भाजपा 'शाइनिंग इण्डिया'

8 दिसम्बर 2013 का दिन भारत में सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी के लिए काला दिन साबित हुआ। भारत में चार राज्यों की विधानसभाओं के लिए हुए चुनावों में काँग्रेस को मुँह की खानी पड़ी है। विशेष रूप से दिल्ली में हुई भयानक हार के कारण काँग्रेस मुँह दिखाने के काबिल नहीं रही। दिल्ली में 70 में से सिर्फ़ 8 सीटें प्राप्त करके काँग्रेस तीसरे नम्बर पर आई है। अभी एक साल पहले बनी 'आम आदमी पार्टी' से भी काँग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा है। दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित को 'आम आदमी पार्टी' के नेता अरविन्द केज़रीवाल ने 25 हज़ार से भी ज़्यादा मतों से हराया है।

दिल्ली में 15 साल सत्ता में रहने के बाद इन चुनावों में काँग्रेस को सिर्फ़ 8 सीटों पर ही सन्तोष करना पड़ रहा है। 'आम आदमी पार्टी' को काँग्रेस से साढ़े तीन गुना ज़्यादा सीटें मिली हैं। उसकी 28 सीटों पर जीत हुई है। काँग्रेस की मुख्य प्रतिद्वन्द्वी पार्टी 'भारतीय जनता पार्टी' (भाजपा) को दिल्ली में कुल 34 सीटें मिली हैं। राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी काँग्रेस का सफ़ाया हो गया है। इन दोनों राज्यों को भारत का दिल माना जाता है। सिर्फ़ छत्तीसगढ़ में ही काँग्रेस नरेन्द्र मोदी की पार्टी का कुछ सामना करने लायक दिखाई दी। रेडियो रूस के समीक्षक सेर्गेय तोमिन कहते हैं :
इन चार राज्यों में हुए चुनावों में काँग्रेस की जो भारी हार हुई है, क्या इसका मतलब यह नहीं है कि काँग्रेस का जहाज़ डूब रहा है? क्या इसका मतलब यह है कि अगले साल होने वाले आम चुनाव में भारत में सरकार बदल जाएगी और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्त्व में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आ जाएगी? रविवार को सामने आए चुनाव परिणामों ने काँग्रेस के लिए खतरे की घण्टी बजा दी है। इन चुनावों ने दिखाया कि मतदाता काँग्रेस से निराश हो चुके हैं और उसे अब आगे सरकार की बागडोर सौंपना नहीं चाहते। लेकिन फिर भी यह कहना जल्दबाज़ी करना होगा कि अगले साल होने वाले चुनावों में भाजपा की जीत पक्की है। चार राज्यों में भयानक हार का मुँह देखने के बाद भी काँग्रेस अगले साल संसद के लिए होने वाले चुनाव जीतने की कोशिश कर सकती है।
सन् 2004 में हुए चुनावों में भी ऐसा ही हुआ था। चुनाव की पूर्ववेला में किसी को भी यह अन्देशा नहीं था कि सतारूढ़ भारतीय जनता पार्टी चुनाव हार जाएगी। भाजपा का 'शाइनिंग इण्डिया' का नारा, ऐसा लग रहा था कि मतदाताओं को पसन्द आ रहा है और सरकार भारत को आर्थिक उन्नति और विकास के रास्ते पर आगे ले जा रही है। मतदान के दिन तक भाजपा नेतृत्त्व को यह विश्वास था कि चुनावों में भाजपा ही जीतने जा रही है। लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो भाजपा काँग्रेस के सामने घुटने टेक चुकी थी, भारतीय जनता पार्टी 2004 का वह आम चुनाव हार चुकी थी। इसलिए काँग्रेस को अभी से दफ़नाना जल्दबाज़ी करना होगा। काँग्रेस को राजनीति करने का बड़ा अनुभव प्राप्त है।
लेकिन फिर भी अगला चुनाव जीतने के लिए काँग्रेस को असम्भव को सम्भव करके दिखाना होगा। उसे अगले आम चुनाव से पहले-पहले अपनी ग़लतियों से सबक सीखना होगा तथा अपने चुनाव-कार्यक्रम में रद्दो-बदल करनी होगी। नेहरू-गाँधी परिवार के प्रतिनिधि के तौर पर राहुल गाँधी को काँग्रेस नेतृत्त्व की कमान अपने हाथ में लेनी होगी। सेर्गेय तोमिन ने कहा :
काँग्रेस का चुनाव-कार्यक्रम कैसा होना चाहिए? इस सवाल का जवाब दिल्ली में हाल ही में हुए चुनाव के परिणाम देते हैं। 'आम आदमी पार्टी' की जीत ही इस सवाल का जवाब है। यह पार्टी 'भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष' के नारे के घोड़े पर सवार होकर जीती है और सन् 2014 में होनेवाले आम चुनाव में 'भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष' ही चुनाव का मुख्य मुद्दा बनने जा रहा है। इस परिस्थिति में काँग्रेस को भी यह सिद्ध करना होगा कि वह न केवल भ्रष्टाचार को शह देती रही है, बल्कि वह उसके विरुद्ध संघर्ष करने में भी वैसे ही सक्षम है। काँग्रेस को यह काम बेहतर ढंग से करना होगा।
चार राज्यों में हुए ये चुनाव न सिर्फ़ काँग्रेस के लिए सबक होने चाहिए, बल्कि भाजपा को भी इनसे सबक लेना होगा। अब भारतीय राजनीति में नई ताक़त उभर आई है। भारत का मतदाता काँग्रेस और भाजपा का विकल्प ढूँढ़ रहा था। मतदाता न सिर्फ़ चुनाव घोषणाओं को बदला हुआ देखना चाहता है, बल्कि वह सरकार में, सत्ता में नए चेहरों को भी देखना चाहता है। इसलिए काँग्रेस के साथ-साथ भाजपा को भी अपन छवि बदलने के लिए बहुत-कुछ सोचना होगा। कहीं ऐसा न हो कि भाजपा की यह जीत उसके बुझने से पहले की आख़िरी चमक बनकर रह जाए।   


