‘अनुशासन’
हमारे जीवन मे ‘अनुशासन’ एक ऐसा गुण है, जिसकी आवश्यकता मानव जीवन में पग-पग पर पड़ती है। इसका प्रारम्भ जीवन में बचपन से ही होना चाहिये ओर यही से ही मानव के चरित्र का निर्माण हो सकता है,
विशेष रूप से अपने ऊपर शासन करना तथा शासन के अनुसार अपने जीवन को चलाना ही अनुशासन है । अनुशासन राष्ट्रीय जीवन का प्राण है । यदि प्रशासन, स्कूल समाज, परिवार सभी जगह सब लोग अनुशासन में रहेंगे और अपने कर्त्तव्य का पालन करेंगे, अपनी ज़िम्मेदारी समझेंगे तो कहीं किसी प्रकार की गड़बड़ी या अशांति नहीं होगी । नियम तोड़ने से ही अनुशासनहीनता बढती है तथा समाज में अव्यवस्था पैदा होती है ।
बड़े होकर अनुशासन सीखना कठिन है । अनुशासन का पाठ बचपन से परिवार में रहकर सीखा जाता है । बचपन के समय मे अनुशासन सिखाने की जिम्मेदारी माता-पिता तथा गुरूओं की होती है । अनुशासन ही मनुष्य को एक अच्छा व्यक्ति व एक आदर्श नागरिक बनाता है । विद्यालय जाकर अनुशासन की भावना का विकास होता है । अच्छी शिक्षा विद्यार्थी को अनुशासन का पालन करना सिखाती है । वास्तव में अनुशासन-शिक्षा के लिये विद्यालय ही सर्वोच्च स्थान है । विद्यार्थियों को यहाँ पर अनुशासन की शिक्षा अवश्य मिलनी चाहिये । ताकि उनका सामाजिक दृष्टी से सम्पूर्ण विकास हो सके । उन्हें सदा गुरुओं की आज्ञा का पालन करना चाहिये । अनुशासनप्रिय होने पर ही हर विद्यार्थी की शिक्षा पूर्ण समझी जानी चाहिये । सच्चा अनुशासन ही मनुष्य को पशु से ऊपर उठाकर वास्तव में मानव बनता है । दर से अनुशान का पालन करना सच्चा अनुशासन नहीं है और ना ही अनुशासन पराधीनता है । यह तो सामाजिक तथा राष्ट्रीय आवश्यकता है.
जीवन के
प्रत्येक क्षेत्र
में अनुशासन
का महत्व
है । अनुशासन से धैर्य
और समझदारी
का विकास
होता है
। समय
पर सही
निर्णय लेने
की क्षमता
बढ़ती है
। इससे
कार्य क्षमता
का विकास
होता है
तथा व्यक्ति
में नेतृत्व
की शक्ति
जाग्रत होने
लगती है
। इसलिये
हमे हमेशा
अनुशासनपूर्वक आगे
बढने का
प्रयत्न करना
चाहिए । मानव
जीवन की
सफलता का
एक मात्र
‘अनुशासन’ मंत्र
है.
प्रारम्भ से ही
हमारा जीवन यदि
अनुशासित होगा तो
हम तमाम समस्याआंे
का समाधान एक
स्वस्थ्य एवं निरपेक्ष्य
तथ्यांे पर भविष्य
मंे कर सकते
हैं। अन्यथा समस्याएँ
ज्यों की त्यांे
बनी रहेगी। चाहंे
कितनी सरकारंे क्यांे
न बदल दी
जाये, चाहंे कितनी
पीढ़ियाँ क्यांे न गुजर
जाये। यदि देश
की विभिन्न समस्याआंे
की गहराई में
जाकर देेखें तो
उसमंे से कुछ
बातंे ऐसी मिलती
हैं, जो देश
की विभिन्न समस्याआंे
को जन्म देती
हैं। जिनमंे आर्थिक
एवं राजनैतिक महत्व
के साथ देश
की राष्ट्रभाषा, धर्म,
संस्कृति और खान-पान के
आधार पर ही
लोगांे मंे अनुशासन
तोड़नें मंे अथवा
समस्याएँ खड़ी करने
के लिए प्रेरित
होने के प्रसंग
मिलते हैं। देश
में व्याप्त इन
समस्याआंे के निराकरण
के लिए देश
के प्रत्येक नागरिक
को अनुशासनप्रिय होना
चाहिए। अनुशासनप्रिय होने के
लिए हमंे स्वप्रेरणा
के आधार पर
कार्य करना होगा।
सूर्य का उदय-अस्त, पृथ्वी का घूर्णन, ऋतुओं का प्रत्यावर्तन और ग्रहों की गति, सभी पूर्व निर्धारित अनुशासित क्रियाएं हैं। यदि प्रकृति अपने अनुशासन को छोड़ दे तो शायद संसार का जीवन ही खतरे में पड़ जाये।
विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का विशेष महत्व है, क्योंकि यह जीवन की सद्नागरिकता का प्रथम सोपान है। अनुशासन का तात्पर्य आत्मबंधन की स्वीकृति है। जिन विद्यार्थियों में आत्मानुशासन का अभाव होता है, उन्हें विद्यालय के नियम बंधन ही महसूस होते हैं और बंधनों को बाल सुलभ प्रकृति स्वीकार नहीं करती, जिसके कारण विद्यार्थी उन बंधनों को तोड़ने का प्रयास करता है, इसी प्रयास का नाम अनुशासनहीनता है।
