संदेश

2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गाँव की सादगी

यादें बचपन की *गाँव बेचकर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है।*   *जीवन के उल्लास बेच के, खरीदी हमने तन्हाई है।* *बेचा है ईमान धरम तब, घर में शानो शौकत आई है।*   *संतोष बेच, तृष्णा खरीदी, देखो कितनी मंहगाई है।।*   बीघा बेच स्कवायर फीट खरीदा, ये कैसी सौदाई है।   संयुक्त परिवार के वट वृक्ष से टूटी, ये पीढ़ी मुरझाई है।।   *रिश्तों में है भरी चालाकी, हर बात में दिखती चतुराई है।* कहीं गुम हो गई मिठास, जीवन से, हर जगह कड़वाहट भर आई है।।     रस्सी की बुनी खाट बेच दी, मैट्रेस ने जगह बनाई है।  अचार, मुरब्बे को धकेल कर, शो केस में सजी दवाई है।।   *माटी की सोंधी महक बेच के, रुम स्प्रे की खुशबू पाई है।*   मिट्टी का चुल्हा बेच दिया, आज गैस पे बेस्वाद सी खीर बनाई  है।।   *पांच पैसे का लेमनचूस बेचा, तब कैडबरी हमने पाई है।* *बेच दिया भोलापन अपना, फिर मक्कारी पाई है।।* सैलून में अब बाल कट रहे, कहाँ घूमता घर- घर नाई है। दोपहर में अम्मा के संग, गप्प मारने क्या कोई आती चाची ताई है।।   मलाई बरफ के गोले ...

जरूरत

एक सच्चा हमदर्द, एक सच्चा शुभचिंतक हमें हमसे बेहतर जानता है। वो हमारी जरूरतों और हमारी ख्वाहिशों के बीच के अंतर को बखूबी समझता है.. अब क्योंकि हर किसी के पास सीमित संसाधन होते है, एक सीमित समय होता है इसलिए उसकी पहली प्राथमिकता हमें वह सब कुछ देना होता है जिसकी हमें जरूरत होती है, न कि वो जो हमें पसंद होता है.. पर अफसोस की हममें से अधिकतर उनके इन प्रयासों को, उनकी इस निर्णयक्षमता को, उनके इस प्यार को, उनके इस त्याग को कभी समझ ही नही पाते. हमारा स्वार्थ, हमारा लालच हमें इतना अंधा बना देता है कि हमें अगर कुछ याद रहता है तो बस इतना की हमें क्या नही मिला, हमारा कौन सा ख्वाब पूरा नही हुआ.. हमारी मूर्खता और हमारी अदूरदर्शिता की वजह से जन्मीं इसी तकलीफ को ही हम अपना नसीब मानने लगते हैं। यही वो समय होता है जब कुछ न मिलने का गम, जो मिला है उस खुशी से ज्यादा हो जाता है..  केवल इसलिए की हमारे कुछ ख्वाब पूरे नही हुए, हम उन जरूरतों को भी पूरी तरह से नजरअंदाज कर देते हैं जो हमारे अपनो ने पूरी की हैं। उनके प्रयासों के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना तो बहुत दूर की बात है, हम दिन रात उन्हें दुत्कारने ...

हर घर तिरंगा

किसी कवि/कवयित्री (शायद कविता कादम्बरी) की दो पंक्तियां लंबे समय से मेरे दिल को छू गयी है, "मेरे बेटे, कभी इतने धार्मिक भी मत होना  कि ईश्वर को बचाने के लिए इंसान पर उठ जाय तुम्हारा हाथ, न कभी इतने देशभक्त कि घायल को उठाने को झंडा जमीन पर न रख सको।" बहरहाल! यह तो महज़ कविताएं हैं लेकिन हकीकत यह है कि मैँ कभी भीड़ का हिस्सा नहीं बना आजतक। यह मेरी कोशिश भी रही।  तिरंगा मेरे दिल में है और संविधान मेरे दिमाग में। शायद उसे साबित करने के लिए मुझे कभी किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ेगी? फिर भी यह कहना चाहता हूं कि अमृत महोत्सव का हिस्सा जरूर बनें मगर किसी मूर्खता का हिस्सा कभी न बनें।  अमृत महोत्सव यह कि हम गोरों से सच में आज़ाद हुए हैं, जिसका जश्न वाज़िब है और मूर्खता यह कि हम सदा भीड़ का भी हिस्सा रहे हैं? हर घर तिरंगा हो वह ठीक है, पर हर व्यक्ति के पास घर हो, क्या यह कोई चिंताजनक विषय है या कोई प्रायोजित प्रोपगेंडा? डीपी से अधिक चिंता कोई जीडीपी की करे तो क्या यह देशभक्ति है या देश के खिलाफ द्रोह अथवा देशविरोधी विचारधारा? यह तमाम सवाल इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैँ जानता हूँ इस तरह ...