( 2.)     कांग्रेस के खिलाफ गये चार राज्यों के जनादेश का सबसे बडा संकेत 2014 में एक नये विकल्प को खोजता देश है। भारतीय राजनीति में पहली बार ऐसा मौका आया है जब लोकसभा चुनाव की छांव में चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी को चेताया है कि मौजूदा वक्त में देश विकल्प खोज रहा है। और अगर बीजेपी यह सोच रही है कि कांग्रेस की नीतियों को लेकर बढ़ता आक्रोश बीजेपी को सत्ता में पहुंचा देगा तो यह उसका सपना है क्योंकि दिल्ली में जैसे ही कांग्रेस और बीजेपी से इतर आम आदमी पार्टी मैदान में उतरी, वैसे ही जनता ने कांग्रेसी सत्ता के विकल्प के तौर पर बीजेपी से कही ज्यादा तरजीह आम आदमी पार्टी को दी। हालांकि राजस्थान और मध्यप्रदेश ने कांग्रेस को खारिज कर बीजेपी को जिस तरह दो तिहाई बहुमत दिया, यही स्थिति दिल्ली में भी बीजेपी की हो सकती थी लेकिन इसके लिये जरुरी था कि आम आदमी पार्टी चुनाव मैदान में ना होती।

इसी तर्ज पर पहला सवाल यही है कि क्या राजस्थान या मध्यप्रदेश या फिर छत्तीसगढ में अगर वाकई "आप" सरीखा राजनीतिक दल होता तो कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी को मुश्किल होती। क्योंकि तब सत्ता बदलने का नहीं राजनीतिक विकल्प का सवाल वोटरों के सामने होता। तो क्या चारों राज्यों के परिणाम ने हर राजनीतिक दल को नया ककहरा पढ़ाया है कि वह पारंपरिक राजनीति से इतर देखना शुरु करें और देश की राजनीति को केन्द्र में रखकर राज्यों की राजनीति का महत्व समझें। क्योंकि राजस्थान में अशोक गहलोत के विकास के नारे और कल्याणकारी योजनाओं पर यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और महंगाई भारी पड़े। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के सेक्यूलरवाद की सोच पर बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान की सरोकार की राजनीति भारी पड़ी। छत्तीसगढ में विकास की चादर को सरकारी दान के दायरे में लपेटने की कोशिश बीजेपी के चावल वाले बाबा यानी रमन सिंह ने की और सत्ता के लिये वह ऐसे मुहाने पर आ खडे हुये जो बीजेपी के केंद्रीय लीडरशीप को दिल्ली में डराने लगे। क्योंकि चावल बांटने से वोट बटोरा जा सकता है लेकिन शिवराज चौहान की तरह राजनीतिक साख बनायी नहीं जा सकती है। इस लकीर को कही ज्यादा गाढ़ा दिल्ली में "आप" ने बनाया। क्योंकि विकास के ढांचे से लेकर कांग्रेस-बीजेपी की हर उपलब्धि को "आप" ने एक ऐसे कटघरे में रखा, जहां वोटर और पारंपरिक राजनीति के बीच "आप" खड़ी नजर आने लगी। शायद इसीलिये कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को यह मानना पड़ा कि चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस को नये सिरे से मथने के बारे में वह दिल-दिमाग से सोचने लगे हैं।

