किसान आंदोलन
जब कभी आंदोलन की शुरुआत होती है तो सरकारें उसको औचित्यहीन बताते हुए नजरअंदाज करती है।जब आंदोलन की तीव्रता बढ़ती है तो सरकार अपने लोगों द्वारा उनको बदनाम करने की कोशिश करती है।जब बदनाम करने में नाकाम हो जाती है और आंदोलन आगे बढ़ जाता है तो सरकार असामाजिक तत्वों को हिंसक बनाने के कार्य पर लगा देती है।
अब तक का किसान आंदोलन बेहद अनुशासित,शांतिपूर्ण रहा है।
ऐसे में सरकार ने खुद ही किसानों के रास्ते रोककर,सड़के खोदकर गलती कर डाली।सरकारी तानाशाही व गलतियों के कारण देशभर के किसानों में हलचल पैदा हुई।दिल्ली की तरफ कूच करने लगे।
सोशल मीडिया ने आईटी सेल वालों को मुंहतोड़ जवाब दिया है और बेहद शालीन,तर्कपूर्ण व संयमित तरीके तल्ख लहजे में आईना दिखाया है।
अब सरकार व किसान नेताओं पर सबकुछ निर्भर है।केंद्रीय कृषि मंत्री कह रहे है कि मैं बात करूंगा यानि सरकार की तरफ से दूसरी बड़ी गलती की जा रही है।किसान नेताओं को इसका लाभ उठाना चाहिए।किसी भी सूरत में बुराड़ी गांव के निरंकारी ग्राउंड में जाने की भूल नहीं करनी चाहिए।आंदोलन अपनी तीव्रता के चरम पर है और बड़े स्तर पर लामबंदी हो रही है ऐसे में जितना लंबा खींचेगा उतने ही सफलता के अवसर खुलते जाएंगे।
सरकार की तरफ से बलपूर्वक रोकने का हर प्रयास नाकाम हो चुका है व आंदोलन आगे बढ़ रहा है तो किसान नेताओं की जिम्मेवारी भी बढ़ रही है।यह सूझबूझ से निर्णय लेने का वक्त है।बंद कमरों में वार्ता के लिए किसान नेताओं को बिल्कुल नहीं जाना चाहिए।रामलीला मैदान में एकत्रित हो और वहीं मंच पर बुलाकर बात की जाएं।नये किसान नेताओं किसी भी हालत में वार्ता की बागडोर न सौंपे।
संघी टोले की किसान शाखाएं सक्रिय हो चुकी है!मित्रों की अटेचियाँ भी हिलने-डुलने लग गई है!यह आंदोलन तोड़ने की अंतिम रणनीति है और इसमें अगर किसान नेता जीत गए तो सरकार घुटनों के बल बैठकर किसान की हर जायज मांग मानेगी।
किसान जबरदस्त तरीके से लामबंद हो रहा है इसलिए किसान नेता जल्दबाजी कतई न दिखाएं।कहा जाता है कि सियारों का नेतृत्व "सिंह" करे तो जीत सुनिश्चित हो जाती है मगर यहां तो सिपाही से लेकर सेनापति तक सिंह ही सिंह है इसलिए कमजोर महसूस करने का कोई कारण नहीं है।सफल नेतृत्व की पहचान खुद पर नियंत्रण से है।
चौधरी छोटूराम कहा करते थे कि "जब दूसरे नाराज होते है तो कानून तोड़ते है लेकिन किसान नाराज होते है तो सरकारों की पीठ तोड़ते है।"
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