ज़िन्दगी रे

【ज़िंदगी, सुक़ून, और सफ़र..】 ज़िंदगी जैसे तमाम तरह के भ्रमों से घिरी हुई है, और सबसे बड़ा भ्रम है कि इंसान सोचता है जैसे वो हमेशा ज़िंदा रहेगा, जो ज़िंदगी का सबसे बड़ा झूठ है. हम सच जानते हैं लेकिन उसे स्वीकार नहीं करते, हम इस तरह जीते हैं मानो क़यामत तक ज़िंदा रहेंगे. अपने आज की परवाह नहीं करते, और बस कल को सुधारने के लिए अपने आज को जीते नहीं; अंततः आप हमेशा आज में ज़िंदगी ढोते रहते हैं और जिस कल के लिए ये सब करते हैं वो कभी नहीं आता.  हर 'कल' आपका, हर रोज़ 'आज' हो जाता है और आप एक नए कल के लिए इस आज के बीतते लम्हों को भी नज़रंदाज़ किए रहते हैं, और अंततः आप एक अटल सत्य से मिलते हैं, 'मृत्यु', जो अंत में आनी ही थी, बस आप ही बेफ़िक्र हुए बैठे रहे कि जैसे ज़िंदगी अनंत है, लेकिन वैसा कुछ होता नहीं.  ज़िंदगी का अटल सत्य है मौत, लेकिन हम भुला देते हैं इसे. ज़िंदगी और मौत जैसे मोमबत्ती के धागे के सिरों की तरह है, मोमबत्ती के जल उठने के बाद ही से धागा मोम के साथ जलना शुरु हो जाता है, और एक दिन जब मोम और धागा दोनों ख़त्म हो जाते हैं, तो सब ख़त्म हो जाता है.  आप भी जानते हैं कि वो दिन आना ह...

जो होना है सो ...

कहते हैं कि एक राजा ने ऐलान किया कि शहर भर के सभी ज्योतिषीयों को बुलाया जाय, हम उन्हें तोहफे में अशर्फियाँ देंगे। एक से बढ़कर एक ज्योतिषी इनाम के लालच में राजा के दरबार पहुंच गए। राजा ने आदेश दिया कि सबको बंदी बनाकर सलाखों के पीछे डाल दो। ज्योतिषी कहने लगे, हे राजन! हमारा कसूर तो बताओ। राजा ने कहा यदि तुम सच में ज्योतिषी होते तो यहां क्यों आते? , यह तो कथा हुई लेकिन वास्तव में भविष्यवाणी करने वाला भारत का सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति था बेजान दारूवाला। जिसदिन कोरोना के चलते मृत्यु हुई, वह खुद के भविष्य का अंदाजा तक नहीं लगा सका था। कुछ हदतक हम कुछ चीजों का अवलोकन करते हैं, वही अवलोकन हमारी भविष्यवाणी होती है। यह एक कला है ठीक जैसे रियलिटी शो में कई हुनरबाज आकर अपनी अचंभित करने वाली कला का प्रदर्शन करते हैं।  विदेशियों ने टेलीविजन, मोबाईल, मीडिया, सोशल मीडिया, तकनीक इत्यादि को ज्ञान और विज्ञान के प्रसार के लिए इस्तेमाल किया जबकि भारत ने अंधविश्वास, पाखण्ड, साम्प्रदायिकता फैलाने तथा झगड़ा करवाने, 11 लोगों को मैसेज भेजकर पुण्य कमाने इत्यादि के लिये इस्तेमाल किया। धारावाहिक, फिल्मों, विज्ञापनों...

लेखन

लिखने में भी एक अलग ही सुकून है, लिखकर हम अपने आप को बहुत हल्का महसूस करते हैं। वे सब बातें जो हम सोचते हैं और देखते हैं या किसी से सुनते हैं। वे सभी बातें हमारे दिमाग में इकट्ठा हो जाती हैं,,, और हमारे दिमाग में चलती रहती हैं,       क्योंकि जो बातें हमारे दिलों दिमाग में होती हैं, उनमें से हम कुछ बातें ही दूसरे व्यक्तियों के सामने व्यक्त कर पाते हैं। बाकी बातें हमारे दिमाग में ही रह जातीं हैं,जिससे हम अपने आप को बहुत थका-थका सा महसूस करते हैं, बातों में भी बोझ होता है,, अगर इसे कम न किया जाए तो वह हमारा मानसिक संतुलन बिगाड़ देता है। इससे हमारे अंदर चिड़चिड़ाहट और गुस्सा उत्पन्न होता है,, आपने भी देखा होगा कुछ लोग ऑफिस से आने के बाद घर में अपनी पत्नी व बच्चों से कुछ रुखा व्यवहार करते हैं।        ऐसा नहीं है कि वे लोग अपनी पत्नी या बच्चों से प्यार नहीं करते है। बस वह अपने ऑफिस का फ्रस्ट्रेशन जाने-अनजाने घर में निकालते हैं। लेकिन लेखन एक ऐसी कला है,,, जिसके द्वारा हम अपने मस्तिष्क को काफी हद तक शांति प्रदान कर सकते हैं।

