उत्तराखंड में तबाही

उत्तराखंड में हुई भारी तबाही ने विकास के मौजूदा मॉ़डल को लेकर गंभीर बहस खड़ी कर दी है। सवाल उठ रहा है कि क्या ये तबाही सिर्फ कुदरत का कहर है, या इसमें हम इंसानों का भी कोई योगदान है। जानकारों का साफ कहना है कि बांधों, बिजली परियोजनाओं और सड़कों के लिए पहाड़ों को छलनी करना बंद नही किया गया तो कुदरत और ज्यादा कहर बरसा सकती है। कुदरत के इस रौद्ररूप के आगे सब बेबस नजर आए एक बार फिर साबित हुआ कि कुदरत की ताकत से बढ़कर कोई ताकत नहीं। इसके कहर की कोई काट नहीं, लेकिन जरा ठहरिये कुछ और भी सवाल मुंह बाए खड़े हैं। सवाल ये कि क्या उत्तराखंड में खून की बारिश और मौत का सैलाब लाने वाले इस कहर के पीछे सिर्फ कुदरत की नाराजगी है या फिर इसका कोई और सबब भी है कहीं ऐसा तो नहीं कि कुदरत के सामने बेहद बौना नजर आने वाला इंसान, अपनी आसमान छूती हवस का खुद शिकार हो गया। सदियों से तपस्वियों की तरह अटल खड़े पहाड़ों को इंसानी लालच ने इस कदर छलनी किया कि हर तरफ ज़हर के सोते फूट पड़े, जिनकी हर बूंद में मौत का पैगाम है। अफसोस! हिमालय की गोद में बसे इस पहाड़ी राज्य की माटी की धड़कन को करीब से महसूस करने वाले इन आशंकाओं को सही ठहराते हैं। यूं तो शुरूआत काफी पहले हो चुकी थी, लेकिन सन 2000 में उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद, निर्माण का अंधड़ उड़ने लगा सड़कें, पनबिजली संयत्र और हर खाली जमीन पर महानगरों के अंदाज में इमारतें खड़ी करने का जैसे जुनून सवार हो गया।
पहाड़ हैरान थे और नदियां बेचैन, क्योंकि वे जानती थीं कि बाकी देश के लिए जो विकास है, वो यहां विनाश बन सकता है। हिमालय अभी जवान हो रहा है चट्टानें हरकत में हैं, और पहाड़ियां दरारों से भरपूर भूकंपों के लिहाज से इस बेहद संवेदनशील माने जाने वाले इलाके में थोड़ी सी लापरवाही भी घातक हो सकती है। पद्मश्री से सम्मानित और बैंगलुरू के जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस साइंटिफिक रिसर्च के मानद प्रोफेसर के.एस.वाल्दिया अरसे से इस खतरे को लेकर चेताते रहे हैं।
यूं बादल फटना या अचानक भारी बारिश होना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसी घटनाओं में इजाफा हुआ है। अचानक आये सैलाब को पहाड़ संभाल नहीं पाते जिससे भूस्खलन होता है जो मलबे में तब्दील होकर तबाही मचाता है। केदारनाथ में सैलाब पहले आता रहा है। एक ग्लेशियर के पीछे हटने से बनी केदारनाथ घाटी में हर तरफ बिखरी शिलाएं और चट्टानें उसकी गवाह हैं। इसी खतरे को भांपते हुए केदारनाथ का दर्शन करके उसी दिन लौट जाने की परंपरा थी।
धीरे-धीरे तीर्थयात्रा को पर्यटन में बदलने की कोशिश तेज हुई। मंदाकिनी किनारे ढेरों इमारतें बनाई गईं और लगभग जनशून्य इलाके में छोटा सा शहर बसा दिया गया। ये भूलकर कि कुदरत ने नजरें टेढ़ी कीं तो ये मुर्दों का टीला बनकर रह जाएगा। यकीनन उत्तराखंड आपराधिक लापरवाही का शिकार बना। ये वो प्रदेश है जहां से गंगा और यमुना जैसी नदियां निकलती हैं। इनका निर्माण तमाम छोटी-छोटी जलधाराओं से होता है। ये जलधाराएं या नदियां भारी बारिश या बादल फटने से आए सैलाब को बहाकर सदियों से मैदानी इलाकों तक ले जाती रही हैं।
