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी ऐसा नाम मिलना मुश्किल है जिनके लिए रफ़ी साहब ने नहीं गाया हो। उन्होंने हरफनमौला गायक अभिनेता किशोर कुमार के लिए भी अपनी आवाज़ दी। संगीतकार ओ.पी. नैयर ने फिल्म रागिनी (1958) के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत 'मन मोरा बावरा गाये.....' को किशोर कुमार के लिये रफ़ी साहब से ही गवाया था। इसी तरह सन् 1958 में आई फिल्म शरारत में भी मोहम्मद रफ़ी ने फिर से एक बार किशोर कुमार के लिए अपनी आवाज़ दी थी, गीत के बोल थे के बोल हैं 'अजब है दास्ताँ तेरी ऐ जिंदगी.....' रफी़ साहब ने किशोर कुमार के लिए आखरी गीत 1964 में फिल्म बाग़ी शहज़ादा के लिए गाया था। रफी़ साहब की आवाज़ तो परदे पर शम्मी कपूर का पर्याय ही बन गई। शम्मी कपूर पर फिल्माए गए गीतों में कोई मुझे जंगली कहे (जंगली), एहसान तेरा होगा मुझ पर (जंगली), ये चाँद सा रोशन चेहरा (कश्मीर की कली), दीवाना हुआ बादल (आशा भोंसले के साथ, कश्मीर की कली) रफी साहब की आवाज़ की मस्ती, अल्हड़ता और मासूमियत सबकुछ नजर आती है। रफी साहब ने हिन्दी के अलावा एन टी रामा राव (तेलगू फिल्म भाले तुम्मडु तथा आराधना के लिए), अक्किनेनी नागेश्वर राव (हिन्दी फिल्म - सुवर्ण सुन्दरी के लिए) भी अपनी आवाज़ दी। उन्होने बेगम विक़लिस से शादी की और उनकी सात संताने हुईं-चार बेटे तथा तीन बेटियाँ। मोहम्मद रफ़ी उदार ह्रदय के व्यक्ति थे। कोई कभी उनके पास से खाली हाथ नहीं जाता था। अपने शुरुआती दिनों में संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए उन्होंने नाममात्र का मेहनताना लिया ताकि यह जोड़ी फिल्मी दुनिया में जम सके। गानों की रॉयल्टी को लेकर भी उनका एक अजब और उदार रवैया था। इसको लेकर उनका लता मंगेशकर से विवाद भी हो गया था। लता मंगेशकर का कहना था कि गाना गाने के बाद भी उन गानों से होने वाली आमदनी की रायल्टी गायकों-गायिकाओं को मिलना चाहिए। मगर उसूल के पक्के रफ़ी साहब इसके एकदम ख़िलाफ़ थे वे मानते थे कि एक बार गाने रिकॉर्ड हो गए और गायक-गायिकाओं उनका पैसा मिलते ही बात खतम हो जाती है। इस बात को लेकर दोनों में विवाद इतना बढ़ा कि दोनों ने एक साथ गीत नहीं गाए। बाद में नरगिस की पहल पर दोनों का विवाद सुलझा और दोनों ने एक साथ फिल्म ज्वैल थीफ में दिल पुकारे गीत गाया। रफी़ साहब को मिले फिल्म फेअर पुरस्कारों की सूची -1960 - चौदहवीं का चांद हो (फ़िल्म - चौदहवीं का चांद ) - विजित -1961 - हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं (फ़िल्म - घराना) -1961 - तेरी प्यारी प्यारी सूरत को (फ़िल्म - ससुराल) - विजित -1962 - ऐ गुलबदन (फ़िल्म - प्रोफ़ेसर) -1963 - मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की क़सम (फ़िल्म - मेरे महबूब ) -1964 - चाहूंगा में तुझे (फ़िल्म - दोस्ती) - विजित -1965 -छू लेने दो नाजुक होठों को (फ़िल्म - काजल) -1966 - बहारों फूल बरसाओ(फ़िल्म - सूरज) - विजित -1968 - मैं गाऊँ तुम सो जाओ (फ़िल्म - ब्रह्मचारी) -1968 - बाबुल की दुआएँ लेती जा (फ़िल्म - नीलकमल) -1968 - दिल के झरोखे में (फ़िल्म - ब्रह्मचारी) - विजित -1969 - बड़ी मुश्किल है (फ़िल्म - जीने की राह) -1970 - खिलौना जानकर तुम तो, मेरा दिल तोड़ जाते हो(फ़िल्म -खिलौना ) -1973 - हमको तो जान से प्यारी है (फ़िल्म - नैना) -1974 - अच्छा ही हुआ दिल टूट गया (फ़िल्म - मां बहन और बीवी) -1977 - परदा है परदा (फ़िल्म - अमर अकबर एंथनी) -1977 - क्या हुआ तेरा वादा (फ़िल्म - हम किसी से कम नहीं ) -विजित -1978 - आदमी मुसाफ़िर है (फ़िल्म - अपनापन) -1979 - चलो रे डोली उठाओ कहार (फ़िल्म - जानी दुश्मन) -1979 - मेरे दोस्त किस्सा ये (फिल्म - दोस्ताना) -1980 - दर्द-ए-दिल, दर्द-ए-ज़िगर(फिल्म - कर्ज) -1980 - मैने पूछा चाँद से (फ़िल्म - अब्दुल्ला) -1965 में भारत सरकार ने उनको पद्मश्री का अलंकरण देकर सम्मानित किया। रफी़ साहब द्वारा गाए गए कुछ अमर गीत -ओ दुनिया के रखवाले (बैजू बावरा-1952) -ये है बॉम्बे मेरी जान (सी आई डी, 1957), हास्य गीत -सर जो तेरा चकराए, (प्यासा - 1957), हास्य गीत -चाहे कोई मुझे जंगली कहे, (जंगली, 1961) -मैं जट यमला पगला -चढ़ती जवानी मेरी -हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं, (गुमनाम, 1966) -हम किसी से कम नहीं -राज की बात कह दूं -ये है इश्क-इश्क -परदा है परदा -ओ दुनिया के रखवाले - भक्ति गीत -हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, (फिल्म-जागृति, 1954), देशभक्ति गीत -अब तुम्हारे हवाले - देशभक्ति गीत -ये देश है वीर जवानों का, -अपना आज़ादी को हम, देशभक्ति गीत -नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है -रे मामा रे मामा -चक्के पे चक्का -मन तड़पत हरि दर्शन को आज, (बैजू बावरा,1952) -सावन आए या ना आए (दिल दिया दर्द लिया, 1966) -मधुबन में राधिका, (कोहिनूर, 1960) -मन रे तू काहे ना धीर धरे, (फिल्म -चित्रलेखा, 1964) -बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले -आज मेरे यार की शादी है, (आदमी सडक का) बहारों फूल बरसाओ मेंरा मेहबूब आया है (सूरज) |

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