मुफलिसी
कितनी खामोश होती है मुफलिसी,अपनी टेढ़ी जुबान में !क्योंकर कोई नजर देख नहीं पाती,इसे इस जहान में ।कितनी आह, कितना दर्द, कितनी भूख दिखाई देती है,सब मसरूफ हैं खुद में, बदली-सी निगाहें दिखाई देती है ।कहीं तो रोती है जवानी, कहीं बिखरता आंख का काजल,उतने ही पैबंद लिए तन को,छुपाता किसी मां का आंचल।कितनी खामोश है मुफलिसी, क्यूं लफ्जों में बयां नहीं होती है !मासूम-सी अबोध कन्याएं फिर, कौड़ी-कौड़ी के लिये बिकती हैं।कितनी ही बहनों की डोली, फिर सपने में भी नही सजती है।असहाय कमजोर बदन को लेकरजब कोई बाप यूं सुलगता है, मजबूर ख्वाहिशों का धुआं छोड़ते,कोने-कोने में चिलम पीता है।
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