प्रकृति के साथ हू मै

प्रकृति ईश्वर की वह संरचना है जिसमे मनुष्य,जानवर,कीट ,पतंग ,पेड़ पौधे आदि अपने अस्तित्व को जिंदा रखने के लिए पूर्ण रूप से आश्रित है पूर्व समय मे मनुष्यप्रकृति के अनुरूप अपनी कम आवश्यक्ताओ के साथ प्रकृति की देन का उपभोग करता था जैसे-जैसे समय चक्र बढ़ता गया मनुष्य के  आवश्यक्ताओ मे भी वृद्धि होती गई ,जिसका एक प्रमुख कारण सामने आता है , वह है जनसंख्या वृद्धि जो वर्तमान समय मे सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने खड़ा है जनसंख्या वृद्धि से बढ़ती जरूरतों को नज़रअंदाज़ नही किया जा सकता है उसी के अनुरूप मनुष्य को सर छुपाने हेतु ,मकान, अनाज हेतु ,तन को ढकने हेतु कपड़े आदि की आवश्यकता बढ़ जाती है , और शायद इन सभी स्त्रोतों का एक मात्र साधन प्रकृति है।
       यद्यपि मनुष्य मूलतः पेड़-पौधो को ही अपनी आवश्यक्ताओ मे सर्वोपरि रखता है। प्रकृति से हमे कई चीजे सीखने को मिलती है ,ये हमे उपहार देती भी है और लेती भी है ,हर मौसम,हर ऋतु हमे जीवन का कोई अनमोल सूत्र देती है। प्रकृति से हम सबसे पहले देने की क्ला को सीखे ,बिना भेद भाव ,बिना किसी पूर्वाग्रह के सबको समान रूप से बाटने का तरीका प्रकृति से सीखा जा सकता है ।
             जीवन मे सबके अपने-अपने लक्ष्य होते है लक्ष्य की पूर्ति के लिए खूब परिश्रम करना पड़ेगा ,ऐसा करते भी है लेकिन इसी तेजी और दबाव मे हम कुछ चीजे खोने लगते है, जिसका महत्व शायद आज पीटीए ना लगे लेकिन एक दिन ऐसा आयेगा की पछताना पड़ेगा । मानव अपेक्षा से अधिक मांगो को प्रकृति के समक्ष प्रस्तुत करता है और यदि प्रकृति उस प्रस्ताव को पूर्ण रूप से स्वीकार नही करती है तो मानव उसके विरुद्ध जा कर अपनी मनमानी का प्रदर्शन करता है जो की भविष्य मे एक खतरनाक मोड साबित हो सकता है। वर्तमान समय मे इस तनाव पूर्ण ज़िंदगी से निजात पाने के लिए आप को लगता है की मीलो कही दूर निकल जाए, हवा की सरसराहट के साथ , पत्तों की टकराहट को सुनते हुए , और कही दिशाहीन हो जाए तो अचानक अपने आप को सिर्फ और सिर्फ प्रकृति के साथ पाये।
      प्रकृति वास्तव मे मानव की सच्ची सहचरी है जब कोई आप के साथ नही होता तो आप प्रकृति के साथ हो लेते है या शायद वो आप के साथ हो लेती है ,मनुष्य जीवन मे जो कमी प्रकृति पूरी कर सकती है वो कोई दूसरा नही कर सकता । हम अपने भौतिक जीवन के आपाधापी मे भले कभी प्रकृति के बारे मे सोचना भूल जाए, लेकिन ये हमेशा हमे अपने होने का अहसास करती है ,प्रकृति माँ की तरह हमे अदृश्य रूप मे हमे सब कुछ देती है ,मई, जून की कड़ी धूप और गरम हवाओ से जब हम झुलस जाते है तो अचानक ही बादलो का आँचल ओढा देती है और बारिश की पहली फुहार से सारी ऊष्णता हर लेती है ,यह कहने मे हमे तनिक भी झिझक नही होना चाहिए कि हम बहुत भाग्यशाली है कि हम मनुष्य रूप मे इतनी सुंदर प्रकृति के दर्शन कर पाते है ,उसे अनुभव कर पाते है ,उसका अननंद ले पाते है दूसरी ओर उन बदनसीबों पर पछतावा भी होता है जो इसे देख नही सकता ,परंतु महसूस कर सकता है ।
      आज प्रत्येक मानव प्रकृति का नाश करने पर ही तुला है शायद वह यह नही जानता कि वह स्वयं का ही जीवन उसी प्रकार से खत्म कर रहा है ,लोगो को वैज्ञानिको की समाजशास्त्रियों की, नेताओ की बात समझ मे नही आ रही है ,ऐसे मे इसका एक उपाए हो सकता है। भारत मे अध्यात्म का वार्चस्व स्थापित है शायद यही एक हथियार है जिसका प्रयोग करके प्रकृति का नास होने से बचाया जा सकता है ।
      यदि लोगो को समझाया जाए कि प्रकृति का सार संभाल करना भी एक धार्मिक कार्य है तो शायद यह काम आसान हो जाएगा लोगो को समझाना होगा कि यह सृष्टि ईश्वर कि रचना है इसलिए इसका आदर-सम्मान करना और उसकी रक्षा से संबन्धित आज्ञाओ का पालन करना ही धर्म है अच्छी बात यह है कि दुनिया के सभी धर्म ईश्वर और सृष्टि का आदर करना सिखाते है ,सभी धर्मो मे माना ज्ञ1ता  है प्रकृति कि रक्षा करना ही मनुष्य कि रक्षा करना है। प्रकृति कि रक्षा करना ही हमारा धर्म है ।
      मानव और प्रकृति के बीच सदियो से ही घनिष्ठ संबंध रहा है ,वह ईश्वर को इस विश्व का सृष्टिकर्ता मानता है अलग-अलग नामो से उस ईश्वर को संबोधित कर उसकी पूजा अर्चना भी करता है ,कहते है कि इस तरह मनुष्य अपने धर्म का पालन कर रहा है, लेकिन धर्म का पालन करना परस्पर मानवी व्यवहार करना ,सदाचार और शिष्टाचार के नियमो का पालन करना ही नही है इसका अर्थ तो ईश्वर और सृष्टि के साथ शिष्टाचार निभाना भी है ,ईश्वर कि आराधना तभी पूर्ण होगी जब उसके द्वारा रची गयी सृष्टि व उसमे विचरने वाले सभी प्रकार के जीव-जन्तुओ कि रक्षा कि जाएगी और उनका आदर किया जाएगा और इस तरह से पूरे पर्यावरण मे शांति छा जाएगी ।
      सृष्टि का आदर ही ईश्वर का आदर करना होगा.

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