अनुशासन से विद्यार्थी जीवन में एक समन्वय और संतुलन पैदा होता है, जिससे विद्यार्थी परिवार, समाज और विद्यालय में समायोजनशील बनता है, इसी गुण से आत्मानुशासन का भी विकास होता है। आत्मानुशासन के अभाव में एक समाज भीड़ में परिवर्तित हो जाता है और भीड़ मानवीय सभ्यता के लिए शुभकर नहीं होती। विद्यालय का यह दायित्व है कि विद्यार्थियों को भीड़ में परिवर्तित होने से रोके और उन्हें आत्मानुशासन के संस्कार से नवाजे।
किसी भी बालक के व्यक्तित्व के विकास में वातावरण और अनुवंशिकता महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। वातावरण व्यक्तित्व पर ज्यादा प्रभाव डालता है, जिसमें वांछित परिवर्तन भी संभव है। विद्यालय के वातावरण को मैत्रीवत् और मूल्यों से युक्त बनाया जा सकता है।
विद्यार्थी की सभी प्रकार की जिज्ञासाओं का शमन करना अध्यापक का नैतिक दायित्व है। अध्यापकों के दिए गए उद्दीपन पर हुई सकारात्मक अनुक्रिया हेतु विद्यार्थियों को सकारात्मक पुनर्बलन(शाबाश, बहुत अच्छा) अवश्य देना चाहिए। बार-बार के नकारात्मक पुनर्बलन से बालक का मानस कुण्ठित होता है। जिससे आत्मानुशासन की वृति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध अध्ययनों से पता चला है कि कुण्ठित बालकों में घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, झगड़ालूपन और नशा-खोरी की प्रवृति ज्यादा देखने को मिलती है।
गृहकार्य की न्यूनता और अधिकता भी बालकों में अनावश्यक उत्तेजना को जन्म देती हैं, और उसे बार-बार कठिन कार्य देना और बार-बार आदेशों में परिवर्तन करना भी उत्तेजना कारक होते हैं, जिससे उसमें कदाचार पनपता है। विद्यालय में छात्रों की अकर्मण्यता भी उसे अनुशासनहीन बनाती है क्योंकि खाली मस्तिष्क शैतान का घर होता है। खाली बैठा विद्यार्थी या तो अनावश्यक विवाद करेगा या कोई अवांछित प्रतिक्रिया करेगा, अत: यह आवश्यक है कि विद्यालय में विद्यार्थी को पुस्तकालय, वाचनालय में या खेल के मैदान में व्यस्त रखा जाये जिससे उसकी सोच सृजनात्मक बन सके और उनमें अनुशासनहीनता न पनप सके।
विद्यार्थी में अनुशासनात्मक गुण कायम करने के लिए विद्यालय और परिवार के सामूहिक प्रयास होने चाहिए क्योंकि विद्यालय में तो विद्यार्थी सिर्फ अधिकतम छह घंटे ही रहता है, शेष 18 घंटे तो वह समाज या परिवार में ही व्यतीत करता है, यदि समाज में उसके मित्रगण कदाचारी है या परिवार का वातावरण तनावपूर्ण या कलहपूर्ण है तो उस वातावरण का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है और उसकी समायोजन क्षमताएं गौण हो जाती है। जो अनुशासनहीनता के रूप में प्रतिबिंवित होती है। अत: आवश्यक है कि विद्यार्थी को विद्यालय और परिवार दोनों ही जगह वांछित वातावरण देने का प्रयास किया जाए।
आज विद्यार्थी को अध्यापकों के प्रति जो कृतघ्नता का भाव बढ़ता जा रहा है, इसका मूल कारण है अध्यापकों में विद्यार्थियों के प्रति आत्मीयता का अभाव और बढ़ती ट्यूशन की प्रवृत्ति। इन समस्याओं का समाधान गुरुजन ही करने में सक्षम हैं।
अन्त में यही कहा जा सकता है कि यदि बालक-बालिका को वांछित सकारात्मक वातावरण और अध्ययन का माहौल मिले तो उसमें समायोजन और सृजनशीलता के गुण विकसित किए जा सकते हैं और अनुशासनहीनता की समस्या से निजात पायी जा सकती है। इस गुरुत्तर दायित्व का निर्वाह गुरुजन ही कर सकते हैं।
आपका
प्रधानाचार्य
विद्यानिधि त्रिवेदी -
एन. के. पब्लिक सीनियर सेकेंडरी विद्यालय आर्यनगर, मुरलीपुरा, जयपर.. ( mene vidhyanidhi ji se shiksha to
garhan nahi ki kabhi par inke shiksha shankul me 4 saal bitaye h our inse itna
kuch sikha h ke me zindagi ke kisi bhi vikat mod par agar ankh band karke bhi
chalunga to mujhe thokar nahi lagegi. )
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