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सितंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

असफलता

असफलता  एक ऐसा शब्द है जिसे कोई भी शायद नहीं सुनना  चाहता मगर असफ़लता हमारे जीवन में उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी सफलता कोई भी काम जिसमे हम असफल हो जाते है उसके बाद उस काम को करने और उसमे सफल होने की ख़ुशी पहले से कई गुना ज्यदा बढ़ जाती है या यू कहे की असफ़लता ही सफलता की कुंजी है जो इन्सान असफ़लता से घबरा कर अपनी मंजिल का रास्ता बदल देता है वो इंसान अपनी मंजिल को हमेशा के लिए खो देता है यदि आप  देर से मिलने वाली सफलता से निराश हो जाते है और निराशावादी विचारो को अपने दिल और दिमाग में हावी होने देते है तो  ऐसे आप  अपनी असफ़लता को खुद ही बुलावा देते है यदि सफलता बिना संघर्ष के मिल जाती तो शायद सफलता का फल इतना मीठा न होता लोगो की नज़र में सफलता का महत्व न रहता कोई भी ऐसा नही है जिससे बिना संघर्ष करे सफलता मिल गयी हो  असफल हो जाने पर हमे ये पता चलता है की हमारी तय्यारी में कहा गलती हो गयी हमे उन बातो का अध्यन करना चाहिए और फिर से उसकी तय्यारी करनी चाहिए और उन बातो को धयान में रख के मेहनत की शुरुवात करनी चाहिए ताकि दुबारा वो गलती न हो ...

कुछ देर एकांत में बैठ कर देखें !!!!

यह पंक्तियाँ पढ़कर निश्चय ही आप सोच रहे होंगें कि आज के सुपरफास्ट युग में जब कि मल्टीटास्किंग का दौर है भला एकांत में खामोश बैठना किसे मयस्सर है ? वैसे आप की बात है भी सोलह आने सच .पर सिर्फ एक बार यदि आप अपनी व्यस्त दिन चर्या से कुछ पल चुरा कर खामोश हो कर बैठ पायें तो जो शांति और सुकून आप महसूस करेंगे वो एक अनमोल अहसास होगा । वास्तव में मुझे भी यह अनमोल अहसास ,अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा गुजारने के बाद ही हुअा।.हरदम यूँ ही भागते रहना ।न जाने कितना समय मोबाइल/फ़ोन पर गुजारना .या फिर टीवी पर कुछ भी देखने रहना यह सब कितना थका देता है और साथ ही हमें खुद से ही कितना दूर कर देता है।.हर पल चौथे गियर में गाडी चलाने वाले को जैसे सडक पर आने जाने वालों की कोई खबर नही होती और आसपास गुजर रहे नजारों से बेखबर ड्राईवर की तरह हम भी तो ऐसे ही जीते है अपना जीवन ।थोडा रुक कर जब देखा तो पाया कि कितना बेढंगा तरीका यह जीने का ?कहाँ भागे जा रहें हम यूँ बेतहाशा ? खमोश हो खुद से एक मुलाकात की तो देखा कि जिन्दगी तो बिखरी हुई एक किताब की तरह चारों ओर फैली हुई है ।हाथ बढ़ा कर पन्नों को ब...

रेप से नहीं, रेपिस्ट से नफरत करो?

- रेप की पीड़ा से गुजरना क्या होता है यह आप पुरुष कभी नहीं समझ सकते।‘ - बहन की इज्जत क्या होती है, यह तुम कभी नहीं समझ सकते, तुम्हें बहन नहीं है ना।‘ - बेटा गंवाना क्या होता है, तुम क्या जानो? जिसका जवान बेटा मर जाए आंखों के सामने, वही समझ सकता है बूढ़ी आंखों से झलक रही उस असह्य वेदना को... - आप बड़े शहरों के लोग क्या समझेंगे गांव के खेत मजदूरों के पहाड़ जैसे दुर्गम जीवन को, जिसे शाम के भोजन की चिंता से ज्यादा अपने बच्चों का अंधकारमय भविष्य सालता रहता है... - एक दलित का गम... मीठे बोलों और चाय की प्यालियों के बीच हल्की सी मुस्कान पर चढ़कर आता अपमान का विष बुझा तीर… कैसे सीना छलनी कर देता है यह एक दलित ही समझ सकता है... - आदिवासी होना क्या होता है, इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। विस्थापन के दर्द को महसूस करने के लिए... ये और ऐसे ही वाक्य अलग-अलग संदर्भों में हम सबको सुनने को मिलते रहते हैं। क्या सचमुच एक इंसान की पीड़ा का दूसरे इंसान के दिलो-दिमाग तक पहुंच कर उसे झकझोर डालना इतना मुश्किल होता है? अगर कोई दलित है तो क्या वह बगैर आदिवासी हुए किसी आदिवासी का दर्...

