" मेरी माँ' "
'माँ'
- अपने आप में मुकम्मल, छोटा सा एक लफ्ज़, जिसे परिभाषित करना आसान नहीं.
कोई भी कविता, कोई भी कहानी, शब्दों का कैसा भी मनोहारी ताना-बाना इसे
सम्पूर्णता में अभिव्यक्ति नहीं दे सकता. मेरी माँ दुनिया की सबसे बेहतर
माँ है. मेरे पुरे परिवार का भार अपने
कंधे पे उठाये जीवन के हर परेशानियों से लडती हुई आज उसकी आँखें थक गयी
हैं. उसकी आँखें अब कमजोर हो गयी हैं. उसके शरीर पे उम्र का राक्षस हावी हो
गया है. मेरे ह्रदय में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. क्या में उस कल्पवृक्ष
को खो दूंगा जो कभी मुझे अपने छाँव में लोरियां गा कर मुझे चैन की नींद
सुलाता था, क्या वो उँगलियाँ अब हमेशा के लिए मुझसे छिन जायेंगी जिन्हें
पकड़ कर मैंने ज़िन्दगी के हर कठिन रास्ते को आसानी से पार किया ? क्या वो
ममता और निस्वार्थ प्रेम भरी आँखें हमेशा के लिए बंद हो जाएँगी? वो आलिंगन
जिसने धरती पर कभी मेरा स्वागत किया था क्या उससे में हमेशा के लिए बिछड़
जाऊंगा? मेरी माँ ने ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मेरा साथ दिया. कभी बुरे से
लड़ने की ताकत दी तो कभी अच्छा करने पर होले होले मेरे बालों को सहला कर
मेरा उत्साह बढाया. लोग आते रहे मेरी ज़िन्दगी में और अपना किरदार निभा कर
चले गए लेकिन मेरी माँ ने कभी मुझे अपने से अलग नहीं होने दिया. ज़िन्दगी
के हर मोड़ पर अपनी दुआ, ममता और प्रेम की दवा से मेरा साथ दिया. माँ, ये
शब्द ही ऐसा है की हर इंसान चाहे वो छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब,
ताकतवर हो या कमजोर, इस शब्द से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है. मैं भी
जुड़ा हूँ और मेरा तो पहला आखरी प्रेम मेरी माँ है. हाँ मैं प्यार करता हूँ
अपनी माँ से करता हूँ और उस दिन से करता हूँ जब मैंने अपनी आँखें खोली थी.
आज वो वृक्ष जिसने कभी अपने छाँव तले मुझे जीवन के सूर्यताप से बचाया है,
बुढा हो गया है लेकिन उस वृक्ष का एक बीज मेरे अन्दर मौजूद है जो हमेशा
मुझे इस बात की प्रेरणा देता है की स्वयं को एक विशाल वृक्ष बनाओ इतना
विशाल की न चाहते हुए भी इंसान जीवन के ताप से बचने के लिए तुम्हारे छाँव
मैं चैन के दो पल गुजार सके. अपनी माँ की इस प्रेरणा का मैं जीवन पर्यंत
अनुशरण करूंगा.
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