में अकेला

सच कहूं तो मुझे अकेले रहना बेहद पसंद है। ये कोई मजबूरी नहीं, कोई असफलता नहीं और न ही किसी से भागने का उपक्रम है। ये मेरी चुनी हुई स्थिति और सहज ज़रूरत है। न किसी से बातचीत, न औपचारिक हालचाल, न बेवजह का मेल-जोल। एक बंद कमरा, कुछ खामोशी, और खुद के साथ रहने का पूरा अधिकार बस इतना ही तो चाहिए मुझे। इस बंद कमरे में मैं खुद से झूठ नहीं बोलता। बाहर की दुनिया में जहां हर मुस्कान के पीछे कोई भूमिका निभानी पड़ती है, यहां मुझे किसी को प्रभावित नहीं करना होता। यहां न अच्छा दिखने का दबाव है, न समझदार साबित होने की हड़बड़ी। यहां मैं जैसा हूं, वैसा ही रह सकता हूं, थका हुआ, उलझा हुआ, चुप या कभी-कभी बिल्कुल खाली।अकेलापन मुझे डराता नहीं, बल्कि सुकून देता है। भीड़ में रहकर जो घुटन होती है, वह इस खामोशी में नहीं होती। यहां मेरी सांसें मेरी होती हैं, मेरे विचार बिना रोक-टोक बहते हैं। यहां कोई बीच में टोकता नहीं, कोई सलाह नहीं देता, कोई ये नहीं पूछता कि “ऐसा क्यों सोचते हो?” इस कमरे में मेरे सवाल भी मेरे हैं और उनके जवाब न मिलने की आज़ादी भी। मुझे लोगों से शिकायत नहीं है, बस उनसे थकान है। हर बातचीत में खुद को थोड़ा-थोड़ा समझौता करते देखना, हर रिश्ते में उम्मीदों का बोझ उठाना ये सब धीरे-धीरे भीतर कुछ तोड़ देता है। अकेले रहने में कम से कम ये डर नहीं रहता कि कोई मुझे गलत समझ लेगा, क्योंकि यहां मुझे समझने वाला और कोई नहीं सिवाय मेरे खुद के। इस बंद कमरे में समय अलग तरह से चलता है। यहां घड़ी की सुइयां उतनी निर्दयी नहीं लगतीं। कभी घंटों यूं ही बीत जाते हैं, बिना किसी उपलब्धि के, बिना किसी अपराधबोध के, तो कभी खिड़की से आती रौशनी दीवार पर गिरती है और मैं उसे देखते हुए सोचता हूं कि जीवन भी शायद इतना ही साधारण है। आता है, ठहरता है, और फिर चला जाता है। यहां मैं अपनी कमजोरियों से भागता नहीं। उन्हें चुपचाप सामने बैठा देखता हूं। कभी-कभी वे डराती हैं, कभी हंसाती हैं, और कभी सिर्फ थका देती हैं। लेकिन कम से कम वे सच्ची होती हैं। बाहर की दुनिया में जिन ताकतों का दिखावा करना पड़ता है, उनकी यहां कोई ज़रूरत नहीं। अकेले रहने का मतलब ये बिल्कुल नहीं कि मुझे किसी की ज़रूरत नहीं। ज़रूरत तो होती है, बहुत होती है। लेकिन हर ज़रूरत को किसी इंसान पर थोप देना भी ठीक नहीं। कुछ खालीपन ऐसे होते हैं जिन्हें बस स्वीकार किया जा सकता है, भरा नहीं जा सकता। ये समझ मुझे इस अकेलेपन ने दी है।इस कमरे में बैठकर मैं अपने बीते हुए कल से भी मिलता हूं। वे यादें जो लोगों के बीच रहते हुए दब जाती हैं, यहां खुद-ब-खुद सामने आ जाती हैं। कुछ अच्छी, कुछ कड़वी, कुछ अधूरी। मैं उन्हें ठीक करने की कोशिश नहीं करता, बस उन्हें रहने देता हूं। शायद यही परिपक्वता है, हर चीज़ को सुधारने की ज़िद छोड़ देना। मुझे पता है, बहुत से लोग इसे उदासी कहेंगे, कुछ इसे अवसाद समझेंगे, और कुछ इसे असामाजिकता का नाम देंगे। लेकिन मेरे लिए ये शांति है। एक ऐसी शांति जो बाहर की हंसी-ठहाकों में नहीं मिलती। ये शांति मुझे खुद के करीब ले जाती है, और शायद यही सबसे ईमानदार रिश्ता है खुद के साथ। मैं जानता हूं कि जीवन यूं ही बंद कमरे में नहीं गुजरेगा। बाहर निकलना पड़ेगा, बोलना पड़ेगा, निभाना पड़ेगा। लेकिन जब भी मौका मिलेगा, मैं फिर इसी खामोशी में लौट आऊंगा। क्योंकि यहीं मैं खुद को बिना किसी शर्त के स्वीकार कर पाता हूं.

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