एक अकेला
क्या विवाह ही उम्रदराज़ी का प्रणामपत्र है?
क्यों समाज यह मान लेता है
कि शादी करने वालों की ही उम्र, प्रतिष्ठा और गरिमा बड़ी होती है—
मानो परिपक्वता का एक ही दरवाज़ा हो,
जिस पर “शादी” लिखा हो।
पर सच यह है—
सबसे बड़ा साहस उसी में होता है
जो उम्र का लम्बा सफ़र
अकेले तय कर रहा है।
जिसे सहारे की ज़रूरत नहीं,
क्योंकि उसने जीवन की ऊँचाइयों और गिरावटों में
अपने ही भीतर की हथेली को थामना सीख लिया है।
और अगर सच में शादी ही समझ और सम्मान का पैमाना होती,
तो क्या रतन टाटा
सारी सफलता के बाद भी
उम्र भर “किशोर” ही कहे जाते?
क्या लता मंगेशकर,
जिन्होंने दुनिया की आत्मा को सुरों में पिरो दिया,
सिर्फ अविवाहित होने के कारण
“अधूरी” मान ली जातीं?
क्या अटल बिहारी वाजपेयी—
जिनकी वाणी, जिनकी कविता, जिनकी नेतृत्व-शक्ति
आज भी इस देश की धड़कनों में बसी है—
सिर्फ शादी न करने से
कम प्रतिष्ठित हो जाते?
और क्या डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम,
जो ज्ञान, विज्ञान, विनम्रता और उजाले का प्रतीक थे,
विवाह न करने के कारण
कभी “अपरिपक्व” ठहराए जा सकते थे?
समाज डरता है उन लोगों से—
जो भीड़ से बाहर निकलकर
अपने ही भीतर की रोशनी में चलते हैं।
वे भीड़ की आवाज़ नहीं सुनते,
वे आत्मा की धीमी लेकिन सच्ची आवाज़ सुनते हैं।
और भीतर का मार्ग
विवाह से नहीं,
जागरण से रोशन होता है।
इसलिए जो व्यक्ति शादी नहीं करता,
वह न छोटा है, न अधूरा—
वह बस भीड़ की भ्रमित मान्यताओं से मुक्त है।
उसमें वह हिम्मत है
कि वह अपने जीवन का भार
किसी और के कंधे पर नहीं डालता—
उसे खुद उठाता है।
और जो स्वयं को उठा ले,
जो अपनी ही यात्रा का सहारा बन जाए—
उसे कोई भी समाज
परिपक्वता या प्रतिष्ठा में
कम नहीं ठहरा सकता।
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