संदेश

दिसंबर, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मोदी जी कॆ नाम खुला खत- जातिवाद

एक सामान्य वर्ग के गरीब छात्रका मोदी जी के नाम खुला ख़त....आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रमोदी जी.....मै एक सामान्य वर्ग का छात्र हूँ , मेरे पिता का देहांत हो जानेकी वजह से मेरी माँ को घर चलाने में बहुत दिक्कतेआयीं। मैंने अपने गाँव के सरकारी स्कूल फिर कॉलेजमें पढाई की। सरकारी स्कूलकी फीस तक जुटाने में हमे हमेशा दिक्कतहोती थी जबकि मैंने देखा की कुछ वर्गविशेष के बच्चो को, आर्थिक रूप से संपन्न होने बावजूद भी,फीस माफ़ थी औरवजीफा भी मिला करता था। मै पढ़ाई में अच्छा था।इंटरमीडिएट पास करने के बाद मैंने मेडिकल फील्डचुना। एंट्रेंस एग्जाम के लिए फॉर्म खरीदा 650 रुपयेका जबकि सौरभ भारतीय नाम के मेरे दोस्तको वही फॉर्म 250 का मिला। उसके पिता डॉक्टर हैं। एंट्रेंसएग्जाम का रिजल्ट आया। सौरभ भारतीय का नंबर मेरे नंबर सेकाफी कम था, पर उसे सिलेक्शन मिल गया, मुझेनहीं। अगले साल मै भी सेलेक्ट हुआ। मैंनेदेखा की बहुत से पिछड़े जाति के लोग, अनुसूचित जाति केजनजाति के लोग जो हर मामले में मुझसे कहीं ज्यादा सुविधासंपन्नहैं, उनको मुझसे बहुत कम फीस देनी पड़रही है। उनके स्कॉलरशिप्स भी मुझे मिलरही स्कालरशिप से बहुत ज...

मानविय मुल्यो सॆ विहीन shiksha

शिक्षा वह साधन हॆ जो समाज को केवल शिक्षित ही नहीं करती वरन व्यक्ति के आत्मीय विकास में भी अहम योगदान निभाती हॆ ऒर जो व्यक्ति आत्मीक रुप से शिक्षित होता हे वो समाज ओर राष्ट्र को उन्नति के पथ पर लेकर जाता हे. शिक्षा किसी भी राष्ट्र के विकास में अहम योगदान निभाती हे, परन्तु आज शिक्षा का मतलबबदल गया हे आज शिक्षा का अर्थ केवल साक्षरता से लिया जाता हे, राज्य ओर राष्ट्र के विकास को साक्षरता की कसोटी पर नापा जाता हे. शिक्षा का अर्थ केवलसाक्षरता नहीं हे, किताबी अक्षरों का ज्ञान विद्वान तो बना सकता हे परन्तु जब तक व्यक्ति में नॆतिक मुल्यों का हास हे तब तक वो समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह पुर्ण ईमानदारी के साथ नहीं कर सकता हे.आज समाज शिक्षित तो हो रहा हे परन्तु कहीं न कहीं वो मानवीय मुल्यों का परिहास उडा रहा हॆ व्यक्तिगत तोर पर तो मनुष्य शिक्षित हो रहा हे, मजबुत हो रहा हे परतु सामाजिक तोर पर उतना ही अशिक्षित होता जा रहा हे, आत्मिक रुप से पतन के पथ पर अग्रसर होने के कारण समाज को भी कमजोर बना रहा हे ओर एक कमजोर समाज एक कमजोर राष्ट्र का निर्माण करता हे. आज के जमाने में कम्प्युटर ओर अँग्...

