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जनवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

महात्मा गाँधी

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आज की शिक्षा-प्रणाली और गाँधी के विचार विश्व शिक्षक, अक्षर के उपासक, युग विचारक, ब्रह्म के ग्याता, अमरलोक के संदेशवाहक, असत से सत, मृत्यु से अमृत की ओर ले जानेवाला, पर पीड़ा से पीड़ित,देश के सच्चे भक्त,हमारे राष्ट्रपिता, महात्मा गाँधी, अमृतत्व का उपदेशक बनकर, यहाँ जनम लिये । उन्होंने विश्व के जन-समुदाय से कहा,’ प्रेम , ग्यान के ग्रंथ को खोलने से नहीं , बल्कि हृदय- ग्रांथि को खोलने से होता है, और वहीं आदमी छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं से लेकर बड़े से बड़े प्राणियों के प्रति दया भाव रख सकता है , अन्यथा किसी और के लिए यह संभव नहीं । हमारे राष्ट्रपिता, महात्मा गाँधी का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही आदर्शवादी रहा है । उनका मानना था, ’ किसी भी देश और समाज की उन्नति और अवनति, उस देश के प्रयोजनवादी विचारधारा पर आधारित, शिक्षा पर निर्भर करता है । गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य, महज साक्षर होना नहीं बल्कि शिक्षा का उद्देश्य, आर्थिक आवश्यकता की पूर्त्ति का जरिया होना चाहिये । यह तभी संभव है, जब शिक्षा प्रयोजनवादी विचारधारा पर आधारित होगी । गाँधीजी वर्तमान ...

आधुनिक लोकतांत्रिक-गणतंत्रीय सोच

26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे राष्‍ट्रीय दिवसों को होली-दिवाली-ईद की तरह क्यों नहीं मनाया जाता? इन राष्‍ट्रीय दिवसों को लोग उन त्यौहारों की तरह क्यों नहीं मनाते, जिनसे पूरा समाज और उसकी इकाई यानी कि हर व्यक्ति जुडता सा प्रतीत होता है? महीने भर पहले से जो उत्साह आम जनता के स्तर पर सामाजिक और सामुदायिक त्यौहारों के प्रति दिखता है वो पहल, लगाव, अपनत्व और जिजीविषा इन राष्‍ट्रीय दिवसों के प्रति क्यों नहीं? ऐसा क्यों है कि ये राष्‍ट्रीय दिवस 365 दिनों में बस एक दिन आकर चले जाते हैं? हम इनके साथ सामाजिक स्तर पर वैसा तादात्म्य क्यों नहीं स्थापित कर पाते, जैसा कि महाराष्‍ट्र में गणेशोत्सव, बिहार-उत्तर प्रदेश में सूर्य पूजा या छठ, मकर संक्रांति, पंजाब में लोहडी और दक्षिण में पोंगल के साथ रिश्तों की आम लेकिन सघन बुनावट देखने को मिलती है? दिलचस्प है कि ये सभी सामाजिक-सांस्कृतिक त्यौहार भी जनता के स्तर पर रचे-बसे हैं, जिनमें क्षेत्रीय स्तरों पर आम शिरकत भी जबर्दस्त होती है, लेकिन हमारा गणतंत्र, जो याद दिलाता है कि आज के ही दिन भारतीय संविधान लागू हुआ था, जिसकी प्रस्तावना का वाक्य ही ...

आज की पढाई

यह आज की पढाई हैं बचपन गवा दिया , न जवानी का रहा पता . श्रेष्टता की अंधी दोड़ ने , स्वभाव भुला दिया . कोपी जाँच करने वाले महाशयो को यह तक नही पता . की इनके गलत जाँच ने कितने घरो को उजाड़ दिया . पढाई के नाम पर हमको बना दिया रट्टू तोता . अगर बचपन से रूचि का काम सिखाते , तो हम बन जाते  किसी विशेष कार्य के ज्ञाता . इस पढाई ने हमको क्या दिया - तनाव , गुस्सा , एकाकीपन , इर्षा . कोई मन का कार्य सीखते तो हमको क्या मिलता -  ख़ुशी , आत्मविश्वास , विकास , जीवन्तता . बचपन जला दिया , न जवानी का रहा पता . श्रेष्टता की अंधी दोड़ में स्वभाव भुला दिया . बेटा बाप का न रहा , भाई ने भाई को भुला दिया. विश्वविधालय १०-१५ दिनों में परिणाम घोषित करने के दावे , समाचार पत्रों में घोषित करवाते हैं . परिणाम की गुणवक्ता का क्या आचार मंगवाकर खाते हैं . सारा पैटर्न ही बदल गया मास्टर आज दो समान विधार्थियों में भी अंतर करने लग गया . अरे भाई इन्सान हैं , खचर नही . भगवन के लाल हैं , मच्छर नही . पढाई की फीस ने निचे दबा दिया . इन्सान और इन्सान के बिच में भेद करा दिया . अगले दस वर्षो में सबसे शक्तिशाली देश बन...

हरिवंश राय बच्चन

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1... जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में, हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा, आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा? फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में, क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी, जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी, जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला, जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था, मानस के अन्दर उतनी ही कमजोरी थी, जितना ज्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी, उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी, जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा, उतना ही र...

