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(1)महंगाई पर राजनीति
को लेकर हमेशा विरोध जताती रही डीजल के दाम बढ़ने और रसोई गैस के सिलेंडरों पर कोटा लागू होने के साथ ही आम आदमी के सामने एक नया संकट खड़ा हो गया है। महंगाई का पहले से ही कोई ठिकाना नहीं है। कई बार तो एक ही दिन में चीजों के दाम बढ़ जा रहे हैं। आम जनता में यह धारणा सी बन चली है कि बाजार पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। बल्कि अब तो लोगों को ऐसा लगने लगा है जैसे सरकार बाजार पर कोई नियंत्रण रखना भी नहीं चाहती है। पेट्रोल के मूल्यों में पिछले एक साल में ही कई बार बढ़ोतरी की जा चुकी है। डीजल के दाम बढ़ाने से अकसर सरकार बचती रही है, लेकिन इस बार डीजल के दाम ही बढ़ाए गए हैं। इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि पेट्रोल के मामले में सरकार किसी प्रकार की कोई राहत देने जा रही है। देर-सबेर पेट्रोल के दाम भी फिर बढ़ेंगे ही। राहत यहां किसी भी कीमत पर आम आदमी को मिलने वाली नहीं है। रसोई गैस पर कोटा थोपे जाने से तो लोग परेशान हैं ही, उससे अधिक रोष उनका गैस एजेंसियों की कार्यप्रणाली और उपभोक्ताओं के प्रति उनके रवैये से है।
इससे भी अधिक हताशा जनता को न केवल पेट्रोलियम पदार्थो, बल्कि समग्रता में महंगाई के मसले पर भी विपक्ष से हुई है। प्रत्यक्ष रूप से देखें तो सत्तारूढ़ दल को छोड़कर देश की सभी पार्टियां डीजल के मूल्य में वृद्धि और रसोई गैस पर कोटा लागू होने पर विरोध जता रही हैं। सभी पार्टियों को यह बहुत ही नागवार गुजरा है। सरकार के सहयोगी दल तक सड़क पर उतरने की बात कर रहे हैं। जगह-जगह धरने-प्रदर्शन भी कर रहे हैं। सरकार के कई सहयोगी दलों ने यह आरोप लगाया है कि इस मामले में उनसे कोई राय नहीं ली गई। संसदीय लोकतंत्र की सार्थकता ही इस बात में है कि शासन सर्वसम्मति से चले। अगर सर्वसम्मति न भी हो तो कम से कम बहुमत तो साथ हो ही। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि लंबे अरसे से स्पष्ट बहुमत वाली कोई सरकार सत्ता में नहीं आ रही है। जैसे-तैसे जोड़-तोड़ कर सरकारें बनाई और चलाई जा रही हैं। इसमें सर्वसम्मति का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। फिर भी बहुमत से फैसले करने की उम्मीद तो हम कर ही सकते हैं। दुखद है कि यह भी नहीं किया जा रहा है। यहां तक कि सरकार खुद अपने सहयोगी दलों से भी महत्वपूर्ण फैसलों तक के लिए न्यूनतम सहमति भी नहीं बना पा रही है।
सहयोगी दलों और विपक्ष में बैठे लोगों के भी इतिहास पर अगर गौर करें तो एक बात साफ तौर पर देखी जा सकती है कि कथनी-करनी में एकता की बात ही बेकार हो गई है। विपक्ष की स्थिति यह है कि ऐसे समय में जबकि संसद में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर फैसले होने की बात पहले से ही तय है, तब वे किसी एक मुद्दे को लेकर संसद न चलने देने की राजनीति में जुट जाते हैं। अब सवाल यह है कि संसद न चलने दे कर वे कौन सा बड़ा काम कर रहे हैं? यह बात तो देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि देश के सभी नीतिगत फैसले संसद से ही होने हैं। इसीलिए संसद चलाने पर इतना भारी-भरकम खर्च किया जाता है। यह खर्च कहीं और से नहीं, जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा होता है। अगर इस तरह देखें तो दरअसल संसद न चलने देकर केवल जनता का धन बर्बाद किया जाता है। खास तौर से उस स्थिति में जबकि यह बात सर्वविदित है कि जिन मसलों पर सरकार अनिवार्य समझती है, उन पर वह संसद न चलने की स्थिति में चर्चा के बगैर ही विधेयक पारित करवा लेती है। ऐसी स्थिति में संसद न चलने देकर तो जनता के विरुद्ध ही काम किया जा रहा है।
(2) भारत में यूँ तो 4 मौसम होते हैं, ग्रीष्म , वर्षा, शरद और बसंत. पर इन सबके ऊपर एक ऋतु और है जो भारत के हर नगर और गाँव में छाई है. जिसका नाम है ‘अतिक्रमण’. भारत में ये प्रथा बनती जा रही है, आप जहाँ जायेंगे अतिक्रमण ही नजर आएगा. लगता है वो दिन दूर नहीं जब इसे संविधान द्वारा नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में शामिल कर लिया जायेगा. जिस व्यक्ति को देखो वो सरकारी सम्पति, जमीं, यहाँ तक की हवा- पानी का अतिक्रमण करने का मानो अधिकार प्राप्त कर चूका है.