मानवीय संवेदनाओ का जाना

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जब भी देखा है , सोचा-समझा है, यही पाया है कि धन का आना और मानवीय संवेदनाओं का जाना साथ-साथ ही होता है। बहुत हैरान करती है ये बात कि कल तक जो परिवार स्वयं आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे, आज थोङा आर्थिक संबल पाते ही मानवीय संवेदनाओं से कोसों दूर हो चले हैं। धन के आने से रहन सहन ही नहीं सोचने समझने का रंग ढंग भी बदल जाता है। आत्मीयता खो जाती है और उनके विचार-व्यवहार में आत्ममुगध्ता न केवल आ जाती है बल्कि चारों ओर छा जाती है ।  यूँ अचानक आये धन के स्वागत सत्कार में जुटे परिवार भले ही स्वयं संवेदनहीन जाते हैं पर उन्हें अपने लिए पूरे समाज से सम्मान और संवेदनशीलता  की अपेक्षा रहती है । इतना ही नहीं अन्य लोगों को लेकर उनकी क्रिया - प्रतिक्रिया बस  नकारात्मक ही रह जाती है । वाणी के माधुर्य से तो मानो कभी परिचय ही न था । इन लोगों के मन यह विचार तो इतना गहरा उतर जाता है कि सगे सम्बन्धी हों या दोस्त, उनसे जो मिलता है उसका अपना कोई स्वार्थ होता है ।  रिश्तों को सहेजने का कर्म तो उसी दिन निभाना बंद कर देते हैं ...

इंसानियत

इंसान चाहे किसी भी मजहब का हो लेकिन इंसानियत से बड़ा कोई मजहब नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति के खून का रंग एक होता है। धर्म या जाति से कोई व्यक्ति छोटा बड़ा नहीं होता, छोटा-बड़ा अपने कर्म से होता है।  आज हर ओर धर्म को लेकर बहस छिड़ी हुई है. जिदंगी के झंझावतों से दूर कुछ पल शांति से बिताने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने सुझावों को आम लोगों के साथ साझा किया था. उनमें सबसे बड़ी बात थी कि इंसान को जानो, इंसानियत को हमेशा अपने में जिंदा रखो. इंसानियत का अर्थ यही है कि अगर दूसरे का दुःख दूर न कर पाओ तो उसके दुःख को आपस में इतना बांट लो, कि दुःख का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए. दुःखों से त्रस्त जनता ने इन सुझावों को ही सर्वोपरि माना, इसी बीच कुछ मौकापरस्त लोगों ने इसका अलग ही अर्थ निकाल लिया और फिर शुरू हुई वह जंग, जिसमें सबसे पहले इंसानियत की बलि दी गई और जब इंसानियत ही जिंदा नहीं रही, तो इंसानों का क्या मोल. धर्म की इस लड़ाई में आज तक अनगिनत जाने चली गई और न जाने कितनी और जाती रहेगी. हालात इतने खराब हो चुके है कि पूर्वजों द्वारा स्थापित शांति स्थल मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा या फि...