बेहद उपजाऊ कही जाने वाली गंगा घाटी इसी की देन है। लेकिन इन नदियों को बांधकर पनबिजली परियोजनाएं बनाने का जो सिलसिला तेज हुआ उसने नदियों में पानी की जगह मलबा भर दिया। ये मलबा पैदा हुआ डायनामाइट लगाकर पहाड़ों को तोड़ने की वजह से। पनबिजली परियोजनाएं हों या सड़क निर्माण, श्रीगणेश किसी पहाड़ को उड़ाकर ही किया जाता है। सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि गढ़वाल के जोशीमठ ब्लॉक में 2006 से 2011 के बीच कुल 20,632 किलोग्राम विस्फोटक और 1,71,235 डेटोनेटरों का प्रयोग किया गया।
अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि इन विस्फोटों ने उत्तराखंड के अखंड पहाड़ों को किस तरह खंड-खंड किया होगा। लेकिन विकास के नाम पर सबने आंखें मूंदे रखीं। गोया कोई दूसरा रास्ता नहीं था। दूसरी तरफ, उत्तराखंड में हाल के दिनों में सड़कों का जाल बिछा दिया गया। सन 2000 में उत्तराखंड में सिर्फ 8 हजार कि.मी सड़क थी। आज वहां 23-24 हज़ार किमी सड़कों का निर्माण हो चुका है। इन सड़कों को बनाने में ये भी ध्यान नहीं रखा गया कि नीचे दरारे हैं या नहीं। पहाड़ में एक कि.मी सड़क बनाने में 20-25 हजार घनमीटर मलबा एकत्रित होता है। ये सारा का सारा मलबा पहाड़ों की ढलान में डाल दिया जाता है जो नालों के जरिये नदियों में पहुंच जाता है। नदियों में गाद बनकर जमा ये मलबा बाढ़ की वजह बन जाता है। नदी में पानी सहेजने और बहाने की क्षमता कम हो जाती है।
जिस तरह इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढहीं, देखते ही देखते पानी में समा गईं, वो बताता है कि चट्टानी टुकड़ों से भरा मलबा, पानी को तलवार की धार में बदल देता है जिससे वो किनारों को काटते चला जाता है। उधर,बांध और सड़क बनाने के लिए उत्तराखंड में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई भी हुई। एक किलीमोटर सड़क बनाने के लिए हजारों पेड़ को काट डाला जाता है। कई पहाड़ों को देखकर लगता है कि जैसे उनकी खाल खींच ली गई है। पेड़ पहांड़ों की मिट्टी को सहेज कर रखते थे, भूस्खलन को रोकते थे। लेकिन अब थोड़ी बारिश से भी पहाड़ियां खिसकने लगती हैं, क्योंकि जड़ों के दम पर उन्हें जकड़कर रखने वाली मिट्टी आसानी से बह जाती है।
मलबे को नदियों में जाने से रोकने और पेड़ लगाने के लिए जैसी संवेदनशीलता होनी चाहिए थी, वो न सरकार ने दिखाई न प्रशासन। नतीजा है भारी तबाही। ऐसी ही लापरवाही चारधाम यात्रा को लेकर भी हुई। अमरनाथ यात्रा के लिए जैसे यात्रियों की तादाद निश्चित की जाती है, वैसी ही यहां भी होना चाहिए था। लेकिन सरकार ने फैसला लिया कि देश भर के टूर ऑपरेटर जितने यात्रियों को चाहें, उत्तराखंड भेज सकता हैं। पर्यटन से कमाई पर नजर रखते हुए सरकारों ने इस बात को नजरंदाज कर दिया कि डायनामाइट से छलनी पहाड़ों में कितना बोझ उठाने की ताकत बची है। विज्ञानी बताते हैं कि वाहनों का भार इस इलाके में छोटे भूकंपों का अंतहीन सिलसिला लाते हैं।
साफ है, उत्तराखंड की हालिया तबाही महज एक चेतावनी है। माफियाओं, नौकरशाहों ओर राजनेताओं के कॉकटेल ने उत्तराखंड में विकास के नाम पर जो विनालीला रची है, उसे समय रहते रोकना जरूरी है। वरना,कुदरत ऐसा कहर बरपाएगी कि हवस के मारों की दास्तान सिर्फ दास्तानों में दर्ज होकर रह जाएगी।

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