लोकतंत्र और आम आदमी
राजनितिक दलों की डिमांड एंड सप्लाई के बीच फंस कर आम आदमी चुनावों के दरमियान एसा आपा खो बैठता है कि सरकार बनने के महीनों बाद उसे याद आता है उसका जीवन सरकार के सरोकारों के बिना पूरा होना सम्भव नहीं लेकिन सरकार जिन सरोकारों का पोषण कर रही है वो जीवन की कठिनाइयों का कारण बन चुके हैं। ऐसे में पछताने के सिवा एक आम आदमी कर ही क्या सकता है ? इसी अनाड़ीपन के चलते भारतीय नागरिक जीवन पैंसठ वर्ष गंवा चुका है। दरअसल मतदान के समय फोकस में रहने वाले विषय व्यक्ति के जीवन से जुड़े ही नहीं होते बल्कि अँधा कुआँ होते हैं जिसमे व्यक्ति राजनितिक दलों की सहायता से खुद को नाप तोल कर सबसे गहरे फेंकता है अगले पांच वर्ष वापस न लौटने के लिये।क्या जाति धर्म क्षेत्र कभी जीवन जीने में और उसकी समस्याओं के समाधान में सहायक हुआ है ? फिर क्यों इसी आधार पर देश प्रदेश की सरकारें बन जाती हैं ? या तो वोटिंग पैटर्न गलत है या जीवन गलतियाँ कर रहा है सम्भावना दूसरी अधिक प्रबल है। चुनावों से दूर जब व्यक्ति जीवन यापन कर रहा होता है उसकी आवश्यकताएँ सच होती हैं उस मिथक से दूर जिसे वह चुनावों के दौरान जी र...