ओरत
में जब भी देखता हूँ तो सबसे ज़्यादा सामाजिक रिवाज़ों, पितृसत्ता, और कायदों का विक्टिम स्त्रियों को ही पाता हूँ, जैसे उन्हें इंसान ही नहीं समझा जाता, जैसे उनकी राय की, उनकी सोच की, और उनके ख़यालों की कोई वैल्यू ही न हो
और मानसिक ही नहीं शारीरिक तौर पर भी उनकी इच्छाओं का सम्मान करना ज़्यादातर लोग ज़रूरी नहीं समझते..बहुत से मामलों में तो उनके अपने माँ-बाप ही उन्हें ज़िन्दगी चलाने के लिए ऐसे रिश्तों को ढोते रहने और सहने को मजबूर करते हैं जो एक स्त्री के लिए नर्क से भी बुरा होता है..
ऐसा नहीं कि पुरूषों को परेशानियाँ नहीं होतीं, या उनके साथ ग़लत नहीं होता, लेकिन जिस तरह के सामाजिक ताने-बाने से हमें बुना गया है, और जिस तरह के धार्मिक ग्रंथों या कहानियों से संदर्भ लिए जाते हैं स्त्री के बंधनों को जस्टिफाई करने के लिए वो तो अति है हर मामले में..और उस पर स्त्रियों की अपनी परेशानियाँ इस तकलीफ़ को कई गुना बढ़ा देती हैं..
जो भी हो, मुझे जो लगता है, महसूस होता है वो लिख देता हूँ बिना ये सोचे कि किसे क्या लगेगा..कुछ ग़लत लगता है तो कह देता हूँ, कुछ अच्छा लगता है तो तारीफ़ कर देता हूँ, और कमाल की बात है कि कि औरत इस दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत कृति है, जिसके साथ ही सबसे ज़्यादा ग़लत होता है..बचपन से बंधन, बुरी नज़रें, बेमन की शादी, मैराइटल-रेप्स, वग़ैरह-वगैरह..हज़ारों चीज़ें तो मैं ही गिना सकता हूँ जबकि एक पुरुष होते हुए उनकी सारी परेशानियाँ तो समझ भी नहीं सकता और न ही जान सकता हूँ..
जो भी है, मुझे ख़ैर फ़र्क़ नहीं पड़ता..एक औरत कैसी भी हो और कोई भी हो, मेरे नज़रिए में हर स्त्री इस दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत कृति है, और रहेगी बिना किसी जजमेंट के.
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