मन का


कभी-कभी सोचता हूँ कि कितने ही लोग हैं जो कितना कुछ अपने ही भीतर लेकर जीते रहते हैं, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाते वो कहने, करने या होने का, जो वो असल में चाहते हैं.

कितने हो होंगे जो मन में बस इस डर को लेकर जीते हैं, कि अगर कह दिया तो क्या होगा, अगर कर दिया तो क्या होगा, या अगर वो होने की कोशिश की जो होने का मन है तो क्या होगा..सामाजिकता, नियम, और क़ायदों के डर की बेड़ियों में बस जकड़े हुए जीते हैं, मानो अपने दिमाग़ के भीतर एक काल-कोठरी बना रखी हो और उसी में पड़े-पड़े गुज़ार भर रहे हैं ज़िंदगी..

मुझे नहीं पता कि लोगों को क्या समझ आता है, लेकिन इत्ती सी ज़िंदगी में अपने लिए कुछ लम्हे चुरा लेने का हक़ और फ़ैसला हर एक को लेना ही चाहिए..कितनी ही बातें या लोग हों, अपने मन की भी कर लेना ज़रूरी है..हर एक की समझ अलग है, अपब्रिंगिंग अलग है, सोच अलग है, लेकिन अपने लिए सभी को सोचना ही चाहिए.

क्यूँ नहीं हम थोड़ा ख़ुद के लिए जी लेते, थोड़ा सा पागल हो लेते, थोड़ी सी मस्ती अपने मन के हिसाब से करते, थोड़े से दोस्त ऐसे बनाते जिनके हम होना चाहते हैं, थोड़ी सी रिवायतें तोड़ते, थोड़े से लम्हे दुनिया की आँखों में धूल झोंककर ख़ुद के लिए चुराते, थोड़ी चोरी करते, थोड़ी मस्ती करते..और थोड़ा वो पागलपन करते जो करना चाहते हैं..

क्यूँ चाँद के पिछले हिस्से या 'डार्क साइड ऑफ द मून' की तरह कुछ छिपी हुई शरारतें, किस्से और लोग हमारे भी होते, जिनके बारे में सिर्फ़ हमें या हमारे कुछ ख़ास को पता होता, जिन्हें सोचकर हम उस वक़्त मुस्कुरा सकें जब अंत समय में हों, और सोचें कि कुछ तो था जो अपने लिए और अपने मन के लिए किया. 

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