सुरक्षा के लिए कानून

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todays my view -- भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए अनेक कानूनी प्रावधान किए गए हैं। फिर भी आए दिन महिलाओं के साथ छेड़छाड़, भेदभाव होता रहता है। प्रताड़ना, शोषण, बलात्कार, यौन उत्पीड़न व यौन हिंसा जैसी घटनाएं निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। महि लाओं की सुरक्षा का सवाल भारत में ही नहीं है, बल्कि दुनिया के बहुत से देशों में चिंता का विषय है.. लेकिन असल सवाल भारत या विदेश का नहीं, सभी लोगों के द्वारा खुद को सुरक्षित महसूस करने का है हमारे देश में महिलाओं, किशोरियों के साथ बलात्कार, छेड़छाड़, अमानुसिक उत्पीड़न की घटनाएं समय-समय पर सामने आती रहती हैं. कोई हमें यह बताये कि भारत महिलाओं के लिए स्वर्ग है या नरक, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. फर्क तब पड़ेगा जब आम भारतीय जनमानस ऐसी घटनाओं के प्रति सजग होगा. वर्षो पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थी, यह बात कोई दावे के साथ नहीं कह सकता था, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि ऐसी घटनाएं आम नहीं थीं. अब लोग सीमा लांघते जा रहे हैं. हरेक समाज में, चाहे वह गांव का समाज हो या शहर का, ऐसा लगता है कि एक तरह की असुरक्षा की भावना बढ़ी है. इसके लिए कौन जिम्...

गुरू मंत्र बिन गूगल भी बेकार

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( शिक्षक दिवस 05/09/2013 ) गुरू मंत्र बिन गूगल भी बेकार आज ई-बुक्स, डिस्टेंस लर्निग, स्मार्ट क्लासेस, स्मार्ट बोड्र्स और ऑनलाइन परीक्षा का जमाना आ गया है, शिक्षक परोक्ष रूप से सामने नहीं रहते हैं। गूगल और विकीपीडिया हमारे नए शिक्षक बन गए हैं। इंटरनेट की मदद से हमें चुटकियों में दुनियाभर का ज्ञान मिल जाता है, पर व्यावहारिक जीवन और नैतिक शिक्षा देने वाले शिक्षकों के बिना जीवन का विकास संभव नहीं है। इंटरनेट से हमारी बुद्धि भले ही विकसित हो जाए, पर जो जीवन मंत्र गुरू देता है, उसकी कमी खलती है। बचपन से लेकर जवानी तक शिक्षक हमें राह दिखाते हैं। इस शिक्षक दिवस पर हमें चिंतन करना होगा कि वर्चुअल और टेक्नोलॉजी की दुनिया से निकलकर किस तरह से अपने शिक्षकों का सम्मान किया जाए। थोड़ी सी सफलता पाकर ही हम सफलता पर प्रवचन देने लगते हैं, पर क्या कभी सोचा है कि मन-मस्तिष्क में रचे-बसे सफलता के इन सूत्रों का सूत्रधार कौन है? किसने हमें स्वतंत्र सोच रखना सिखाया? मन गलत काम करने से डरता है, ये डर किसने बैठाया मन में? किसने बताया कि ईमानदारी और मेहनत के रास्ते पर चलकर ही सुख पाया जा ...

आरक्षण

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सर्वप्रथम तो मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की मैं आरक्षण विरोधी नहीं हूँ, मुझे भी लगता है की पिछड़ो के लिए आरक्षण होना चाहिए, पर सिर्फ़ जाति के हिसाब से नहीं बल्कि आर्थिक रूप से पिछड़ो के लिए भी. आरक्षण हमेशा से विवादित विषय रहा है और अगर आप इस पर कुछ कहते है तो उस पर विवाद होना स्वाभाविक है, पर जहाँ तक मुझे लगता है इसे जान बुझ कर विवादित बनाया गया है ताकि कुछ राजनेताओ की राजनीति धूमिल ना पड़े. इसमे कोई शक नहीं कि जब हमारे देश मे आरक्षण व्यवस्था लागू की गयी थी तब कुछ जातियों की हालत बदतर थी, उँची जाति के लोग उन्हे छूना भी पाप समझते थे, ऐसी हालत मे उन जातियों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए आरक्षण ज़रूरी था. परंतु आज जब हमारे समाज का आधा से ज़्यादा हिस्सा इन सब बातों से काफ़ी उपर उठ चुका है तो फिर आरक्षण की राजनीति क्यों? उस समय जाति धर्म को ना मानने वाले अपवाद की श्रेणी मे आते थे परंतु आज जाति के नाम पर छुआछूत को मानने वाले अपवाद की श्रेणी मे आते हैं ऐसे मे क्या आरक्षण का स्वरूप बदलना उचित नहीं होगा? इसका कोई विरोध नहीं कर सकता की जब बाबा भीम राव अंबेडकर...