जिस भी व्यक्ति के पास अपना मकान या दुकान है वो उसके आगे की खाली पड़ी जमीन जो की अमूमन सरकारी ही होती है को अपनी व्यक्तिगत जायदाद मानकर उपयोग में लाने लगते हैं. यही कारण है की सरकारी नालियां,गलियां ,सड़कें यानें की जो भी सरकारी जगह है सब संकुचित होती जा रही है और लोगों की जगहों का दायराअपनेआप बढ़ता जा रहा है. अतिक्रमण की ये बेशर्म मानसिकता का ये जिन्दा साक्ष्य हर एक के सामने है क्योंकि अधिकतर इस बेशर्मी को जी रहे हैं.
भारत के किसी भी शहर, नगर या गाँव में चले जाइये, अतिक्रमण का नजारा आम देखने को मिल जायेगा. दुकानदार अपनी दुकान का सामान दुकान से बाहर सड़क के उपर भी रखने में गुरेज नहीं करते, सरकारी नालियीं भी उनके अतिक्रमण की शिकार हैं.उसे भी ढांककर उसपर दुकान की सीढियाँ या सामान रखने की जगह निकल लेते हैं. यहाँ-वहां वाहन खड़े करके ट्रेफिक में बाधा डालना बड़ी आम सी आदत है. मजेदार बात ये है की किसी को इस से कोई परेशानी नहीं होती, लोग अनदेखी करके निकल जाते हैं. जो अतिक्रमण नहीं कर पाते वो अपने पालतू जानवरों को खुला छोड़कर अपनी इच्छा पूरी कर लेते हैं.
भारतीय जनमानस की मानसिकता इस कदर ख़राब हो चुकी है की वह नागरिक कर्तव्यों को ही भूल गई है जिसमे ‘सार्वजानिक सम्पति के दुरुपयोग को रोकने’ का कर्तव्य भी शामिल है. अब तो हाल ये है की कहाँ सरकारी जमीन है और कहाँ व्यक्तिगत पता ही नहीं चलता.
भारत के किसी भी शहर, नगर या गाँव में चले जाइये, अतिक्रमण का नजारा आम देखने को मिल जायेगा. दुकानदार अपनी दुकान का सामान दुकान से बाहर सड़क के उपर भी रखने में गुरेज नहीं करते, सरकारी नालियीं भी उनके अतिक्रमण की शिकार हैं.उसे भी ढांककर उसपर दुकान की सीढियाँ या सामान रखने की जगह निकल लेते हैं. यहाँ-वहां वाहन खड़े करके ट्रेफिक में बाधा डालना बड़ी आम सी आदत है. मजेदार बात ये है की किसी को इस से कोई परेशानी नहीं होती, लोग अनदेखी करके निकल जाते हैं. जो अतिक्रमण नहीं कर पाते वो अपने पालतू जानवरों को खुला छोड़कर अपनी इच्छा पूरी कर लेते हैं.
