विष्णु तिवारी
इसी देश में एक विष्णु तिवारी नाम के ग़रीब भी रहतें हैं।
उन पर तेईस साल की उम्र में दुष्कर्म का फ़र्जी आरोप लगता है। एक ट्रॉयल कोर्ट में उन्हें सजा दी जाती है। वो जेल चले जातें हैं। इस बीच माताजी मर जातीं हैं तो पैरोल तक नहीं मिलता। एक छोटा भाई ब्याह नहीं करता है कि भइया की शादी नहीं हुई तो मैं अपनी शादी कैसे कर लूं ,
पैरवी में घर की पाँच एकड़ जमीन बिक जाती है। पूरा परिवार सामाजिक बहिष्कार झेलते हुए सड़क पर आ जाता है।
आख़िरकार बीस साल लग जातें हैं,तब हाईकोर्ट को पता चलता है कि विष्णु तिवारी तो निर्दोष हैं। उन पर रेप का लगाया गया केस फ़र्जी है।
परसों जब मैं अखबार में ये समाचार पढ़ा तो मन किया कि दीवाल में सर दे मारूँ। सोच रहा था कि आज पाँच साल में पूरी दुनिया बदल जाती है। किसी नें बीस साल जेल में कैसे बिताए होंगे ?
आज बड़े-बड़े सुविधाभोगी लोग बीस सेकेंड में टूटकर आत्महत्या कर लेतें हैं। क्या विष्णु जी को मन न किया होगा कि घर गया,जमीन गई,इज्ज़त गई इस जीवन से अच्छा तो मर जाना है ?
लेकिन कितना धैर्य होगा..कितनी उम्मीदें..ख़ुद पर कितना विश्वास.. सत्य की ताकत पर कितना भरोसा..
मैनें देखा उन्हें लौटते हुए.. उनके हाथों में लटक रहे वो दो झोले भारतीय न्याय व्यवस्था के झोल की कहानियाँ कह रहे थे।
ये कैसा न्याय तंत्र है हमारा...किसी के बीस साल के गुनाह को भारत के बुद्धिजीवी बीस मिनट में ख़ारिज कर देतें हैं। सारा तंत्र उनका हो जाता है.. किसी को बीस साल लग जातें हैं अपनी बेगुनाही साबित करने में।
कौन लौटाएगा ये बीस साल ?
कोई नहीं जानता..
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