पॆशावर हमला- parasoon joshi

चित्र
कभी कभी सोचता हूँ कि आख़िर भगवान के मन में ऐसा क्या आया होगा कि उसने मानव मात्र की रचना करने की सोची। क्या फर्क पड़ जाता अगर इस दुनिया में पेड़ पौधे, पर्वत, नदियाँ, सागर और सिर्फ जानवर होते? आख़िर जिस इंसान को प्रेम, करुणा, वातसल्य से परिपूर्ण एक सृजक के रूप में बाकी प्रजातियों सेअलग किया जाता है उसी इंसान ने आदि काल से विध्वंसक के रूप में घृणा, द्वेष, क्रूरता और निर्ममता के अभूतपूर्व प्रतिमान रचे हैं और रचता जा रहा है।आख़िर इंसानों ने आपने आप को इस हद तक गिरने कैसे दिया है? मानवीय मूल्यों के इस नैतिक पतन की एक वज़ह ये भी है कि हमने अपने आप को परिवार,मज़हब, शहर, देश जैसे छोटे छोटे घेरों में बाँट लिया है। हम उसी घेरे के अंदर सत्य-असत्य, न्याय अन्याय की लड़ाई लड़ते रहते हैं और घेरे के बाहर ऐसा कुछ भी होता देख आँखें मूँद लेते हैं क्यूँकि उससे सीधा सीधा नुकसान हमें नहीं होता। यही वज़ह है कि समाज के अंदर जब जब हैवानियत सर उठाती हैहम उसे रोकने में अक़्सर अपने को असहाय पाते हैं क्यूँकि हम अपने घेरे सेबाहर निकलकर एकजुट होने की ताकत को भूल चुके हैं।पेशावर हमले में मारे गए मासूम पेशावर में जो क...

PK- PERFECT KHAN -- AAMIR

फ़िल्म रिव्यूः पीके ---- एक्टरः आमिर खान, अनुष्का शर्मा, सुशांत सिंह राजपूत, सौरभ शुक्ला, बोमन ईरानी, परीक्षित साहनी डायरेक्टरः राजकुमार हिरानी राइटरः अभिजात जोशी और राजकुमार हिरानी रेटिंगः 4.5.                                       भगवान की रक्षा करना बंद करो, एक धर्मगुरु के सवाल के जवाब में पीके बिना चिल्लाए कमोबेश फुसफुसाते हुए कहता है. और मेरे सामने पेशावर पैदा हो जाता है. या फिर त्रिशूल चमकने लगते हैं. आदिवासी इलाकों में घूमते पादरी नजर आने लगते हैं. सब अपने-अपने भगवान की रक्षा कर रहे हैं. दूसरों में डर भरकर. और हम सब जो सब्जी खरीदते हुए या फिर दुनियावी मसलों पर बात करते हुए बेहद तार्किक होने का ढोंग करते हैं, इसे समझ नहीं पाते. क्यों ये डर और क्यों ये आस्था. और सबसे बढ़कर क्यों ये पूर्वाग्रह. इस सब सवालों को बिना शोर के बहुत सादगी के साथ उठाकर पीके आज के वक्त और यकीनन आने वाले वक्त के लिए भी एक बेहद जरूरी फिल्म बन जाती है. यूं समझ लीजिए कि आसमान की तरफ हाथ और आंख उठाकर की गई हमारी एक दु...

मासूम बच्चो का क्या कसूर था...

 कैफ़ी आज़मी की ग़ज़ल दिमाग में सुबह से चीख रही है: ‘इसको मजहब कहो या सियासत कहो…इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा”। सोशल मीडिया, ट्विटर, अख़बारों के सम्पादकीय, कवियों के कागज़…उनके कंप्यूटर स्क्रीन्स—हर स्पेस शब्दों से भरा पड़ा है। लोग अपने अपने तरीके से दुःख व्यक्त कर रहे हैं— कोई कह रहा है: “सबसे छोटा ताबूत सबसे ज़्यादा भारी है।“ एक मित्र ने कहा: ”बेहतर है कि इस हवन कुंड को अब बुझाने के लिए एक मुकम्मल नास्तिक पीढ़ी का उदय हो।“ शायर मुनव्वर राणा ने ट्वीट किया: '"निंदा" जैसे शब्द की तो चादर भी छोटी पड़ जाती है!’ ज़ाहिर है कि जो पेशावर में हुआ उससे इंसानियत काँप उठी है।“ हर कोई कुछ कहना चाह रहा है। कुछ अपनी संवेदनशीलता का दिखावा भी कर रहे हैं। ऐसी भयावह घटनाओं के बारे में कुछ भी कहना कोई अर्थ नहीं रखता। शब्द अपना खोखलापन उघाड़ कर आपके सामने नंगे, निरीह होकर बैठ जाते हैं। इस तरह की क्रूर घटनाएँ आपको एक बेसहारा, भय में लिपटे, दुःख में डूबे सन्नाटे में ले जाती हैं। ‘किंकर्तव्यविमूढ़’ शब्द ऐसे मौको के लिए ही बना होगा। अजीब ढंग से खामोश कर देती हैं ऐसी घटनाएँ। पर यह ख़ामोशी सुकू...