भारतीय जनमानस की मानसिकता इस कदर ख़राब हो चुकी है की वह नागरिक कर्तव्यों को ही भूल गई है जिसमे ‘सार्वजानिक सम्पति के दुरुपयोग को रोकने’ का कर्तव्य भी शामिल है. अब तो हाल ये है की कहाँ सरकारी जमीन है और कहाँ व्यक्तिगत पता ही नहीं चलता.
सरकारी भूमि पर धार्मिक स्थल का निर्माण धड़ल्ले से हो रहा है, धार्मिक आस्था के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने में लोग लगे हैं. अतिक्रमण की खुली छूट के चलते ही लोग अब इसको अपना अधिकार समझकर जीने लगे है, यही कारण है की जब भी अतिक्रमण विरोधी मुहीम चलता है तो विरोध की पुरजोर आंधी के सामने टिक नहीं पाता. भारतीय जनमानस की ये मानसिकता बेहद लज्जाजनक है, पर वे इस बात को समझने क्या मानने को तैयार नहीं. अगर ऐसे ही अतिक्रमण रूपी अधिकार का प्रयोग होता रहा और प्रशासन ऑंखें मूंदे पड़े रहा और मौन बैठा रहा तो वह दिन दूर नहीं जब सरकारी जमीन, सम्पति सब लोगों के कब्जे में बिना हस्तांतरण व रजिस्ट्री कराए पहुँच जाएगी और फिर जब अतिक्रमण विरोधी कार्यवाही करने की सरकारी अमले की बारी आएगी तो उसे गत वर्षों में जो विरोध दिल्ली तथा गाजियाबाद में सहना पड़ा वैसे ही हर जगह न सहना पड़े.
हमें भी अपनी बेशर्म मानसिकता को छोड़ना होगा और इस अघोषित मौलिक अधिकार का परित्याग करना चाहिए और संविधान के नागरिक कर्तव्यों में से सार्वजानिक सम्पति की रक्षा का कर्तव्य का पालन करना चाहिए. इसके साथ ही सरकार को सोये नहीं रहना चाहिए बल्कि जहाँ भी अतिक्रमण हो रहा हो उसे समय रहते रोके और समय समय पर सरकारी जमीन का निरिक्षण व आकलन करते रहे.
(3) सरकार में तबादले हमेशा होते रहते हैं। तबादलों पर प्रतिबंध का अर्थ तबादला नहीं होना नहीं है बल्कि तबादलों का अधिकार मंत्रियों को नहीं होना है। इस अवधि में विभाग या विभागीय मंत्रियों को तबादलों का अधिकार नहीं होता और उनके द्वारा प्रस्तावित तबादले मुख्यमंत्री समन्वय के अनुमोदन के बाद होते हैं यानी मंत्री मनचाहे तबादले अपने स्तर पर नहीं कर सकता और प्रतिबंध हटते ही तबादलों की खुली छूट मंत्रियों को मिल जाती है। कहने को तो इस अवधि के लिये बाकायदा तबादला नीति होती है जिसमें कुछ मापदंड तय होते हैं लेकिन इसका पालन प्राय: नहीं किया जाता। तबादलों पर प्रतिबंध लगने या हटने का कोई सीधा संबंध न तो उन अधिकारियों, कर्मचारियों से होता है और न शासन प्रशासन से और न काम की दक्षता बढ़ाने से। इसका सीधा संबंध मंत्रियों को तबादला करने की छूट देने से है। यानी प्रतिबंध तबादलों पर से नहीं हटा बल्कि मंत्रियों के अधिकारों पर लगा प्रतिबंध हटाया गया है। ऐसा पहली बार या इसी सरकार में हुआ हो, ऐसा नहीं है। पिछले कई सालों से हर सरकारों में तबादलों पर प्रतिबंध लगाने व हटाने का सिलसिला चलता रहा है। प्रतिबंध हटते ही मनचाहे तरीके से इतनी बड़ी संख्या में तबादले होते हैं कि विपक्षी दल सरकार पर तबादला उद्योग चलाने का आरोप लगाते हैं और सत्ता में आने पर वे खुद इसी उद्योग को आगे बढ़ाते रहे हैं। तबादला करने के लिए बनाए जाने वाले मापदंड