"आम" आदमी की व्यथा

जब से केजरीवाल ने दिल्ली मे सरकार बनाई है तब से केजरीवाल से बड़ा गुनाहगार इस देश मे कोई नही है इसे साबित करने की भरपूर कोशिश की जा रही है । किन्तु यह साबित करने की कोशिश कौन लोग कर रहे है? जिन्हे "आम" आदमी की व्यथा से मतलब नही । जिनके मुद्दे भी अजीब होते है जिनका आम आदमी के जीवन पर कोई प्रभाव नही पड़ता । किन्तु एक बात तो है जहाँ हर वक्त मोदी छाया रहता था आज वो जगह केजरीवाल ने ले ली है । नवभारत टाइ म्स पर ही आप देख ले । जिस विषय मे मोदी अथवा धर्म होता था वही ब्लॉग सुपरहिट हो जाता था किन्तु जब से केजरीवाल का धमाका हुआ है केजरीवाल ही केजरीवाल नवभारत टाइम्स तो क्या हर जगह छाया हुआ है । भले ही लेख केजरीवाल के विरोध मे लिखे जाये या पक्ष मे किन्तु केजरीवाल के बिना कोई राजनैतिक लेख पूरा होता हुआ नही दिख रहा । सब की अपनी अपनी राय हो सकती है किसी को केजरीवाल देशद्रोही लग सकता है और किसी को देश भक्त किन्तु इस बंदे ने बड़े बड़े राजनैतिग्यो को हाशिये पर धकेल देने का जो कारनामा 2 साल मे किया है उसे नकारा नही जा सकता । सबसे पहले बात करते है मोदी की । मोदी जिसने 40 साल स...

'आप' और अरविँद,

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प्रिय 'आप' और अरविँद, दिल्ली से बाहर भी देश की जनता आपसे बडी उम्मीद लगाए बैठी है..॥ आपकी हर कदम देश की जनता की गहन निगरानी मेँ है...इसलिए अपनी हर कदम काफी फूंक-फूंककर और सोच-समझकर रखिए..॥ जिस जनता ने दिग्गजोँ को धूल चटाते हुए आपको सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया, वही जनता आपकी एक गलती पर आपको भी धूल चटा सकती है...क्यूंकि मानव स्वभाव रहा है..जिनसे उम्मीदेँ काफी ज्यादा होती, उनकी छोटी गलती भी हमेँ सुहाती नहीँ है॥ आपकी सादगी ने भारत की परंपरागत राजनीति मेँ ऐसी खलबली मचाई कि आनन-फानन मेँ वसुंधरा राजे को अपनी स्कयूरिटी आधी करनी पडी, निशंक ने अपने गाडी के उपर से लालबत्ती हटा ली, कई खुद को मेट्रो का रेगुलगर सवारी बताने लगे तो कईयोँ के दिमाग मेँ अपने काफिले और ताम-झाम को छोटा और कम करने के ख्याल पनपने लगे...लेकिन यह सब एक बडा आकार ले पाता..राजनीति मेँ सादगी का साम्राज्य फिर स्थापित हो पाता, उससे पहले ही सरकारी बंगला और गाडी लेने के आपके फैसले ने इन हांफते नेताओँ को ऑक्सीजन प्रदान करने का काम किया है और सादगी के इस अभियान और उसके दूरगामी परिणाम को आईसीयू की तरफ ढकेलने ...

नया साल मुबारक, पुराने का

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कहने की जरूरत नहीं। नया साल मुबारक, पुराने का मुँह काला। यही दुनिया का कायदा है। और कैसे न हो। जरा मिलाकर देखो दोनों को। यह देखो नया साल, गुलाबी-गुलाबी, और वह रहा तुम्हारा पुराना साल, चीकट, मटमैला। नया साल झबरे-झबरे बालों वाला ऊँची नसल का नन्हा-मुन्ना प्यारा-सा पपी है जिसे बरबस, गोद में उठा लेने को जी चाहता है, ऊन के गोले जैसा गरम, गुदगुदा। और वह पुराना साल खुजली का मारा, लीबर बहाता, मरियल, बूढ़ा, लावारिस कुत्ता जो हर घर से दुरदुराया जाता है। नया साल हरी-भरी दूब की वीथी है जिस पर अगल-बगल, रंग-बिरंगे सुगंधित फूलों की लताओं ने मंडप-सा तान रखा है, और पुराना साल कीचड़ और काई से ढँका हुआ वह ऊबड़-खाबड़ कंकरीला रास्ता जिसे अब पीछे मुड़कर ताकते डर लगता है। नया साल एक अनजाने सुख की सिहरन है, पुराना साल भो गे हुए कष्टों की एक कड़ी। कितना बुरा था पुराना साल। ढंग का खाना न ढंग का कपड़ा। कीमतें आसमान से बात करती हुई। रहने को मकान नहीं, दस-दस कुनबे बेशर्मी की चादर ओढ़कर एक जरा-सी कोठरी में जिंदगी के दिन गुजार रहे हैं। क्या था पुराने साल में जिसे चाव से कोई ...