द कश्मीर फ़ाइल

कश्मीर फाइल्स समीक्षा फ़िल्म देखकर मजबूत से मजबूत व्यक्ति की आँखों में आंसू आयेंगे। इमोशनल होगा, डर लगेगा, गुस्सा आयेगा और तरस भी आयेगा। यानि जिस उद्देश्य के लिए फिल्में बनती है इसमें वह सभी चीजें भरपूर से अधिक हैं। फ़िल्म के लिहाज़ से इसमें कोई बुराई नहीं है। बुराई और अच्छाई क्या वह नीचे के पैराग्राफ्स में समझें मगर फ़िल्म देखते हुये आप विचलित भी होंगे यह इसका मुख्य विषय है।  अब आते हैं उस ऐतिहासिक घटना पर जिसपर बेस्ड यह फ़िल्म है यानि कश्मीर तो यदि कोई सच्चा इतिहासकार, निष्पक्ष पत्रकार, जागरूक, शैक्षिक ईमानदार नागरिक हो वह आधे से भी अधिक तथ्यों और बातों से असहमत होगा यदि उसने खुद से जाना, पढ़ा हो तभी। यदि सच जानने का आपका कोई अन्य स्रोत नहीं तब फ़िल्म के हिसाब से आप कुछ भी गलत नहीं कह सकते हैं। फ़िल्म में सही क्या है.  फ़िल्म में क्रूरता वास्तविक है, फ़िल्म में डर का माहौल वास्तविक है, फ़िल्म में खौफनाक वारदातें वास्तविक है, साम्प्रदायिक दृष्टिकोण वास्तविक है, मीडिया, पुलिस और प्रशासन की लाचारी वास्तविक है, षडयंत्रकारी नीतियां वास्तविक है, शासन की अनदेखी वास्तविक है, पलायन, अपनों को खो...

ज़िन्दगी रे

शोक_संदेश_ट्रेंड * जिंदगी इस तरह चलती है कि किसी के जाने से कोई काम नहीं रुकता. हाँ जाने वाले के करीबी लोग ज़रूर प्रभावित होते हैं पर वक़्त के वे भी साथ सामान्य हो जाते हैं * दुनिया सूनी हो गई, कला या साहित्य जगत की अपूर्ण क्षति हो गई, संगीत गूंगा हो गया, इस तरह के वाक्य अतिशयोक्ति लगते हैं क्योंकि जिसको जितना योगदान करना होता है वो अपने जीवनकाल में कर चुका होता है. यही कुदरत का नियम है. कितने राजे, महाराजे, संत, राक्षस आये गए दुनिया में रौनक कायम रही. * सोशल मीडिया के इंस्टेंट दौर में शोक भी क्षणिक हो गया है किसी की मृत्यु पर 500 शब्दों का शोक संदेश लगाने वाले दस मिनट बाद ही अपनी सेल्फ़ी, घर में बनी कोई स्पेशल डिश, कविता, घर का कोई रचनात्मक कोना आदि बीसियों #️⃣hashtag के साथ लगा देते हैं. * एक और बात मुझे मजेदार लगती है वो ये कि "ऐसे भी कोई जाता है, गलत बात" तो क्या कोई विधिवत घोषणा करके जायेगा?  मृत्यु छिपी हुई है इसलिए शायद हम सब आनंद से जी पाते हैं. * जाने वाले के साथ अपनी तस्वीर लगा कर अपना गुणगान करने लगना या जाने वाले की कमियां गिनाने लगना, दोनों में अपार सुख मिलता है ...