का पालन शायद ही कभी किया गया और किया भी गया तो उन पर जिनका कोई गॉडफादर न हो। तब ही तो हजारों की संख्या में अधिकारी-कर्मचारी ऐसे हैं जो बरसों से एक ही स्थान पर आज भी पदस्थ हैं। रसूखदार और मालदार अधिकारी मनचाही यानी कमाई वाली पदस्थापना पाने में हर सरकार में सफल रहता है। ऐसे लोगों के बीच होने वाली प्रतिस्पर्धा के चलते तबादलों की कीमत बढ़ती रही है। इसके उलट वास्तविक जरूरत वाले कारिंदे को असुविधाजनक पदस्थापना झेलनी पड़ती है क्योंकि न वह रसूखदार है और मालदार। विकास कार्यों में विस्तार तथा इसमें धन की प्रचुरता के चलते सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार भी बढ़ा और सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों की पदस्थापना धन प्राप्ति का बेहतर जरिया बनने लगा और धीरे-धीरे तबादला उद्योग पनपने लगा। जब पूरे साल तबादले होते ही रहते हैं तब तबादलों पर प्रतिबंध लगाने का कोई औचित्य नहीं दिखता, सिवाय इसके कि मंत्रियों को इस अधिकार से वंचित रखना। हर साल प्रतिबंध हटाकर तबादला करने का औचित्य तब सिद्ध होता जब साल भर तबादले न किए जाएं। यदि तबादले साल भर करना अपहरिहार्य है तो प्रतिबंध लगाने व हटाने का खेल खेलने के बजाय तबादलों के लिए व्यवहारिक मापदंड तय किया जाना चाहिए जो सभी पर समान रूप से लागू हो। तब मंत्रियों को अधिकारविहीन भी नहीं होना होगा और मेरिट के आधार पर तबादले होंगे। तबादलों में होने वाली रिश्वतखोरी का बड़ा दुष्परिणाम विकास परियोजनाओं पर पड़ता है, ये योजनाएं भ्रष्टाचार की शिकार हो जाती हैं। लाखों रुपये देकर पदस्थापना पाने वाला उसकी कीमत वसूलने के लिये बड़ा भ्रष्टाचार करेगा। आज तबादला प्रशासनिक या विकास के आधार पर नहीं राजनैतिक व रिश्वतखोरी के लिये जाने जाते हैं। जब मापदंड के अन्तर्गत आने वालों का अनुकूल तबादला स्वत: हो जाए और मापदंड से बाहर वालों के आवेदन पर सुनवाई न हो तो सरकार के लिये तबादला कोई समस्या नहीं रहेगी और तब प्रतिबंध लगाने या हटाने की कसरत नहीं करनी पड़ेगी. (4) तिड़के तालाब
गांवों में वर्षों तक बिन बारिश के लबालब रहने वाले तालाबों ने भी इस बार पड़े भयंकर अकाल के चलते अपने पैदें दिखाई देने लगे है। पर्याप्त बारिश के अभाव में तालाबों में पानी का नामोनिशान तक नहीं है। किसान मजदूर और पिछड़े ,महिलाओ पर सबसे ज़्यादा अत्याचार करता है,ये केवल हुक्का पीने,तास खेलने,और राजनीति के अलावा कुछ नही करता,खेत मे सारा काम,मजदूर और इनकी महिला करती है,आयकर,बिजली कर ,हाउस टॅक्स आदि कोई भी कर नही देता,सभी वास्तु पर सरकार सब्सिडी देती है,मिल्टरी,पुलिस आदि सभी नोकरी पर इनका कब्जा है, कहाँ से आएगा अनाज, पंजाब हरयाणा की ज़मीन केमिकल के इस्तेमाल से भविस्या मे बर्बाद हो जाएँगी, सरकार ने खेती पर ढंग से काम किया होता तो आज किसान खेत छोड़कर नौकरी करने नही भागता, बीचोलियों को खुली छूट दे रखी है जिससे खाद्यान महेंगे मिलते है लेकिन किसान को उसका पैसा नही मिलता, सारी मलाई इन पार्टियों के लोग जो बीचोलिया और आढ़ती है मज़े काट रहे