मन चंगा तो कठोती मे गंगा
संत कवि रैदास ने बहुत गहरी बात कही थी। मन का चंगा होना बहुत जरूरी है। तभी जीवन में सच्चा सुख और शांति मिल सकती है। दुखी या अशांत मन से तो कोई भी काम ठीक से नहीं हो सकता। अपने कर्तव्यों तथा दायित्वों के निर्वाह से लेकर परमानंद स्वरूप ईश्वर तथा अंत में मोक्ष की प्राप्ति भी तभी संभव है , जब पहले हमारा मन निर्मल , शांत और स्थिर हो जाए। एक मन ही तो है , जिसकी गुत्थी जल्दी से नहीं सुलझती। वह वश में ही नहीं रहता। इसीलिए हम बहुत जल्दी परेशान और दुखी हो जाते हैं। यदि मन में संतोष उतर जाए और स्थायी रूप से कल्याणकारी प्रसन्नता छा जाए , तो हमें आनंदित रहने का मार्ग मिल जाता है। यह देख लें कि मन की प्रसन्नता क्षणिक न हो। वह ऐसी भी न हो , जिसका परिणाम अंतत: विनाशकारी निकले। इसके लिए आवश्यक है मन को जानना , उसकी गति को पहचानना। तभी उसे प्रसन्न रखने का उपाय किया जा सकता है। मूलत: मन प्रकृति का सूक्ष्मतम परमाणु है। यह अत्यंत सूक्ष्म होते हुए भी सर्वत्र भ्रमण और रमण करता रहता है। आत्मा के सानिध्य मात्र से ही मन का स्वभाव जागृत हो जाता है। इसकी गति वायु से भी तीव्र होती है। मन की क्षमता भी अपार , असीम और अथाह होती है। तन और मन जीवन सरिता के दो किनारों के समान होते हैं। यही दो छोर हैं। अंतर इतना है कि तन दिखाई देता है , अत: इसका रूप स्वरूप , रंग निखार और साज संवार सब हो जाता है। मन अत्यंत शक्तिशाली होते हुए भी अदृश्य रहता है। इसलिए इसके बारे में बहुत सी बातें हमें पता ही नहीं चलतीं। हम अक्सर उनकी अनदेखी भी करते हैं। तन की भांति मन भी अस्वस्थ होता है। उसे भी आराम और उपचार की आवश्यकता पड़ती है , लेकिन हम उसकी उपेक्षा तथा उस पर अत्याचार करते रहते हैं। यहीं से मनोरोग शुरू होते हैं। मानसिक अशांति बढ़ती है। तनाव और कुंठाएं जन्म लेती हैं। क्रोध बढ़ता है तथा नींद और भूख गायब होने लगती है। विभिन्न रोग मन के धरातल से शुरू होकर तन पर भी अपना प्रभाव डालने लगते हैं। इसीलिए प्राचीन काल से ही हमारे देश में मन को स्वस्थ और शक्तिशाली बनाने पर विशेष जोर दिया जाता रहा है। पूजा-पाठ , ध्यान , सदाचार , सात्विकता तथा सकारात्मक सोच से मन को शक्ति मिलती है। आत्मबल में वृद्धि होती है। मन को मंदिर कहा जाता है। इसमें जीवात्मा का निवास होता है , जो परमात्मा का अंश है। इसीलिए मन के मंदिर को स्वच्छ , शुद्ध और पावन बनाए रखना चाहिए। किसी व्यक्ति का मन कैसा है , इसका पता उसके वचनों और कर्मों से लग जाता है , इसीलिए सुखी जीवन के लिए मन , वचन और कर्म तीनों की शुद्धता पर जोर दिया जाता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि वास्तव में जो मन शुद्ध है , उसमें कभी अशुद्ध विचार नहीं आते। यदि अशुद्ध विचारों का प्रवेश और प्रवाह नहीं रुकता है , तो जान लें कि मन अभी निर्मल और शुद्ध नहीं हुआ। मन जितना ही शुद्ध होगा , वह उतना ही स्थिर होगा और जितनी चंचलता घटेगी उतनी ही शुद्धता बढे़गी। इसके लिए सद्ज्ञान का प्रकाश अत्यावश्यक है। यदि मन सत्मार्ग में न लगता हो , तो सावधान हो जाएं , क्योंकि कभी-कभी हम इच्छा , आकर्षण और अपनी कल्पना की उड़ान को ही मन की आवाज मान लेते हैं। वस्तुत: मन तो ज्ञान का प्रतिनिधि है। यही है , जो आत्मा को परमात्मा से मिला सकता है। मन के विज्ञान को समझना सरल नहीं है , किंतु असंभव भी नहीं है , क्योंकि मन से आगे बुद्धि और उससे भी आगे अंत:करण होता है। इसीलिए अपने अंत:करण में सदैव सुंदर , कोमल और सतोगुणी भाव ही रखने चाहिए। तभी हम प्रसन्न मन से प्रभु के समीप जा सकते हैं। उसके समक्ष प्रार्थना , स्तुति वंदना और धन्यवाद के गीत गा सकते हैं। इसके लिए सदैव अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठा और मर्यादाओं का ध्यान रखना अनिवार्य है। इसी के अभाव में तन से बलिष्ठ लोग भी मन से कमजोर साबित हो रहे हैं। मन की प्रफुल्लता कहीं दिखाई ही नहीं देती , क्योंकि मन की रुग्णता से तन का तेज और ओज भी नष्ट हो जाता है। मन तभी शांत और स्वस्थ रहता है , जब हम अपने जीवन में यम , नियम और संयम को महत्व देना जाते हों , खुद अपने मन को चंगा रखना जानते हों।
बहुत अच्छे जी सच मे आपकी वेबसाईट दिल को भा गई
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