जरूरत
एक सच्चा हमदर्द, एक सच्चा शुभचिंतक हमें हमसे बेहतर जानता है। वो हमारी जरूरतों और हमारी ख्वाहिशों के बीच के अंतर को बखूबी समझता है..
अब क्योंकि हर किसी के पास सीमित संसाधन होते है, एक सीमित समय होता है इसलिए उसकी पहली प्राथमिकता हमें वह सब कुछ देना होता है जिसकी हमें जरूरत होती है, न कि वो जो हमें पसंद होता है..
पर अफसोस की हममें से अधिकतर उनके इन प्रयासों को, उनकी इस निर्णयक्षमता को, उनके इस प्यार को, उनके इस त्याग को कभी समझ ही नही पाते.
हमारा स्वार्थ, हमारा लालच हमें इतना अंधा बना देता है कि हमें अगर कुछ याद रहता है तो बस इतना की हमें क्या नही मिला, हमारा कौन सा ख्वाब पूरा नही हुआ..
हमारी मूर्खता और हमारी अदूरदर्शिता की वजह से जन्मीं इसी तकलीफ को ही हम अपना नसीब मानने लगते हैं। यही वो समय होता है जब कुछ न मिलने का गम, जो मिला है उस खुशी से ज्यादा हो जाता है..
केवल इसलिए की हमारे कुछ ख्वाब पूरे नही हुए, हम उन जरूरतों को भी पूरी तरह से नजरअंदाज कर देते हैं जो हमारे अपनो ने पूरी की हैं। उनके प्रयासों के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना तो बहुत दूर की बात है, हम दिन रात उन्हें दुत्कारने लगते हैं, धिक्कारने लगते हैं..
मन के किसी कोने से एक आवाज़ बार बार उठती भी रहती है कि कहीँ कुछ तो ऐसा हैं जो हम गलत कर रहे हैं, लेकिन हमारा गुस्सा, हमारा स्वार्थ, हमारा लालच हमें हमारी इस बुराई को कभी भी स्वीकार नही करने देता..
ऐसा नही कि हम सभी को एक सच्चा शुभचिंतक नही मिलता बल्कि सच ये है की हममें से ज्यादातर या तो उन्हें खो आए हैं या उन्हें खोने की कगार पर है..
हममें से हर किसी का नसीब बुरा हो यह जरूरी नही, बल्कि हमें खुद भी अपनी खुशनसीबी को बदनसीबी में बदलना आता है और इस खेल में हम बहुत माहिर होते हैं..
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