है, मौजूदा पोलिटिकल पार्टी सभी समस्ययो की जड़ है nn इस बार कमजोर मॉनसून के कारण कई राज्यों में सूखा पड़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है। कहा जाने लगा है कि इस आधे-अधूरे मॉनसून से महंगाई बढ़ेगी और किसानों का जीना मुश्किल हो जाएगा। सचाई यह है कि मौसम के तेजी से बदलते पैटर्न व कृषि जलवायु क्षेत्र में भारी विविधता के कारण हर साल देश का कोई न कोई भाग सूखे की चपेट में आ जाता है। ,चूंकि देश में मीडिया मजबूत हुआ है, नागरिक समुदाय में चेतना आई है इसलिए अब सरकार केवल बातें बनाकर काम नहीं चला सकती, उसे ठोस कदम उठाने को बाध्य होना पड़ा है। ठीक है कि अब भी भारी अनियमितताएं हैं पर सरकारी योजनाएं अमल में आ रही हैं। अकाल को लेकर गवर्नमेंट की योजनाओं का पॉजिटिव असर देखने को मिल रहा है। इसका एक बड़ा उदाहरण राजस्थान है। दरअसल एक बार अकाल की घोषणा के बाद पूरा तंत्र हरकत में आ जाता है। सूखे के कारण बाजार में जरूरी कमोडिटी की कमी से निपटने के लिए सरकार ऐसी वस्तुओं की जमाखोरी करने वालों के खिलाफ कानून कार्यवाही करती है। अब जैसे दलहन को ही लें तो सरकार ने उसकी स्टॉक सीमा तय कर रखी है। हालांकि किसान चाहते हैं कि सरकार फसल बीमा को खरीफ व रबी दोनों के लिए लागू कर दे। वहां अब किसान के पास सूचना है। वह जानता है कि उसे कब व कितना माल मंडी तक लाना है। वह अपनी जोखिम का आकलन कर उसे पहले ही कम कर ले रहा है। पहले किसान खेती के लिए सिर्फ बारिश पर निर्भर था। अब सिंचाई के लिए लगभग वहां सभी किसानों के पास कुआं है, ट्यूबवेल है। शरद पवार का कहना है कि देश के पास अनाज का पर्याप्त भंडार है, घबराने की कोई जरूरत नहीं। वे बहुत चालाकी से यह बात छिपा गये कि किसे घबराने की जरूरत नहीं। शहरी और नौकरीपेशा लोगों को। आखिर किसान तो पिछले साल की अपनी उपज पहले ही बेच चुके हैं। वह तमाम अनाज या तो सरकारी गोदामों में रखा है, या फिर कालाबाजारियों ने जमा करके रखा है। जैसे-जैसे अनाज की कमी होगी, उसकी कीमत बढ़ेगी। यानी महंगाई और बढ़ेगी। और फसलें उगाने वाले किसान ही भूखे रह जायेंगे। उनकी जेब में अपना पेट भरने के लिए अनाज खरीदने के पैसे नहीं होंगे। कर्ज लेकर बोयी गयी उनकी फसलें खराब हो जायेंगी। पहले से ही उनके सिर पर कर्ज चढ़ा था। अब और बढ़ जायेगा। फिर उनके भयावह दृश्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आसमान का ठेंगा किसानों को बहुत भारी पड़ेगा। आम आदमी के खिलाफ सरकार, तंत्र, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉपोर्रेट का रुख पहले से ही जगजाहिर है, इस बार मॉनसून ने भी उससे आंखें मोड़ ली हैं। देश भर के किसान आसमान की ओर टकटकी लगाये हुए हैं, मगर आसमान का दिल है कि पिघलता ही नहीं, उसकी छाती से अमृत बरसता ही नहीं। नतीजतन खेत सूख रहे हैं, बोयी हुई फसलें खराब हुए जा रही हैं। दुनिया भर में पहले ही मंदी छायी है - भारत भी उससे अछूता नहीं है - ऊपर से कुदरत की मार ... यानी आगे समय सचमुच खराब ह




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