लता मंगेशकर

लता जी का जाना, किसी सरस्वती के साकार से निराकार हो जाने जैसा अनुभव है। बहुत लम्बी तपस्या के बाद वरदान देने को प्रकट हुई किसी देवी के अंतर्धान हो जाने पर तपस्वी को जो अनुभूति होती होगी, ठीक उसी अनुभूति से आज भारत का एक-एक बाशिंदा गुज़र रहा है।  भारतभूमि के सहस्रों पुण्य फलित हुए तब जाकर तिरानबे वर्ष पहले देवी ने इस धरा पर जन्म लिया और भारतीय संगीत उस देवी के सुरम्य वरदानों से निखर उठा। अलाप, मुरकी और गायन की ऐसी-ऐसी हरक़तें संगीत के आंगन में किलोल करने लगीं कि कान से लेकर मन तक निहाल हो गया। 'मेरी आवाज़ ही पहचान है' गाते हुए जब उन्होंने 'आवाज़' शब्द गाया तो ऐसा लगा जैसे उनके कण्ठ में विद्यमान माँ वाणी लास्य कर उठीं। 'नैनों में बदरा छाए' गीत ने जब उनके कण्ठ का तीर्थ किया तो ऐसा लगा जैसे धैर्य के उत्तुंग शिखर से मिलन कि प्यास का झरना फूट पड़ा हो। 'लग जा गले' के शब्दों को जब उस स्वर का संसर्ग मिला तो ऐसा लगा मानो दुर्भाग्य के द्वार पर खड़े सौभाग ने वक़्त के उस लम्हे को अपने बाहुपाश में समेट लिया हो। और 'ऐ मेरे वतन के लोगो' को जब लता जी ने अपनी आवाज़ दी तो ऐ...

ऐसे जिये

जरूर पढ़ें... जीवन को समझने का एक अलग नजरिया  (काँच की बरनी और दो कप चाय) जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी – जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , ” काँच की बरनी और दो कप चाय ” सबकुछ समझा देती हैं दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं … उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की   बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची … उन्होंने छात्रों से पूछा – क्या बरनी पूरी भर गई ?  आवाज आई - हा  फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे – छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये  धीरे – धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई   है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ … कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले – हौले उस बरनी में र...

ऐसे जिये

सामान्य जीवन में मिलने वाले दुखों का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार है- 'शिकायतों, आलोचनाओं से मिलने वाले दुःख'। सामान्यतः लोगों को कोई न कोई शिकायत रहती है, जो उनके दुःख का कारण बनती है। चाहे समय से हो, भाग्य से हो, सरकार से हो, समाज से हो, दूसरों से हो या अपनों से हो ...शिकायतें बहुत दुःख देती हैं। शिकायतों, आलोचनाओं से दुःख क्यों होता है? मनोवैज्ञानिक दृष्टिबिन्दु से देखें, तो किसी भी शिकायत की सबसे प्रमुख वजह है निर्भरता। निर्भरता उम्मीद की साथिन भी होती है और संतति भी। उम्मीद है कि खाना अच्छा मिलेगा, नहीं मिला तो शिकायत है। अगर बच्चे से उम्मीद है नब्बे प्रतिशत की और अस्सी प्रतिशत अंक आ गए, तो शिकायत है। लेकिन अगर उम्मीद ही होती सत्तर प्रतिशत की और अस्सी प्रतिशत आ जाते, तो कोई शिकायत नहीं जन्मती, अपितु ख़ुशी होती। उम्मीद ज़्यादा, तो शिकायत ज़्यादा। उम्मीद कम, तो शिकायत कम। उम्मीद है कि मित्र गाढ़े वक़्त में कुछ मदद करेगा; क्योंकि कभी उसकी मदद की थी-अब उसने मना कर दिया तो शिकायत है। अगर पहले से ही उम्मीद न होती कि मित्र कोई मदद करेगा, तो शिकायत नहीं होती। आश्चर्य नहीं कि पति-पत्नी एक दूस...

खुद को बदले

(नया साल,नई बात, उम्मीदों की) सिर्फ़ कैलेंडर बदल रहा है, एक तारीख़ बदल रही है, लेकिन आप ओर हम  तो वही हैं जो पहले थे, और हमारी परेशानियाँ भी वही हैं, और परिस्थितियाँ भी. ऐसा कई लोग कहते हैं कि नया साल आने से क्या ही बदलता है. ऐसे लोगों से कहना चाहता हूँ कि नया साल मतलब एक नई डायरी, एक नया चैप्टर और एक नई सुबह.  माना कि आपकी परिस्थितियाँ नहीं बदलतीं, लेकिन आप इसे एक बुकमार्क तो बना ही सकते हैं न.  नया साल और नई तारीख़ एक बहाना हो सकता है, कि आप कुछ नया सोचें, प्रण लें कुछ नया करने का या नए तरीक़े से करने का, एक नई सोच को जीने का, एक नए ख़्याल को परवाज़ देने का, और एक लड़ने के संकल्प का.  मानता हूँ कि एक तारीख़ भर बदल जाने से कुछ नहीं बदलता, लेकिन इसे एक मौके की तरह तो ले ही सकते हैं. दिल की सुनने का और अपने मन की करने का नियम तो बना ही सकते हैं. वो करने का मन बना सकते हैं जो करना चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाते. कभी-कभी कुछ चीज़ों को नज़रिए के तराज़ू से तौल लेना चाहिए, ताक़ि याद रहे कि ज़िंदगी ऐसे तो हर लम्हे में है लेकिन जो हम भूल चले हैं उसे नए पन्ने से एक बार फ़िर शुरू करते हैं. हँ...