एक था बचपन .....

     ( 1 )     बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब बगैर किसी तनाव के मस्ती से जिंदगी का आनन्द लिया जाता है। नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलती हँसी, वो मुस्कुराहट,वो शरारत, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना ये सब बचपन की पहचान होती है। सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं।क्या कभी आपने सोचा है कि आज बच्चों का वो बेखौफ बचपन कहीं खो गया है? आज मुस्कुराहट के बजाय इन नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव क्यों छाया रहता है? अपनी छोटी सी उम्र में पापा और दादा के कंधों की सवारी करने वाले बच्चेआज कंधों पर भारी बस्ता टाँगे बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस की सवारी करते हैं। छोटी सी उम्र में ही इन नन्हो को प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल कर दिया जाता है और इसी प्रतिस्पर्धा के चलते उन्हें स्वयं को दूसरों से बेहतर साबित करना होता है।इसी बेहतरी व प्रतिस्पर्धा की कश्मकश में बच्चों का बचपन कहीं खो सा जाता है।इस पर भी माँ-बाप उन्हें गिल्ली-डंडे, लट्टू, कैरम व बेट-बॉल की जगह वीडियोगेम थमा देते हैं, जो उनके स्वभाव को ओर अधिक उग्र बना देते हैं...

जीत आपकी

1....   अपने दिमाग को रोज अच्छे विचारों की खुराक दें। दिमाग में इनका स्टॉक बढ़ाते रहें। ऐसे में बुराई या नकारात्मक विचारों का सामना होने पर वे हम पर हावी नहीं हो पाएंगी। खासकर सुबह के वक्त सबसे पहले कोई अच्छी चीज पढें या सुनें, जिंदगी में जीत हासिल करनेवाले ऐसे लोग होते हैं जिन्हें अपनी सीमाएं मालूम होती हैं, पर वे अपनी मजबूतियों पर ध्यान देते हैं।*जब हम खुद को तुच्छ लोगों से उलझने से बचा लेते हैं, तो हम जीत जाते हैं।*इतने मजबूत बनें कि हमारे मन की शांति को कोई भी बंदा भंग न कर सके।*जो काम जरूरी हैं, उन्हें पसंद करने की आदत डालें।*हमारे स्कूल- कॉलेज ज्ञान के झरने हैं, कुछ स्टूडेंट वहां अपनी प्यास बुझाने,कुछ चुस्की भरने और कुछ सिर्फ कुल्ला करने जाते हैं।*ज्ञान में शक्ति बनने की क्षमता है और यह तभी शक्ति बनता है जब इसका इस्तेमाल किया जाता है।*हम अपनी दिक्कतों के बजाय सहूलियतों पर गौर करें। कोई गलती करने पर जीतने वालाकहता है, 'मैं गलत था।' हारनेवाला कोई गलती होती है तो कहता है, 'इसमें मेरी कोईगलती नहीं थी।'जीतने वाला विनम्र शब्दों में कड़े तर्क पेश करता है, हारने वाला कड़...

