मेरी व्यथा

मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि कोई इस दुनिया से जब भी जाता है तो मैं भले ही उससे मिला हूँ या न मिला हूँ मगर उससे मेरा जरा सा भी मतलब  रहा हो या फिर मैं  उसका नाम भर जानता हूँ या कई मामलों में ऐसा भी होता है कि मैं उसे नहीं भी जानता था पर न जाने क्यों मुझे हर बार ऐसा लगता है कि जैसे मेरे शरीर से मेरा कुछ अंश कम हो गया हो । मुझे ऐसा लगता है कि इस दुःख में कुछ हिस्सा मेरा भी है जो मुझे जीना ही पड़ेगा वरना अनर्थ होगा ।  ये सोचना मुझे अवसाद में ले जाता है। मैं किसी का जाना बर्दाश्त ही नहीं कर पाया कभी । मैंने बहुत छोटी सी उम्र में बहुत कुछ जाते हुए देखा है जो जाना नहीं चाहिए था लेकिन गया । इससे ये हुआ कि मैं किसी के जाने के ख़्याल मात्र से घबरा जाता हूँ यहाँ तक कि कोई किसी से चले जाने के बारे में चर्चा भी करे तो मैं उसे अपना दुःख मानकर कुछ पल को जीने लगता हूँ । हालाँकि जानता हूँ कि ये समाज ऐसी सोच वाले आदमी को सामान्य नहीं मानती बल्कि उसे पागल तक करार दे देती है लेकिन समाज के लिये मैं ख़ुद के अंतर्मन की हत्या तो नहीं कर सकता।

कल शाम जैसे ही नीरज जी के जाने का समाचार मिला तब से इस दुःख को जी रहा हूँ। मैं नीरज जी से कभी मिला नहीं क्योकि कभी ऐसा मौका नहीं लगा लेकिन जैसे मेरे और भाईयों ने नीरज जी को पढा और जिया है वैसे ही मैंने भी नीरज को पढा और जिया है तो मैं ये जाना सहज स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ । दरअसल  मैं किसी का भी जाना स्वीकार नहीं कर पाता हूँ।

"किसी को भी जाना नहीं चाहिए । अगर जाना ही है तो लौट आने के वचन के साथ जाना चाहिए। "

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