जिंदगी
रोज़ कई लोगों को देखता हूँ, जो मुँह लटकाए घर से निकलते हैं और वैसे ही वापस आते हैं दिन भर की थकान की एक धूल जिस्म पे लिए..बस एक नौकरी, धंधा या काम..और ज़िंदगी में कोई जोश नहीं, जुनून नहीं, अपने आपको जीने का मौका और वक़्त तो बिल्कुल भी नहीं..
बस एक होड़ है, पैसा कमाने, बड़े घर और बड़ी गाड़ी के लिए..लेकिन जिसके मायने असल में हैं और जो ज़्यादा ज़रूरी है, उसे नज़रअंदाज़ कर ज़िंदगी को बस ठेलते रहते हैं हम..और बस यूँ ही एक दिन मर जाते हैं..जब मर रहे होते हैं तो ख़्याल आता है कि कितना कुछ था जो रह गया, जो कहा जा सकता था, किया जा सकता था और जिया भी जा सकता था, लेकिन कर नहीं सके क्यूँकि ज़िंदगी को बस एक रेस बनाकर दौड़ते रहे, वक़्त बचा ही नहीं अपनी रूह की ख़ातिर कुछ करने को..
हालाँकि, लोग कहते हैं कई बार पोस्ट्स पर कि लाइफ़ में प्रैक्टिकल होना पड़ता है, और ये सही भी है लेकिन प्रैक्टिकल होने के साथ ज़िंदगी के साथ बैलेंस बना लिए होते तो क्या बात थी..मुझे दुःख तब होता है जब ऐसी स्तिथी देखता हूँ, एक इंसान अपनी कमियों को साइड में रख के खुल के जी रहा है, और सब कुछ होते हुए भी हम ऐसी रेस में भागे जा रहे हैं जिसकी कोई फ़िनिश-लाइन है ही नहीं..
ज़िंदगी को इतना भी कॉम्प्लिकेट मत किजीये कि जीना ही भूल जाएँ.. कभी अकेले बैठें तो अपने मन से भी पूछ लें कि वो क्या चाहता है, किस पागलपन में वो सुक़ून पाता है, किस दरिया में डुबकी लगाना चाहता है, किस दरख़्त पर चढ़ जाना चाहता है..कभी अपने ख़ुद के मन से बातें करके देखिए, पता लगेगा कि उसे बस एक बैलेंस चाहिए ज़िंदगी में, कोई अंतहीन रेस नहीं.।
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