वो भीं दिन थे

वो भीं दिन थे...जब घड़ी एक आध के पास होती थी और समय सबके पास होता था।बोलचाल में राजस्थानी का इस्तेमाल हुआ करता था---और हिंदी सिर्फ शहरों तक सिमित थी और अंग्रेज़ी तो पिने के बाद ही बोली जाती थी।हर जगह खो खो, कबड्डी खेलते थे अब केवल संसद में खेली जाती है।लोग भूखे उठते थे पर भूखे सोते नहीं थे।फिल्मों में हिरोइन को पैसे कम मिलते थे पर कपड़े पूरे पहनती थी।लोग पैदल चलते थे और पदयात्रा करते थे पर पदयात्रा पद पाने के लिये नहीं होती थी।साईकिल होती थी जो चार रोटी में चालीस का एवरेज देती थी।चिट्ठी पत्री का जमाना था पत्रों मे व्याकरण अशुद्ध होती थी पर आचरण शुद्ध हुआ करता था।शादी में घर की औरतें खाना बनाती थी और बाहर की औरतें नाचती थी-----अब घर की औरतें नाचती हैं और बाहर की औरते खाना बनाती है।अब सोचो हमने क्या पाया और क्या खोया.....

..कभी खुद से दूर

..कभी खुद से बहुत दूर नही जाना चाहिए.. एक वक्त के बाद, एक दिन.. लौट आने का मन करता है.. और हम वापसी का रास्ता भूल चुके होते है.. ।।..और फिर हम थकने लगते है.. हम जिन्दगी को जीना छोङ कर, उसे बर्दास्त करने लगते है.. ।।..थोङा ठहर जाना अच्छा होता है दोस्तो.. छोटी छोटी खुशियाँ जिन्दगी मे बहुत मायने रखती है, यकीन करे.. ।।..तो थोङा ठहर जाये, और सोचे के पिछली बार आपने पत्नि या प्रेमिका को गुलाब कब दिया था.. सोचेके पिछली बार परिवार के साथ किसी हिल स्टेशन पर कब गये थे आप.. स्कूल या कालेज के दोस्तो से कितने वक्त से नही मिले आप, सोचे.. अपने माता पिता के साथ एक पूरा दिन बिताये कितना वक्त हुआ आपको.. सोचे के पिछली बार आपने दुआ कब की थी, किसी जरूरतमंद की मदद कब की थी.. सोचे के आज आपने अच्छे काम ज्यादा किये या बुरे.. सोचे के क्या आप दिल से, तबीयत से मुस्कुराते है.. ।।..तो इससे पहले के आप बहुत थक जाये, अच्छा होगा थोङा ठहर जाये.. और थोङा वक्त निकाले अपने लिए, अपनो के लिए.. क्योकि जिन्दगी का मतलब सिर्फ साँस लेना भर नही है, ये उससे थोङा ज्यादा कीहकदार है.. ।।

सहजता ओर सरलता

सहजता और सरलता का अभाव ही अहंकार है!प्रश्न: अच्छे और बुरे कर्म में क्या अंतर है?श्री श्री रवि शंकर:कर्म को अच्छा बुरा title हम देते हैं। तनाव से जोकरते हैं वो कर्म सब बुरे हैं। प्रसन्न चित्त से जो भी करते हैं वो सब अच्छे हैं। एक बार की बात है - बोद्धिसत्व गए चीन। तो चीन के चक्रवर्ति स्वागत करने आए, बोले "हमने इतने तलाब खुलवाएं हैं, यह सब किया है, अन्न दान किया है, यह किया है, वो किया है।" यह सब सुनने के बाद बोद्धिसत्व नेकह दिया तू तो नर्क जाएगा। यह कोई अच्छा कर्म है! क्यों? मैं कर रहा हूँ। मैं कर्ता हूँ! यह कर्तापन से किया है। तनाव से किया है। अहंकार से किया है। सो वो अच्छा कर्म ही क्यों ना हो वो बुरा ही तुम्हारे लिए बन जाता है।प्रश्न: गुरुजी अहंकार क्या है और उसे कैसे मिटा सकते हैं?श्री श्री रवि शंकर: अपने आपको इस समष्टि से अलग मानना ही अहंकार है। औरों से अपने आप को अलग मानना। मैं बहुत अच्छा हूँ, सबसे अच्छा हूँ यां सबसे बुरा हूँ। दोनो अहंकार है। और अहंकार को तोड़ने की चेष्टा ना करो। ऐसा लगता है, उसको रहने दो। ऐसा लग रहा है मुझ में अहंकार है तो बोलो ठीकहै, मेरी जेब में रह जा...