मासूम बच्ची
अलीगढ़ में एक मासूम बच्ची के साथ हुई हिर्दयविदारक घटना पल-पल नपुंसता की ओर बढ़ रहे भारतीय समाज का ही परिचायक है. आज हम एक ऐसे संवेदनहीन और नपुसंक समाज में जी रहे हैं, जहां इस तरह की घटना, हमारे लोक सेवकों की नजर में सामान्य सी बात है. आज हम एक ऐसे जड़वत समाज में रह रहे हैं जिसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं है. बस यदि चिन्ता है, तो इस बात की, कि “हम और हमारा परिवार सुरक्षित रहे”. दुसरों की चिन्ता करना उस सरकार का काम है जिसके मंत्री महोदय ही बोलते हैं कि “इस तरह की घटनाऐं तो होती ही रहती हैं”. दरअसल हजार साल की गुलामी ने हमें यही सिखाया है कि “सिर्फ अपनी चिन्ता करो, समाज का ठेका तूने थोड़े ही ले रखा है” और यही हमारे समाज के निरन्तर पतन का कारण है.
क्या मात्र ढ़ाई साल की मासूम बच्ची “टिवंकल शर्मा” का हत्यारा सिर्फ जाहिद और असलम है या फिर वह कानून भी, जिसने अपने ही बेटी के बलात्कार के आरोपी “जाहिद” को जमानत दे दी? या फिर वह वकिल भी, जिसने जाहिद को रिहा होने में मदद की? या फिर वह जज, जिसने इतने गंभीर आरोपी को जमानत देना उचित समझा? या फिर वह पुलिस तंत्र भी, जो सदैव किसी गंभीर घटना के घटित होने के बाद, दबाव पड़ने पर ही जागती है? या फिर हम सभी, जो इन मासूम बच्चियों को सुरक्षा नहीं दे पा रहे हैं?
आज हमारी संबेदना इस हद तक मर चुकी है कि पड़ोस या समाज में दिन-प्रतिदिन घट रहे अमानवीय घटनाऐं, हमें तबतक नहीं झकझोरते, जबतक कि वह घटना खुद हमारे साथ घटित ना हो. एक तरह से हम अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं और यही अपराधियों का मनोबल बढ़ा रहा है. आज के अपराधी को समाज से बिल्कुल डर नहीं लगता, वह तो सिर्फ अपने शिकार की ताकत को देखता है कि वह उससे लड़ने में सक्षम है या नहीं.
हमारे समाज में तकरीबन हर रोज इस तरह की अमानवीय हिंसक घटनाऐं घटित हो रही हैं, लेकिन मीडिया कवरेज नहीं मिलने की वजह से वह गुमनाम ही रह जाती है और पीड़ित परिवार, जब पुलिस-प्रशासन और कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाकर थक जाता है तो समझौते के लिए विवश हो जाता है.
जरा विचार किजिए, पिछले 5 वर्षों में ही सही, कितने लोगों को बलात्कार के जुर्म में फांसी की सजा हुई है? जबकि हर बार, हर बलात्कारी के लिए हम फांसी की सजा की ही मांग करते हैं. दरअसल हमारी न्यायिक व्यवस्था इतनी जटिल है कि यह पीड़ितों को न्याय नहीं, बल्कि अपराधियों को संरक्षण प्रदान कर रही है. अब जरूरत इस बात की है कि ऐसे मामले में, समाज न्याय खुद करे और अपराधियों के परिवार वालों को अदालत के दरवाजे पर सर पटकने के लिए छोड़ दे. अदालत के सामने ये परिवार वाले गिड़गिड़ाऐं कि हमारे कुकर्मी बेटे को समाज ने सरेआम फांसी पर लटका दिया. बेशक, कुछ कमीने किस्म के बुद्धिजीवी इस परिवार के पक्ष में भोंकना शुरू कर दें, फिर इन्हें भी जन्नत का रास्ता दिखा दो. अपराधियों के मन में जबतक समाज का खौफ नहीं होगा, ये लोग अदालत को ऐसे ही उंगलियों पर नचाते रहेंगे. बहुत हो चुका फेसबुक पर गुस्से का इजहार और कैण्डिल मार्च, अब इससे आगे बढ़ना ही होगा.
बात सिर्फ ये नहीं है कि इस बच्ची या इसके समान अन्य पीड़िताओं को न्याय मिले बल्कि लाख टके का सवाल यह है कि इस तरह की पाशविक घटनाओं पर अंकुश कैसे लगे?
आज की तारीख में, यदि आप आत्मसम्मान की जिन्दगी जीना चाहते हैं तो खुद के लिए ही नहीं, गैरों के लिए भी खड़ा होना सिखिए और यदि नहीं, तो फिर अपनी बारी का इतंजार किजिए. मेरी तो सलाह यही है कि अपने बच्चों को सिर्फ धन-दौलत ही नहीं, बल्कि एक अच्छा संस्कार और सुरक्षित समाज भी दिजिए.
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