मन की उड़ान
मुझे शुरू से ही यह समाज एक विकृत समाज लगा है। इस समाज का आधारभूत ढांचा ही ग़लत है। इस समाज को एक शब्द में परिभाषित करें तो समाज मतलब बंदिशें और मुझे बंदिशें रत्तीभर पसंद नहीं।
यहाँ आपके अभिभावक/बड़े/नातेदार आपको बताएंगे और तय करेंगे कि आप क्या पहनें, क्या करें और कैसे दिखें! आप उनकी उम्मीदों का बोझ लेकर जीते रहते हैं। आपको क्या पसंद है, आपकी रुचि क्या है और आप किस चीज़ में निपुण हैं यह मायने ही नहीं रखता। आपको वह करना है जो वो आपको बताएं कि "ये तुम्हारे लिए बेहतर है।"
मैं अगर अपना ही उदाहरण दूँ तो मुझे ऐसा कोई काम करना पसन्द नहीं है जिसमें किसी प्रकार की कोई क्रिएटिविटी करने की गुंजाइश न हो। मैं अभी जो करता हूँ उसमें मुझे क्रिएटिव होने के तमाम अवसर रोज़ ही मिलते हैं। मगर मुझे हर बार कोई न कोई नातेदार या घर के लोग भविष्य का उलाहना देकर यह बताते हैं कि मैं किसी बैंक या सरकारी किसी भी ऐसे काम में लग जाऊँ जहां मेरा भविष्य बेहतर हो(उनके हिसाब से)। मुझे क्या पसंद है, मैं क्या कर सकता हूँ और मुझमें क्या संभावनाएं हैं, यह कोई मायने नहीं रखता।
इस समाज में बड़े पैमाने पर बदलाव की ज़रूरत है। ऐसे बदलाव जहां बच्चों पर कुछ भी थोपा न जाये बल्कि उन्हें जो पसंद है वो उन्हें करने दिया जाए। हाँ अगर बच्चे कुछ ग़लत करते हैं या ग़लत राह पर जाते हैं तो उन्हें टोकने का और ऐसा न करने के लिए कहने का अधिकार भी हमेशा अभिभावकों के पास सुरक्षति होना चाहिए, वरना बेलगाम होती चीज़ विनाश को ही प्राप्त होती है।
आप बच्चों पर कुछ भी थोपते रहते हैं या अपने सपने उनसे पूरे कराते हैं तो इसमें बच्चे का मूल और उसके सपने उसके ही अंदर मर जाते हैं। अपनी और अपने सपनों की लाश ढोते हुए कोई भी मनुष्य बेहतरी को प्राप्त नहीं हो सकता। वो अवसाद में चला जाता है और आपसे कुछ कह भी नहीं पाता क्योंकि अपने हक़ के लिए उठाई गई आवाज़ को आपके इसी समाज ने बदतमीजी क़रार दिया हुआ है।
न जाने कितने लोग लाश बने घूम रहे हैं। आप उनके चेहरे पढ़ने की कोशिश करो और उन्हें अपना कंधा दो तो वो रोते हुए सब बता देने को आतुर हैं। लेकिन आपको समाज की परवाह है, इस बात की परवाह है कि ये कल का बच्चा अब हमें सिखाएगा?, यह इतना समझदार हो गया कि हमारे फ़ैसलों पर प्रश्नचिन्ह लगाएगा? आप उसको आपके द्वारा तय की गई सीमाओं में असफ़ल होने के इतने ताने देते हैं कि वो अपने तय किये आकाश में भी कभी पंख खोलकर उड़ना तो दूर उड़ने की सोच भी नहीं पाता।
मैं चाहता हूँ कि बच्चों को नदी की तरह बहने दो। वो अपना मार्ग स्वयं बना लेंगे और एक रोज़ किसी समुंदर से मिल जाएंगे। अगर आप उन्हें अपने खेत किनारे का तालाब बनाने पर तुले रहे तो उनमें सड़न से बदबू और मच्छर के सिवा कुछ भी नहीं पनपेगा। प्लीज़ अपने बच्चों को उनके आकाशों में उड़ने दो, वहीं उनकी उड़ानें रंग लायेंगीं। वरना सर्कस में नचाया जाने वाला शेर, अपने शेरतत्व को कब खो देता है यह न उसे पता चलता है और न सर्कस मास्टर को।
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