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कोरोना

कोरोना का प्रकोप दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है! क्या लगता है आपको, महीने दो महीने में कोरोना चला जायेगा, हम पहले की तरह जीवन जीने लगेंगे ? नहीं.. कदापि नहीं!. यहाँ तक कि वैक्सीन आने के बाद भी शायद सब कुछ पहले की तरह होने में साल लग जाय । corona virus  अब हमारे देश में जड़ें जमा चुका है, अब सवाल यह उठता है कि हमें स्वयं इस वायरस से लड़ना पड़ेगा, अपनी जीवन शैली में बदलाव करके, अपनी इम्युनिटी स्ट्रांग करके..! हमें करीब 50 साल पुरानी जीवन शैली अपनानी होगी। अपने भोजन में पौष्टिक आहार की मात्रा बढ़ानी होगी! अपने आहार में ताज़े फलों का रस, हरे पत्तों के रस की मात्रा बढ़ानी होगी। भूल जाइए जीभ का स्वाद, तला-भुना मसालेदार,  होटल वाला खाने से बचें नियमित जीवन शैली में बदलाव लाएं! शुद्ध आहार लें, शुद्ध मसाले खाएं। आंवला, गिलोय, काली मिर्च, दालचीनी, इलायची, सोंठ, लौंग आदि पर निर्भर हों। चीज, पनीर, ब्रेड, बिस्किट, टोस्ट, चॉकलेट, केडबरी, वडापाव,  फ़ास्ट फ़ूड, पिज़्ज़ा, बर्गर, वगैरह वगैरह.. ना खाये और सभी तरह के पेकिंग वाले ड्रिंक, कोल्ड्रिंक को भूल जाएं। मानव/फेक्ट्री मे निर्मित सभी खाध प्रदार्थ ...

मन का

कभी-कभी सोचता हूँ कि कितने ही लोग हैं जो कितना कुछ अपने ही भीतर लेकर जीते रहते हैं, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाते वो कहने, करने या होने का, जो वो असल में चाहते हैं. कितने हो होंगे जो मन में बस इस डर को लेकर जीते हैं, कि अगर कह दिया तो क्या होगा, अगर कर दिया तो क्या होगा, या अगर वो होने की कोशिश की जो होने का मन है तो क्या होगा..सामाजिकता, नियम, और क़ायदों के डर की बेड़ियों में बस जकड़े हुए जीते हैं, मानो अपने दिमाग़ के भीतर एक काल-कोठरी बना रखी हो और उसी में पड़े-पड़े गुज़ार भर रहे हैं ज़िंदगी.. मुझे नहीं पता कि लोगों को क्या समझ आता है, लेकिन इत्ती सी ज़िंदगी में अपने लिए कुछ लम्हे चुरा लेने का हक़ और फ़ैसला हर एक को लेना ही चाहिए..कितनी ही बातें या लोग हों, अपने मन की भी कर लेना ज़रूरी है..हर एक की समझ अलग है, अपब्रिंगिंग अलग है, सोच अलग है, लेकिन अपने लिए सभी को सोचना ही चाहिए. क्यूँ नहीं हम थोड़ा ख़ुद के लिए जी लेते, थोड़ा सा पागल हो लेते, थोड़ी सी मस्ती अपने मन के हिसाब से करते, थोड़े से दोस्त ऐसे बनाते जिनके हम होना चाहते हैं, थोड़ी सी रिवायतें तोड़ते, थोड़े से लम्हे दुनिया की आँखों में धूल झोंककर ख़ुद...

ओरत

 में जब भी देखता हूँ तो सबसे ज़्यादा सामाजिक रिवाज़ों, पितृसत्ता, और कायदों का विक्टिम स्त्रियों को ही पाता हूँ, जैसे उन्हें इंसान ही नहीं समझा जाता, जैसे उनकी राय की, उनकी सोच की, और उनके ख़यालों की कोई वैल्यू ही न हो और मानसिक ही नहीं शारीरिक तौर पर भी उनकी इच्छाओं का सम्मान करना ज़्यादातर लोग ज़रूरी नहीं समझते..बहुत से मामलों में तो उनके अपने माँ-बाप ही उन्हें ज़िन्दगी चलाने के लिए ऐसे रिश्तों को ढोते रहने और सहने को मजबूर करते हैं जो एक स्त्री के लिए नर्क से भी बुरा होता है.. ऐसा नहीं कि पुरूषों को परेशानियाँ नहीं होतीं, या उनके साथ ग़लत नहीं होता, लेकिन जिस तरह के सामाजिक ताने-बाने से हमें बुना गया है, और जिस तरह के धार्मिक ग्रंथों या कहानियों से संदर्भ लिए जाते हैं स्त्री के बंधनों को जस्टिफाई करने के लिए वो तो अति है हर मामले में..और उस पर स्त्रियों की अपनी परेशानियाँ इस तकलीफ़ को कई गुना बढ़ा देती हैं.. जो भी हो, मुझे जो लगता है, महसूस होता है वो लिख देता हूँ बिना ये सोचे कि किसे क्या लगेगा..कुछ ग़लत लगता है तो कह देता हूँ, कुछ अच्छा लगता है तो तारीफ़ कर देता हूँ, और कमाल की बात है कि...

आत्महत्या

आत्महत्या करने का फ़ैसला कोई तुरंत नहीं लेता, बल्कि बहुत सोचकर ऐसा करता है. मैं बिल्कुल इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ, कि आत्महत्या के पीछे कई दिनों या महीनों का डिप्रेशन होता है, लेकिन मुझे ऐसा भी लगता है कि बस कोई एक क्षण होता है जब ये फ़ैसला हो जाता है, और अगर उस क्षण कोई आपसे बात कर ले, आप किसी से बात कर लें, कोई आवाज़ आपको भटका दे, तो फ़िर वो वक़्त शायद टाला जा सके.. दुनिया अपने आप में इतनी परेशानियों से भरी है कि हजारों वजहें हैं हार मान लेने की, लेकिन लाखों वजहें हो भी सकती हैं जीने की..बस कभी हारा हुआ महसूस करें, तो सोचें कि जिंदगी ने कितना-कुछ दिया भी तो है, किसी दोस्त से बात कर लें, कुछ और सोच लें, मुश्किल है लेकिन कोशिश करके देखें, और ये समझें कि अगर पूरी दुनिया में कोई एक इंसान भी है जो चाहता है आपको, तो उनका क्या होने वाला है.. मुसीबतें हर एक को मिलती हैं, आप अकेले नहीं हैं जो लड़ रहे हैं, बल्कि हर कोई अपने मन में और अपनी ज़िंदगी में एक लड़ाई लड़ रहा है..इसीलिए कभी हार जाने का डर हो तो ख़ुद से बातें करें, किसी दोस्त से ऐसे ही बात कर लें, चीजों को ठीक करने की कोशिश न सही ज़िंदगी को समझने की कोशिश...