वहीं बीजेपी को अपनी नीतियों के समानांतर कांग्रेस के प्रति जनता के आक्रोश और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की चादर अपनी जीत के साथ लपेटनी पड़ी। और यहीं से भविष्य के भारत के नये राजनीतिक संकेत मिलने लगे हैं। क्योंकि कांग्रेस का साथ छोड़कर मध्यप्रदेश में मुस्लिम बहुल इलाके भी बीजेपी के साथ नजर आ रहे हैं। और राजस्थान में मीणा जाति के वोट बैंक भी गहलोत के राजनीतिक गठबंधन को लाभ पहुंचा नही पाये। और चुनावी संघर्ष में शीला दीक्षित जैसी अनुभवी और कांग्रेस की कद्दावर नेता भी एक बरस पुराने "आप" के नेता केजरीवाल से हार गयी। तो अगर जातीय गठबंधन बेमानी लगने लगा। धर्म के आधार पर राजनीतिक लकीर छोटी हो गयी। विकास के मुद्दे का ढोल खोखला लगने लगा। युवाओं का सैलाब नयी राजनीति की परिभाषा गढ़ने के लिये चुनाव को नये तरीके से देखने के लिये विवश करने लगा है तो पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी 10 जनपथ से बाहर निकल कर प्रधानमंत्री पद के लिये उम्मीदवार के जल्द ऐलान के संकेत देने पड़े। यानी मनमोहन सरकार के दायरे से बाहर सोचना कांग्रेस की जरुरत हो चली है और जिस युवा को अभी तक राहुल गांधी महत्व देने को तैयार नहीं थे उन्हें कांग्रेस के साथ खड़ा करने की बात राहुल गांधी को चुनाव परिणाम के बाद कहना पड़ा। जिस सोशल मीडिया के जरीये पारदर्शी राजनीति की बहस शुरु हुई, उसे चुनाव से पहले जिस तरह कांग्रेस और बीजेपी खारिज कर रही थी उसी सोशल मीडिया पर उभरे खुले विचारो को भी "आप" की जीत के बाद मान्यता मिलने लगी है। और यह वाकई आश्चर्यजनक है कि दिल्ली में शीला दीक्षित की समूची कैबिनेट को जिन उम्मीदवारों ने हराया, वह एक बरस पहले तक सड़क पर जनलोकपाल के लिये सरकार से गुहार लगाते हुये जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक नारे लगा रहे थे।
यानी 2014 के आम चुनाव से पहले राज्यों के चुनाव परिणाम ने एक ऐसा सेमीफाइनल हर किसी के सामने रखा है, जिसमें कांग्रेस अब गांधी परिवार के 'औरा' के जरीये सत्ता पा नहीं सकती है। बीजेपी सिर्फ नरेन्द्र मोदी की पीठ पर सवार होकर सत्ता पा नहीं सकती है। तीसरा मोर्चा महज जातीय समीकरण के आसरे 2014 में अपनी बनती सरकार के नारे लगा नहीं सकता है। क्योंकि चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने जतला दिया है कि देश पारंपरिक राजनीति से इतर नये भारत को बनाने के लिये विकल्प खोज रहा है। जहां आम आदमी की राजनीति अब कद्दवार और कद पाये नेताओं को भी जमीन सूंघाने को तैयार है

  

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है,

परफेक्शन

धर्म के नाम पर